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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 44/ मन्त्र 9
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    इ॒मं बि॑भर्मि॒ सुकृ॑तं ते अङ्कु॒शं येना॑रु॒जासि॑ मघवञ्छफा॒रुज॑: । अ॒स्मिन्त्सु ते॒ सव॑ने अस्त्वो॒क्यं॑ सु॒त इ॒ष्टौ म॑घवन्बो॒ध्याभ॑गः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । बि॒भ॒र्मि॒ । सुऽकृ॑तम् । ते॒ । अ॒ङ्कु॒शम् । येन॑ । आ॒ऽरु॒जासि॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । श॒फ॒ऽआ॒रुजः॑ । अ॒स्मिन् । सु । ते॒ । सव॑ने । अ॒स्तु॒ । ओ॒क्य॑म् । सु॒ते । इ॒ष्टौ । म॒घ॒ऽव॒न् । बो॒धि॒ । आऽभ॑गः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं बिभर्मि सुकृतं ते अङ्कुशं येनारुजासि मघवञ्छफारुज: । अस्मिन्त्सु ते सवने अस्त्वोक्यं सुत इष्टौ मघवन्बोध्याभगः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । बिभर्मि । सुऽकृतम् । ते । अङ्कुशम् । येन । आऽरुजासि । मघऽवन् । शफऽआरुजः । अस्मिन् । सु । ते । सवने । अस्तु । ओक्यम् । सुते । इष्टौ । मघऽवन् । बोधि । आऽभगः ॥ १०.४४.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 44; मन्त्र » 9
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ते-इमं सुकृतम्-अङ्कुशं बिभर्मि) हे परमात्मन् ! तेरे इस सुसंस्कृत, सुबद्ध, सुरचित, सुसिद्ध, ज्ञानाङ्कुश वेदशासन को मैं धारण करता हूँ-आचरण में लाता हूँ (येन शफारुजः-रुजासि) जिस ज्ञानाङ्कुश से, अपने खुरों से पीड़ा देनेवाले-तीक्ष्ण खुरोंवाले पशुओं की भाँति प्रहारक जनों को तू पीड़ित करता है (अस्मिन् सुते सवने) इस निष्पादित अध्यात्मरसस्थान हृदय में (ते सु-ओक्यम्-अस्तु) तेरा शोभन स्थान घर है (मघवन्) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (इष्टौ-आभगः-बोधि) अध्यात्मयज्ञ में भली-भाँति तू हमारा भजनीय हुआ स्तुति प्रार्थना को जान-पूरा कर ॥९॥

    भावार्थ

    परमात्मा ने समस्त मनुष्यों को ठीक मार्ग में चलने के लिए वेदज्ञान का उपदेश दिया है। उससे विपरीत चलनेवालों को वह दण्ड देता है, किन्तु जो उसके अनुसार आचरण करते हैं, उसकी उपासना करते हैं, उनके हृदयसदन में उन्हें वह साक्षात् होता है। उनकी स्तुति प्रार्थना को पूरा करता है ॥९॥

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    विषय

    यज्ञमय जीवन

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (इमम्) = इस (ते) = आपके (सुकृतम्) = पुण्य के कारणभूत (अंकुशम्) = स्तवन को (बिभर्मि) = मैं धारण करता हूँ । यहाँ स्तुति को 'अंकुश' इसलिए कहा है कि यह हमें मार्ग पर चलने के लिये प्रेरक होती है। अंकुश हाथी को मार्गभ्रष्ट नहीं होने देता इसी प्रकार स्तुति मनुष्य को मार्गभ्रष्ट होने से बचाती है। हे (मघवन्) = सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के स्वामिन् प्रभो ! यह स्तुतिरूप अंकुश वह है (येन) = जिससे (शफारुजः) = [शफ = root of a tree] शरीर रूप वृक्ष के मूल पर आघात करनेवाले 'काम-क्रोध-लोभ' को (आरुजासि) = आप छिन्न-भिन्न कर देते हो। 'काम' शरीर को क्षीण करके विलास का शिकार बना देता है, 'क्रोध' मन को अशान्त कर देता है और लोभ बुद्धि का विनाशक है। इन तीनों 'शफारुजों' को हम प्रभु-स्तवन के द्वारा विनष्ट करनेवाले बनते हैं । [२] इनको विनष्ट करके हम शरीर में सोम का [= वीर्यशक्ति का] सम्पादन करते हैं और चाहते हैं कि (अस्मिन् सवने सुते) = जीवन यज्ञ में सोम का [ = वीर्यशक्ति का] सम्पादन पर (ओक्यं अस्तु) = प्रभु का यहाँ निवास हो । [३] हे (आभगः) = आभजनीय-सर्वदा स्तवन के योग्य प्रभो ! (इष्टौ सुते) = इस जीवन को यज्ञरूप में चलाने पर (बोधि) = आप हमारा ध्यान करिये। आप से रक्षित होकर ही तो हम इस जीवन को यज्ञ का रूप दे सकेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का स्तवन हमारे जीवनरूप हाथी को लिये अंकुश के समान हो। हम जीवन को यज्ञमय बना पायें, उस यज्ञमय जीवन में प्रभु का निवास हो ।

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    विषय

    प्रभु से दुष्टों के नाशक बल की याचना।

    भावार्थ

    हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन्! (येन) जिससे तू (शफारुजः) दुर्वचनों से, वा समवाय बना कर दूसरों को पीड़ा देने वाले दुष्ट जनों को (रुजासि) पीड़ित वा नष्ट करता है मैं (ते) तेरे (सुकृतं) उत्तम रीति से बने उस (अंकुशं) अंकुश, वज्र को (बिभर्मि) धारण करूं। (ते अस्मिन् सवने) तेरे इस ऐश्वर्यमय शासन में (ओक्यं सु अस्तु) सुखपूर्वक गृह का सा निवास हो। हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! तू (आ-भगः) सब प्रकार से ऐश्वर्यवान् और सेवनीय होकर (सुते इष्टौ) उत्तम रीति से सम्पादित यज्ञ में (बोधि) हमारी स्तुतियों को जान।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कृष्णः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २,१० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ११ त्रिष्टुप्। ४ विराड्जगती। ५–७, ९ पादनिचृज्जगती। ८ निचृज्जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ते-इमं सुकृतम्-अङ्कुशं बिभर्मि) हे इन्द्र परमात्मन् ! तव खल्विमं सुसंस्कृतं सुबद्धं सुरचितं सुसिद्धं वा ज्ञानाङ्कुशं वेदशासनमहं धारयामि-आचरामि-सेवे (येन शफारुजः-आरुजासि) येन ज्ञानाङ्कुशेन खुरैरन्यान् रुजन्ति पीडयन्ति, तीक्ष्णखुरवन्तः पशव इव प्रहारका जनास्तान् त्वं पीडयसि (अस्मिन् सुते सवने) अस्मिन् निष्पादितेऽध्यात्मरसस्थाने हृदये (ते सु-ओक्यम्-अस्तु) तव शोभनं स्थानम्-ओको गृहमेवौक्यमस्तु (मघवन्) हे ऐश्वर्यवन् ! परमात्मन् ! (इष्टौ-आभगः-बोधि) अध्यात्मेष्टौ समन्ताद् भजनीयस्त्वमस्माकं स्तुतिप्रार्थनां बोधयसि-पूरय ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I happily abide by this law and discipline of yours, Indra, which is divinely maintained and sustained, the law by which, O lord of power and glory, you punish those who strike life by their hoof and claw. May your presence abide in this holy seat of my yajna in the heart and soul. May your divine majesty, O lord of glory, know and fulfil our desire in this cherished act of love and faith.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याने संपूर्ण माणसांना ठीक मार्गाने चालण्यासाठी वेदज्ञानाचा उपदेश दिलेला आहे. त्याच्या विपरीत चालणाऱ्यांना तो दंड देतो; परंतु जे त्याच्यानुसार आचरण करतात, त्याची उपासना करतात, त्यांच्या हृदयसदनात त्यांना तो साक्षात् होतो. त्यांची स्तुती, प्रार्थना तो पूर्ण करतो. ॥९॥

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