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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 42/ मन्त्र 9
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त प्र॒हाम॑ति॒दीव्या॑ जयाति कृ॒तं यच्छ्व॒घ्नी वि॑चि॒नोति॑ का॒ले । यो दे॒वका॑मो॒ न धना॑ रुणद्धि॒ समित्तं रा॒या सृ॑जति स्व॒धावा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । प्र॒ऽहाम् । अ॒ति॒ऽदीव्य॑ । ज॒या॒ति॒ । कृ॒तम् । यत् । श्व॒ऽघ्नी । वि॒ऽचि॒नोति॑ । का॒ले । यः । दे॒वऽका॑मः । न । धना॑ । रु॒ण॒द्धि॒ । सम् । इत् । तम् । रा॒या । सृ॒ज॒ति॒ । स्व॒धाऽवा॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत प्रहामतिदीव्या जयाति कृतं यच्छ्वघ्नी विचिनोति काले । यो देवकामो न धना रुणद्धि समित्तं राया सृजति स्वधावान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । प्रऽहाम् । अतिऽदीव्य । जयाति । कृतम् । यत् । श्वऽघ्नी । विऽचिनोति । काले । यः । देवऽकामः । न । धना । रुणद्धि । सम् । इत् । तम् । राया । सृजति । स्वधाऽवान् ॥ १०.४२.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 42; मन्त्र » 9
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उत) तथा (अतिदीव्य प्रहां जयाति) जीतने की इच्छा करके प्रबल घातक शत्रु को जीतता है (यत् कृतं श्वघ्नी विचिनोति काले) जैसे प्रहार किये हुए को भेड़िया समय पर स्वाधीन करता है, वैसे ही शत्रु को विजेता स्वाधीन करता है, परन्तु (यः-देवकामः) जो तो देव अर्थात् मोद या शान्त भाव को चाहता है, उसके (धना न रुणद्धि) धनों को नहीं रोकता है-नहीं ग्रहण करता है, अपितु (स्वधावान् तम्-इत् राया सं सृजति) धनान्नवाला राजा उसको तो धन से संयुक्त करता है ॥९॥

    भावार्थ

    राजा को चाहिए कि जो विनाशकारी विरोधी शत्रु हो, उसे साधनों से स्वाधीन करे और जो शान्तिप्रिय हो, उसे धनादि की सहायता दे ॥९॥

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    विषय

    देवकाम पुरुष

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के सोमरक्षण के प्रसंग को उपस्थित करते हुए कहते हैं कि यह सोमरक्षक पुरुष (अतिदीव्य) = प्रभु की अतिशयेन स्तुति करता हुआ (प्रहाम्) = [प्रहन्तारं ] प्रकर्षेण विनाश करनेवाली 'मार' नामवाली इस कामवासना को (जयाति) = जीत लेता है। प्रभु का स्तवन काम का संहार करनेवाला होता है। काम के संहार से यह क्रोध-लोभ आदि अन्य शत्रुओं से भी ऊपर उठ जाता है, [२] (उत) = और (यत्) = जैसे (श्वघ्नी) = कल की फिक्र न करनेवाला (कितव) = जुआरी पुरुष (काले) = मौके पर (कृतम्) = ऋतोपार्जित सम्पूर्ण धन को (विचिनोति) = बखेर देता है इसी प्रकार (यः) = जो (देवकामः) = प्रभु प्राप्ति की कामनावाला अथवा देवयज्ञादि को करने की कामनावाला (धना) = धनों को (न रुणद्धि) = रोकता नहीं है । उदारतापूर्वक इन धनों का यज्ञों में विनियोग करता है । [२३] (तम्) = उस देवकाम पुरुष को (स्वधावान्) = सम्पूर्ण 'स्व' धनों का धारण करनेवाला प्रभु (राया) = धन से (इत्) = निश्चियपूर्वक (सं सृजति) = संसृष्ट करता है। देवकाम पुरुष को यज्ञादि की पूर्ति के लिये धनों की कमी नहीं रहती ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम स्तवन द्वारा काम को पराजित करें। उदारता से धनों का यज्ञों में विनियोग करें। प्रभु हमें सब आवश्यक धन प्राप्त करायेंगे ।

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    विषय

    मनुष्य को कितव के तुल्य विजयोद्योगी होने का उपदेश।

    भावार्थ

    (यत् श्वघ्नी कृतं जयाति) जिस प्रकार कितव, जूआखोर ‘कृत’ नाम पासे को (काले वि चिनोति) अवसर पर प्राप्त करता है और (प्रहाम् अतिदीव्य जयति) अपने पासे को मारने वाले को अतिक्रमण करके जीत लेता है। इसी प्रकार (यत् श्वघ्नी) वीर पुरुष स्वकीय इष्ट जनों को प्राप्त करने और परस्व, शत्रुधन को आहरण करने वाला (कृतं) स्वोपार्जित राष्ट्र धनादि को वा कर्म, उद्योग द्वारा प्राप्त ऐश्वर्य को (काले वि चनोति) उचित समय पर संग्रह कर लेता है और (प्रहाम्) प्रहार करने वाले, कार्यनाशक विघ्न को अतिक्रमण कर उस पर भी विजय पा लेता है और (यः) जो (देवकामः) विद्वान् मनुष्यों वा प्रभु का प्रिय होकर उनके कार्य के लिये (धना न रुणद्धि) अपने धनैश्वर्यों को रोक नहीं रखता प्रत्युत खूब खुल कर दान देता है (तम् इत्) उस को ही (स्वधावान् राया सम् सृजति) बल, शक्ति से सम्पन्न ऐश्वर्यवान् जन धनैश्वर्य से युक्त कर देता है।

    टिप्पणी

    ‘कृतं न श्वघ्नी’ इति च पाठः। ‘कृतं। यत्। श्वघ्नी।’ इति च पदपाठः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कृष्णः। इन्द्रो देवता॥ छन्द:–१, ३, ७-९, ११ त्रिष्टुप्। २, ५ निचृत् त्रिष्टुम्। ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६, १० विराट् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उत) अपि च (अतिदीव्य प्रहां जयाति) अतिजेतुमिच्छां कृत्वा “दिवु क्रीडाविजिगीषा……” [दिवा०] प्रबलहन्तारं शत्रुं जयति (यत् कृतं श्वघ्नी विचिनोति काले) यथा कृतं प्रहारकृतं प्रहृतं शुनो हन्ता वृकः “श्वघ्नी शुनो हन्ति” [ऋ० २।१२।४ दयानन्दः] काले स्वाधीनीकरोति तथा स्वाधीनीकरोति, परन्तु (यः देव कामः) यस्तु देवं मोदं शान्तभावं कामयते तस्य (धना न रुणद्धि) धनानि नावरोधयति न गृह्णाति, अपि तु (स्वधावान् तम्-इत् राया सं सृजति) धनान्नवान् राजा तं तु धनेन संयोजयति ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    A veteran winner, he counters an attack and wins the opponent just as an expert player or hunter rounds up his prey and chooses the right time to strike and win. He does not restrict or restrain the philanthropist who loves divinity and spends on yajnic projects, instead, master, protector and promoter of wealth and power as he is, he blesses the giver with more and more of wealth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने विनाशकारी विरोधी शत्रूच्या विविध साधनांना ताब्यात घ्यावे व जो शांतिप्रिय असेल त्याला धन इत्यादीने साह्य करावे. ॥९॥

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