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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 32/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नि॒धी॒यमा॑न॒मप॑गूळ्हम॒प्सु प्र मे॑ दे॒वानां॑ व्रत॒पा उ॑वाच । इन्द्रो॑ वि॒द्वाँ अनु॒ हि त्वा॑ च॒चक्ष॒ तेना॒हम॑ग्ने॒ अनु॑शिष्ट॒ आगा॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि॒ऽधी॒यमा॑नम् । अप॑ऽगूळ्हम् । अ॒प्ऽसु । प्र । मे॒ । दे॒वाना॑म् । व्र॒त॒ऽपाः । उ॒वा॒च॒ । इन्द्रः॑ । वि॒द्वान् । अनु॑ । हि । त्वा॒ । च॒चक्ष॑ । तेन॑ । अ॒हम् । अ॒ग्ने॒ । अनु॑ऽशिष्टः । आ । अ॒गा॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निधीयमानमपगूळ्हमप्सु प्र मे देवानां व्रतपा उवाच । इन्द्रो विद्वाँ अनु हि त्वा चचक्ष तेनाहमग्ने अनुशिष्ट आगाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    निऽधीयमानम् । अपऽगूळ्हम् । अप्ऽसु । प्र । मे । देवानाम् । व्रतऽपाः । उवाच । इन्द्रः । विद्वान् । अनु । हि । त्वा । चचक्ष । तेन । अहम् । अग्ने । अनुऽशिष्टः । आ । अगाम् ॥ १०.३२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 32; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! (देवानां व्रतपाः) विद्या की कामना करनेवालों का व्रतपालक आचार्य (अप्सु-अपगूळ्हं निधीयमानम्-त्वा-मे-प्र-उवाच) सब और व्याप्त परमाणुओं में तथा प्राणों में अन्तर्हित स्वयं विराजमान तुझे मेरे लिये उपदेश देता है। क्योंकि (विद्वान्-इन्द्रः-हि) ज्ञानदीप्तिमान् ही आचार्य (अनु चचक्ष) अनुदृष्ट किया-अनुभव किया (तेन-अनुशिष्टः-अहम्-आ-अगाम्) उस प्रखर विद्वान् आचार्य के द्वारा शिक्षा पाया हुआ मैं तुझे साक्षात् करने को-ध्यान को प्राप्त हुआ हूँ ॥६॥

    भावार्थ

    विद्या की कामना करनेवाले का आचार्य संसार के परमाणु-परमाणु में और प्राणों में व्याप्त है। उपासक उसको अपने अन्दर साक्षात् करते हैं ॥६॥

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    विषय

    'देव व्रत पालन इन्द्र विद्वान्'

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार सोम को शरीर में ही सिक्त करनेवाले मे मुझे (देवानां व्रतपा:) = देवों के व्रत का पालन करनेवाला, सत्य के व्रत का पालन करनेवाला (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय (विद्वान्) = ज्ञानी पुरुष (उवाच) = उस प्रभु का प्रतिपादन करता है, जो (निधीयमानम्) = प्रत्येक प्राणी व वस्तु के अन्दर (निहित) = विद्यमान हैं तथा (अप्सु) = सब [आपो नारा इति प्रोक्ताः] मानव प्रजाओं में (अपगूढम्) = हृदयरूप गुहा में छिपकर बैठे हुए हैं। शिष्य की विशेषता यह है कि वह 'ब्रह्मचारी' हो, आचार्य की विशेषता यह कि वह 'सत्यवादी जितेन्द्रिय व विद्वान्' हो, 'देवानां व्रतपाः, इन्द्र व विद्वान्' हो। ऐसा आचार्य ही शिष्य के लिये प्रभु का उपदेश कर पाता है । [२] हे प्रभो ! (इन्द्र विद्वान्) = यह जितेन्द्रिय ज्ञानी पुरुष (हि) = ही (त्वा) = आपको (अनुचचक्ष) = आत्मदर्शन के साथ देखता है। आपका दर्शन किये हुए होने के कारण ही यह औरों के लिये प्रभु का प्रतिपादन कर पाता है । [३] हे अग्ने अग्रेणी प्रभो ! (तेन) = इस विद्वान् से (अनुशिष्टः) = अनुशासन व उपदेश किया हुआ (अहम्) = मैं (आगाम्) = आपके समीप आनेवाला बनूँ । अजितेन्द्रिय अन्ध पुरुष के पीछे चलता हुआ तो मैं गर्त में ही गिरूँगा । सो मेरा सम्पर्क सदा जितेन्द्रिय ज्ञानी पुरुषों के साथ ही हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मुझे 'सत्यवादी जितेन्द्रिय ज्ञानी पुरुषों से प्रभु का उपदेश प्राप्त हो। इन प्रभु साक्षात्कार करनेवालों से उपदिष्ट हुआ हुआ मैं प्रभु को प्राप्त करनेवाला बनूँ' ।

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    विषय

    आर्चना से आत्मज्ञान की प्रार्थना। उससे उपदिष्ट होने की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (देवानां) देव, विद्याभिलाषी तेजस्वियों का (व्रत-पाः) व्रतपालन कराने वाला (मे) मुझे (अप्सु) प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं, और (आपः) जलों में गुप्त रूप से छुपे अग्नि-तत्ववत् आपोमय प्राणों वा लिङ्ग शरीरों के बीच (नि धीयमानम्) स्थापित हुए (अप-गूढम्) बाह्य इन्द्रियों से छुपे आत्मतत्त्व को (मे प्र उवाच) मुझे उपदेश करे। हे (अग्ने) जीव वा आत्मरूप अग्ने ! (हि) निश्चय से (इन्द्रः हि) आत्मा वा प्रभु उस तत्त्व को साक्षात् करने वाला योगी (विद्वान्) ज्ञानवान् पुरुष ही (त्वा अनु चचक्ष) तेरा साक्षात् अनुभव रूप से प्रत्यक्ष करता है। (तेन अनु-शिष्टः) उससे अनुशासन, शिक्षण पाकर ही मैं (त्वा अनु आ अगाम्) तुझे प्राप्त होऊं, तेरा अनुगमन करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। छन्दः- १, २ विराड्जगती। ३ निचृज्जगती ४ पादनिचृज्जगती। ५ आर्ची भुरिग् जगती। ६ त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८, निचृत् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! (देवानां व्रतपाः) विद्याकामानां व्रतपालक आचार्यः (अप्सु-अपगूळ्हं निधीयमानम्-त्वा मे प्र उवाच) सर्वत्र व्याप्तेषु प्रकृतिपरमाणुषु तथा मदीयशरीरस्थप्राणेषु खल्वन्तर्हितः तथा स्वतः स्थीयमानं मह्यं प्रावोचत्-यतः (विद्वान् इन्द्रः-हि) विद्वान् ज्ञानदीप्तिमान् आचार्यो हि (अनुचचक्ष) त्वामनुदृष्टवान्-अनुभूतवान् (तेन-अनुशिष्टः-अहम्-आ-अगाम्) तेन विदुषा प्रखरेणाचार्येण लब्धशिक्षोऽहं त्वां द्रष्टुं साक्षात्कर्त्तुं  ध्यानस्थानमागतोऽस्मि ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The protector and preserver of the laws of divinities, Indra, divine spirit and teacher, enlightens me and speaks of the fire and spirit of life, Agni, pervasive and concealed in the waters, in particles of Prakrti abounding in space and in the will, awareness and acts of humanity. O Agni, Indra, the spirit, only experiences and watches your presence. Taught, enlightened and committed by Indra, I have come to the realisation of your presence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्येची कामना करणाऱ्यांचा आचार्य (परमेश्वर) जगाच्या परमाणू-परमाणूत व प्राणात व्याप्त आहे. उपासक त्याला आपल्यामध्ये साक्षात करतात. ॥६॥

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