ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 44/ मन्त्र 11
बृह॒स्पति॑र्न॒: परि॑ पातु प॒श्चादु॒तोत्त॑रस्मा॒दध॑रादघा॒योः । इन्द्र॑: पु॒रस्ता॑दु॒त म॑ध्य॒तो न॒: सखा॒ सखि॑भ्यो॒ वरि॑वः कृणोतु ॥
स्वर सहित पद पाठबृ॒हस्पतिः॑ । नः॒ । परि॑ । पा॒तु॒ । प॒श्चात् । उ॒त । उत्ऽत॑रस्मात् । अध॑रात् । अ॒घ॒ऽयोः । इन्द्रः॑ । पु॒रस्ता॑त् । उ॒त । म॒ध्य॒तः । नः॒ । सखा॑ । सखि॑ऽभ्यः । वरि॑ऽवः । कृ॒णो॒तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पतिर्न: परि पातु पश्चादुतोत्तरस्मादधरादघायोः । इन्द्र: पुरस्तादुत मध्यतो न: सखा सखिभ्यो वरिवः कृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पतिः । नः । परि । पातु । पश्चात् । उत । उत्ऽतरस्मात् । अधरात् । अघऽयोः । इन्द्रः । पुरस्तात् । उत । मध्यतः । नः । सखा । सखिऽभ्यः । वरिऽवः । कृणोतु ॥ १०.४४.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 44; मन्त्र » 11
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(बृहस्पतिः) वेदवाणी का स्वामी परमात्मा (अघायोः) हमारे प्रति पाप-अनिष्ट को चाहनेवाले से (नः पश्चात्-उत-उत्तरस्मात्) हमें पश्चिम की ओर से, उत्तर की ओर से (अधरात् परि पातु) और नीचे की ओर से बचावे (इन्द्रः) वही ऐश्वर्यवान् परमात्मा (पुरस्तात्-उत मध्यतः) पूर्वदिशा की ओर से और मध्य दिशा की ओर से भी रक्षा करे (सखा नः सखिभ्यः-वरिवः कृणोतु) मित्ररूप परमात्मा हम मित्रों के लिए धन प्रदान करे ॥११॥
भावार्थ
किसी भी दिशा में वर्त्तमान अनिष्टकारी से परमात्मा रक्षा करता है, जब कि हम सखासमान गुण आचरण को कर लेते हैं ॥११॥
विषय
प्रभु विश्वास
पदार्थ
इन दोनों मन्त्रों का व्याख्यान ४२.१० तथा ४२.११ पर द्रष्टव्य है । जीवन की यज्ञमयता के लिये जौ व गोदुध का आहार अत्यन्त आवश्यक है। यहाँ यह बात भी प्रसंगवश ध्यान देने योग्य है कि ४२,४३ तथा ४४ तीनों सूक्त 'कृष्ण आंगिरस' ऋषि के हैं। तीनों ही सूक्त इन्हीं दो मन्त्रों पर समाप्त होते हैं। कृष्ण भगवान् के जीवन के साथ भी गौवों का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। वस्तुतः अपनी ओर गुणों को आकृष्ट करने के लिये [कृष्] तथा अंग-प्रत्यंग में रसमय व शक्तिशाली बनने के लिये 'गोदुग्धं व जौ' का प्रयोग आवश्यक ही है। इस ४४ सूक्त के प्रारम्भ में कहा है कि हम 'स्व-पति' बनें, हमारा शरीररूप-रथ 'उत्तम स्थान व दृढ़ता' वाला हो, [२] हम सत्यशुष्म बनें, [३] सोम [वीर्य] की महिमा को समझें [४] हमारा यह शरीररूप पात्र मलिनताओं से अनाधृष्य हो, [५] हम यज्ञिय नाव पर आरोहण करें, [६] हम पीछे न हटकर आगे ही आगे बढ़ें, [७] हमारे शरीर व मस्तिष्क समीचीन हों, [८] जीवन हमारा यज्ञमय हो, [९] गोदुग्ध व जौ के प्रयोग से हमारी वृत्ति सात्त्विक बने, [१०] प्रभु सर्वतः हमारे रक्षक हों, [११] हम अपने जीवनों में तीनों अग्नियों को प्रज्वलित करके प्रभु के प्रिय बनें। यह प्रभु का प्रिय बननेवाला ' वदति' प्रभु के गुणों का उच्चारण करता है और अपने कर्मों से 'प्रीणाति' प्रभु को प्रीणित करता है । यह अपने जीवन में 'भलं वर्णत्रियं दनं दानं यस्य' स्तुत्व दानवाला होता है। इस प्रकार यह 'वत्सप्री- भालन्दन' बनता है-
विषय
परमेश्वर से सर्वतोभद्र रक्षा की याचना।
भावार्थ
(बृहस्पतिः) बड़े भारी बल, राष्ट्र और वाणी का पालक (नः पश्चात् उत उत्तरस्मात् अधरात्) हमें पीछे से, ऊपर से और नीचे से वा उत्तर और दक्षिण से (अघायोः पातु) पापाचार करना चाहने वाले से बचावे । (इन्द्रः) शत्रुहन्ता, ऐश्वर्यवान् प्रभु (पुरस्तात् उत मध्यतः) आगे से और बीच में से भी (नः परि पातु) हमारी रक्षा करे। (सखा सखिभ्यः) वह सब का मित्र सब को समान दृष्टि से देखने वाला, न्यायी हम मित्रों के उपकारार्थ (वरिवः कृणोतु) उत्तम धन प्रदान करे। इति सप्तविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कृष्णः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २,१० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ११ त्रिष्टुप्। ४ विराड्जगती। ५–७, ९ पादनिचृज्जगती। ८ निचृज्जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(बृहस्पतिः) वेदवाण्याः स्वामी परमात्मा (अघायोः) पापकामिनोऽनिष्टेच्छुकात् (पश्चात्-उत उत्तरस्मात्-अधरात्-नः परिपातु) पश्चिमतोऽप्युत्तरतो दक्षिणतश्चास्मान् रक्षतु (इन्द्रः) स ऐश्वर्यवान् परमात्मा (पुरस्तात्-उत मध्यतः) पूर्वदिक्तो मध्यतश्च रक्षतु (सखा नः सखिभ्यः-वरिवः कृणोतु) स एव सखिभूतः परमात्माऽस्मभ्यं सखिभूतेभ्यो धनप्रदानं करोतु “वरिवः धननाम” [निघ० २।१०] ॥११॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May Brhaspati protect and promote us all round from behind, from above and from below against sin and evil. May Indra, our friend and ruler, create and give wealth, honour and excellence for us and for the entire fraternity of the world from within at the centre of humanity and may he continue the same into the future.
मराठी (1)
भावार्थ
कोणत्याही दिशेत असलेल्या अनिष्टापासून परमात्मा रक्षण करतो. जेव्हा आम्ही मित्राप्रमाणे त्याच्या गुणांचे आचरण करतो. ॥११॥
टिप्पणी
या दोन मंत्रांची व्याख्या बेचाळिसाव्या सूक्तात यापूर्वीच केलेली आहे.
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