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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 33/ मन्त्र 9
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    न दे॒वाना॒मति॑ व्र॒तं श॒तात्मा॑ च॒न जी॑वति । तथा॑ यु॒जा वि वा॑वृते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । दे॒वाना॑म् । अति॑ । व्र॒तम् । श॒तऽआ॑त्मा । च॒न । जी॒व॒ति॒ । तथा॑ । यु॒जा । वि । व॒वृ॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न देवानामति व्रतं शतात्मा चन जीवति । तथा युजा वि वावृते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । देवानाम् । अति । व्रतम् । शतऽआत्मा । चन । जीवति । तथा । युजा । वि । ववृते ॥ १०.३३.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 33; मन्त्र » 9
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (देवानां व्रतम्-अति न शतात्मा चन जीवति) विद्वानों के उपदिष्ट आचरण को तथा दिव्य पदार्थों के नियम को लाँघकर-तोड़कर सौ वर्ष आयुवाला कोई भी जी नहीं सकता (तथा युजा विवावृते) वैसे ही समागमयोग्य परमात्मा से वियुक्त हो जाता है ॥९॥

    भावार्थ

    विद्वानों द्वारा उपदिष्ट आचरण तथा अग्नि सूर्य आदि पदार्थों के नियमों को तोड़कर सौ वर्ष की आयु को कोई प्राप्त नहीं कर सकता और परमात्मा के समागम से भी उसे अलग होना पड़ता है ॥९॥

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    Bhajan

    वैदिक मन्त्र
    न देवानामति व्रतं शतात्मा चन जीवति।
    तथा युजा वि वावृते।।  ऋ•१०.३३.९
              वैदिक भजन १०९१वां
    उद्दण्ड क्यों हो रहा है ऐ मानव !
    निज जीवन की सुध ले
    क्यों जग को बना रहा मरघट
    क्यों ला रहा पाप दु:ख रे
    धर्म भी ना जाने और कर्म भी ना जाने
    दूर सत्य से है
    असत्य में ही कटिबद्ध रे ।।
    उदण्ड.......
    कह दे निश्चय से क्या कुछ पाया है मनमानियां करके
    हिंसक दृष्टि से, दूर्वस वाणी से
    कर रहा पाप नित्य रे
    भूल कर रहा है नियमों को तोड़ के
    साथी भी वियुक्त हुए सब ओर से
    अंधाधुंध आपाधापी में
    दूर रह गया,प्यारे प्रभु से
    पानी है सफलता तो छोड़ दे कुटिलता
    यही सही तथ्य रे।।
    उद्दण्ड.......
    देखो देवों को, निज व्रत पालन में
    आसक्त हैं कितने
    नियम अटल से, कर्म प्रबल हैं
    टालते नहीं टलते
    मूर्खता है, शाश्वत नियम जो तोड़े
    खुद टूट जाए जो अटकाए रोड़े
    अतिक्रमण इसका करके,
    'शतात्मा' भी बच ना सके
    दैव-नियम अटल
    भङ्ग इन्हें ना कर
    वरना भोग दण्ड रे।।
    उद्दण्ड.......
    इसलिए प्यारे ! बन्धु -बान्धवो
    आओ ना मद में
    दैवी नियमों में तुम अपने को
    कर लो आबद्ध रे
    गर्व में ना आना, व्यर्थ बल के
    नियम प्रभु के ही नित्य चलते
    बुद्धिमानी से कर लो सतत्
    व्रत- पालन ऋत-सत्य के
    प्रभु है सुधाकर, देखो संग पाकर
    करो यही नित्य रे।।
    उद्दण्ड...........
                      १५.७.२००४
                      १.३० मध्यान्ह
                       शब्दार्थ:-
    उद्दण्ड=अक्खड़, मनमानी करने वाला
    मरघट=स्मशान
    कटिबद्ध=तत्पर, उद्यत, तैयार
    दुर्वस=कष्टदायक 
    वियुक्त=अलग किया हुआ, वंचित
    आपाधापी=व्यर्थ की दौड़, खींचतान
    कुटिलता=टेढ़ापन, धोखेबाजी
    तथ्य=यथार्थ
    शतात्मा=सौ मनुष्योंकी शक्ति रखने वाला
    अतिक्रमण=मर्यादा का उल्लंघन,दुरुपयोग
    आबद्ध=बंधा हुआ
    सुधाकर=अमृत की खान

    द्वितीय श्रृंखला का ८४ वां वैदिक भजन अबतक का १०९१ वां वैदिक भजन

    🕉️👏🧎‍♂️वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं🎧

     

    Vyakhya

    व्रत पालन करो

    मनुष्यो ! देखो, देव लोग व्रत पालन में बड़े कठोर हैं, लेकिन उद्दण्ड मानव अपने जीवन को मारकाट, दुरित, पापों में धर्म और कर्म से दूर ले रहे हैं।
    देवों के नियम अटल हैं। यह किसी के लिए टल नहीं सकते। इन ईश्वरीय नियमों को तोड़ने का यत्न करना बड़ी मूर्खता है। इन्हें तोड़ने का यत्न करने वाला स्वयं टूट जाएगा। पर यह नियम ना तोड़े जा सकेंगे। इनका अतिक्रमण करके, इनका उल्लंघन करके'शतात्मा'पुरुष भी नहीं बच सकता, 100 मनुष्यों की शक्ति रखने वाला, सद्गुणा वीर्य रखने वाला मनुष्य भी जीवित नहीं रह सकता। उसे भी व्रत भंग पर अपने बड़े से बड़े साथी से बलात वियुक्त हो जाना पड़ता है। दैव नियमों का भंग करने पर हमारे सब संबंध विच्छिन्न हो जाते हैं, हमारे सब जोड़ टूट जाते हैं। उस समय हमारी सहायता करना चाहता हूं अभी हमारा बलवान से बलवान जोड़ीदार, हमारा समर्थ से समर्थ साथी, हमारी सहायता नहीं कर सकता। उसके देखते-देखते हमें नियम भङ्ग का कठोर दण्ड भोगना पड़ता है। वह भी हमें बचा नहीं सकता।इसलिए हे भाइयों !
    हे बन्धुओ ! हमें कभी मद में आकर, अपने किसी भी प्रकार के बल के घमण्ड में आकर, कभी भूल कर भी देवों के व्रतों का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए, देवों के नियमों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।

     

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    विषय

    घर की ओर लौटना

    पदार्थ

    [१] मनुष्य यदि मृत्यु का स्मरण करता है तो अहंकार को जीत लेता है, यह मृत्यु स्मरण उसे प्रभु से भी दूर नहीं होने देता। सो मनुष्य को यह स्मरण रखना चाहिये कि (शतात्मा चन) = शत वर्षपर्यन्त जीवनवाला यह व्यक्ति भी (देवानां व्रतम्) = देवों के नियम को (न अतिजीवति) = लाँघकर नहीं जीता है, अर्थात् मनुष्य मरणधर्मा है, मृत्यु तो अवश्य आनी ही है। इस मृत्यु को कोई लाँघ नहीं सकता। यदि मनुष्य इस मृत्यु को न भूलेगा तो विषयों में न फँसेगा । [२] उस समय (तथा) = विषयों में न फँसने पर (युजा) = अपने उस प्रभुरूप मित्र के साथ रहता हुआ (विवावृते) = यह इस पृथ्वीलोक के वास को समाप्त करके अपने घर में लौट जाता है। फिर से ब्रह्मलोक को प्राप्त कर लेता है । यह ब्रह्मलोक प्राप्ति ही मोक्ष है। यहाँ पहुँचता वही है जो प्रकृति का मित्र न होता हुआ प्रभु का मित्र बनता है। प्रभु का मित्र वही बनता है जो मृत्यु को नहीं भूलता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर की नश्वरता का स्मरण करते हुए हम प्रभु के मित्र बनें और भोगों में न फँसकर अपने गृह ब्रह्मलोक की ओर लौटनेवाले बनें । सूक्त का प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है कि हम लोकहित के कार्यों में लगे रहें। [१] इन कार्यों में लगने पर क्षुधा, तृषा आदि शतशः कष्टों से हमारे धैर्य की परीक्षा होगी, [२] हम घबराकर प्रभु से कल्याण की प्रार्थना करेंगे, [३] प्रभु कहेंगे कि मुझे तो वही प्रिय है जो 'मेरी प्रेरणा को सुने और करे', [४] जो दमन व दान को अपनाये, [५] वाणी में माधुर्य को धारण करे, [६] प्रभु कहते हैं कि मैं उसकी प्रशंसा करता हूँ जो रक्षक बनता है, [७] जीव की प्रार्थना यही होनी चाहिए कि वह चक्रवर्ती भी बन जाए तो प्रभु को भूले नहीं, [८] न भूलेंगे तो घर की ओर लौटेंगे ही, [९] अन्यथा जूए आदि व्यसनों में फँसकर विचित्र-सा जीवन बिता रहे होंगे ।

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    विषय

    उसका शतायु जीवन।

    भावार्थ

    (देवानां व्रतं अति) देवों, विद्वानों के स्थिर किये व्रत नियम आदि को अतिक्रमण करके कोई (शतात्मा चन) सौ बरस तक भी (न जीवति) प्राण धारण नहीं करता। और (तथा) उसी प्रकार (युजा) अपने सहयोगी मित्र, बन्धु वा देहादि से (वि ववृते) वियुक्त हो जाता है। इति द्वितीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः॥ देवताः- १ विश्वे देवाः। २,३ इन्द्रः। ४, ५ कुरुश्रवणस्य त्रासदस्यवस्य दानस्तुतिः ६-९ उपमश्र व मित्रातिथिपुत्राः॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् २ निचृद् बृहती। ३ भुरिग् बृहती। ४–७, ९ गायत्री। ८ पादनिचृद् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवानां व्रतम्-अति न शतात्मा चन जीवति) विदुषां दिव्यपदार्थानां कर्मनियमं वाऽतिक्रम्य नहि शतसंवत्सरः शतसंवत्सरायुष्कः “संवत्सर आत्मा” [तै० सं०७।५।२५।१] कश्चन जीवति (तथा युजा विवावृते) तथैव योक्तव्येन परमात्मना च वियुज्यते वियुक्तो भवति ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    No soul of a hundred year life on earth, even if it had a hundred lives, can live beyond the laws of nature and divinity, therefore it has to leave and return to life with its natural concomitants of body and mind again and again in the cycle.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानाकडून उपदेशाचे आचरण व अग्नी, सूर्य इत्यादी पदार्थांचे नियम भंग करून शंभर वर्षांचे आयुष्य कोणी प्राप्त करू शकत नाही. परमेश्वराच्या संगतीपासूनही त्याला दूर व्हावे लागते. ॥९॥

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