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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 36/ मन्त्र 7
    ऋषिः - लुशो धानाकः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    उप॑ ह्वये सु॒हवं॒ मारु॑तं ग॒णं पा॑व॒कमृ॒ष्वं स॒ख्याय॑ श॒म्भुव॑म् । रा॒यस्पोषं॑ सौश्रव॒साय॑ धीमहि॒ तद्दे॒वाना॒मवो॑ अ॒द्या वृ॑णीमहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । ह्व॒ये॒ । सु॒ऽहव॑म् । मारु॑तम् । ग॒णम् । पा॒व॒कम् । ऋ॒ष्वम् । स॒ख्याय॑ । श॒म्ऽभुव॑म् । रा॒यः । पोष॑म् । सौ॒श्र॒व॒साय॑ । धी॒म॒हि॒ । तत् । दे॒वाना॑म् । अवः॑ । अ॒द्य । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप ह्वये सुहवं मारुतं गणं पावकमृष्वं सख्याय शम्भुवम् । रायस्पोषं सौश्रवसाय धीमहि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । ह्वये । सुऽहवम् । मारुतम् । गणम् । पावकम् । ऋष्वम् । सख्याय । शम्ऽभुवम् । रायः । पोषम् । सौश्रवसाय । धीमहि । तत् । देवानाम् । अवः । अद्य । वृणीमहे ॥ १०.३६.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 36; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सुहवं पावकम्) सुन्दर आह्वान करने योग्य पवित्रकारक (शम्भुवम्) कल्याणकारक (ऋष्वम्) महान् (मारुतं गणम्) जीवन्मुक्त विद्वानों के मण्डल को (सख्याय-उपह्वये) मित्रता के लिये अपने समीप आमन्त्रित करता हूँ (रायस्पोषम्) ज्ञानधन के पोषक (सौश्रवसाय) उत्तम श्रवण करानेवाले का (धीमहि) मन में चिन्तन करें-संकल्प करें। आगे पूर्व के समान ॥७॥

    भावार्थ

    ऊँचे विद्वान्, जीवन्मुक्त, पवित्रकारक, कल्याणसाधक, ज्ञानधन के वर्द्धक तथा उपदेश देनेवाले महानुभावों की मित्रता और उनसे उपदेश का लाभ लेना चाहिये ॥७॥

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    विषय

    मारुतगण का आह्वान

    पदार्थ

    [१] (मारुतं गणम्) = प्राणों के गण को (उपह्वये) = पुकारता हूँ, अर्थात् प्राणायामादि के द्वारा मैं इन प्राणों की साधना करता हूँ। जो प्राण (सुहवम्) = उत्तम पुकारवाले हैं, अर्थात् जिनका आराधन कल्याण ही कल्याण करनेवाला है। (पावकम्) = ये प्राण पवित्र करनेवाले हैं, प्राणायाम से दोषों का दहन होकर इन्द्रियाँ निर्मल हो जाती हैं। (ऋष्वम्) = यह मारुतगण दर्शनीय है व महान् है [great, high, noble] प्राणसाधना से शरीर स्वस्थ व सुन्दर बनता है और मनुष्य उन्नत होकर महान् बनता है । (शंभुवम्) = यह मारुतगण शान्ति को जन्म देता है, इस प्राणसाधना से मानस शान्ति प्राप्त होती है। इस प्रकार यह मारुतगण (सख्याय) = उस प्रभु के साथ हमारी मित्रता के लिये साधन बनता है । [२] इस प्राणसाधना के द्वारा हम (रायस्पोषम्) = धनों के पोषण को भी (धीमहि) = धारण करते हैं। और यह (रायस्पोष) = हमारे (सौश्रवसाय) = उत्तम यश के लिये हो । प्राणसाधना से शक्ति की भी वृद्धि होती है और मानस पवित्रता भी प्राप्त होती है । शक्ति वृद्धि से हमारी धनार्जन की क्षमता बढ़ती है और मानस पवित्रता से हम उस धन का ठीक उपयोग व यज्ञ में विनियोग करते हैं। इसलिए यह धन हमारे यश का कारण बनता है । [३] इस प्रकार यज्ञों को करते हुए हम (देवानाम्) = देवों के (तद् अवः) = उस रक्षण को (अद्या) = आज (वृणीमहे) = वरते हैं। यज्ञों के द्वारा दिव्यता का अपने में वर्धन करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना हमारे जीवन को पवित्र व सशक्त बनाये। हम धनार्जन की क्षमतावाले बनें और उस धन का यज्ञों में विनियोग करके यशस्वी हों ।

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    विषय

    प्रभु की आत्मदेह में प्राणापान की प्राप्ति। देह में से बल ज्ञान आदि की याचना।

    भावार्थ

    मैं (सु-हवं) उत्तम यज्ञशील, सुखप्रद, उत्तम नाम को धारण करने वाले, (मारुतं गणम्) वायुवत् बलवान् पुरुषों के तुल्य, देह में प्राणगण को (उप ह्वये) अपने समीप बुलाऊं, उनको प्राप्त करूं। और (सख्याय) मित्र भाव के लिये (शं भुवम्) शान्तिजनक, (ऋष्वं) महान् (पावकम्) सबको पवित्र करने वाले प्रभु की (उप ह्वये) स्तुति करता हूं। और (सौश्रवसाय) उत्तम सुखपूर्वक अन्न, धन, ज्ञानादि के लाभ के लिये हम (रायः पोषम् धीमहि) धन के परिपोषक को धारण करें। (देवानां तद् अवः अद्य वृणीमहे) विद्वानों के उस २ ज्ञान, धन, बलादि को हम प्राप्त करना चाहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    लुशो धानाक ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:– १, २, ४, ६–८, ११ निचृज्जगती। ३ विराड् जगती। ५, ९, १० जगती। १२ पादनिचृज्जगती। १३ त्रिष्टुप्। १४ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सुहवं पावकम्) शोभनह्वातव्यं पवित्रकारकम् (शम्भुवम्) शम्भावयितारं (ऋष्वम्) महान्तम् “ऋष्व महन्नाम” [निघं० ३।३] (मारुतं गणम्) जीवनमुक्तानां वृन्दम् “मरुतो देवविशः” [श० २।५।१।१२] (सख्याय-उपह्वये) सखित्वाय-उपमन्त्रये (रायस्पोषम्) ज्ञानधनस्य पोषकम् (सौश्रवसाय) शोभनश्रवणस्य श्रावयितारम् “द्वितीयार्थे चतुर्थी व्यत्ययेन” (धीमहि) ध्यायेम (तद्देवाना०) अग्रे पूर्ववत् ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I invoke and call upon the band of Maruts, vibrant winds of nature and dynamic sages and pioneers of humanity, worthy of service and adoration, pure and purifying and harbingers of peace and well being, all heroic and sublime. I invoke them to win their love and friendship. We study and meditate upon wealth, energy and enrichment for participation in their grace and glory.$This is the protective and promotive favour of the divinities we choose to pray for today.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उच्च विद्वान, जीवनमुक्त, पवित्र व कल्याणसाधक, ज्ञानधनाचे वर्द्धक व उपदेशक, अशा महानुभवांशी मैत्री केली पाहिजे व त्यांच्याकडून उपदेशाचा लाभ घेतला पाहिजे. ॥७॥

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