Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 45 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 45/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वत्सप्रिः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    विश्व॑स्य के॒तुर्भुव॑नस्य॒ गर्भ॒ आ रोद॑सी अपृणा॒ज्जाय॑मानः । वी॒ळुं चि॒दद्रि॑मभिनत्परा॒यञ्जना॒ यद॒ग्निमय॑जन्त॒ पञ्च॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्व॑स्य । के॒तुः । भुव॑नस्य । गर्भः॑ । आ । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒पृ॒णा॒त् । जाय॑मानः । वी॒ळुम् । चि॒त् । अद्रि॑म् । अ॒भि॒न॒त् । प॒रा॒ऽयन् । जनाः॑ । यत् । अ॒ग्निम् । अय॑जन्त । पञ्च॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वस्य केतुर्भुवनस्य गर्भ आ रोदसी अपृणाज्जायमानः । वीळुं चिदद्रिमभिनत्परायञ्जना यदग्निमयजन्त पञ्च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वस्य । केतुः । भुवनस्य । गर्भः । आ । रोदसी इति । अपृणात् । जायमानः । वीळुम् । चित् । अद्रिम् । अभिनत् । पराऽयन् । जनाः । यत् । अग्निम् । अयजन्त । पञ्च ॥ १०.४५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 45; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विश्वस्य केतुः) संसार का प्रकाशक, प्रेरक, संचालक (भुवनस्य गर्भः) प्राणिमात्र का ग्रहण करनेवाला-स्वीकार करनेवाला (जायमानः-रोदसी-अपृणात्) उदय होता हुआ द्युलोक और पृथ्वीलोक को अपने प्रकाश से भर देता है-छिन्न-भिन्न कर देता है (परायन् वीळुं चित्-अद्रिम्-अभिनत्) बलवान् मेघ को भी पराक्रम से तोड़ देता है-छिन्न-भिन्न कर देता है (यत्-पञ्च जनाः-अग्निम्-अयजन्त) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, निषाद नामक पाँचों जन जब अग्निहोत्र में अग्नि का यजन करते हैं, उस समय ॥६॥

    भावार्थ

    सूर्य संसार में प्रगति देनेवाला है, आकाश और पृथ्वी के मध्य में अपने प्रकाश को भर देता है। मनुष्यमात्र जब सामूहिकरूप से यजन करते हैं और यज्ञ में मेघ बनते हैं, उन मेघों को पृथ्वी पर बरसा देनेवाला सूर्य है। वह मेघों को छिन्न-भिन्न कर पृथ्वी पर बरसा देता है, जो प्राणियों के पोषण का निमित्त बनता है ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सबका चिकित्सक

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र का 'वत्सप्री' (विश्वस्य केतुः) = सबको ज्ञान देनेवाला होता है। 'कित निवासे रोगापनयने च' = सबको निवास देनेवाला बनता है और सबके रोगों को दूर करने के लिये यत्नशील होता है। ज्ञान देने के द्वारा निवास भी उत्तम होता है, रोग भी दूर होते हैं। (भुवनस्य गर्भः) = यह सारे भुवन का गर्भ बनता है, सबको अपने में धारण करनेवाला होता है। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' सारी वसुधा इसका परिवार बन जाती है। [२] (जायमानः) = अपनी शक्तियों का विकास करता हुआ यह (रोदसी) = द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को (आ अपृणात्) = सब प्रकार से पालित व पूरित करता है, यह उनमें न्यूनता को नहीं आने देता । (परा यन्) = विषय-वासनाओं से दूर होता हुआ यह (वीडुं चित्) = अत्यन्त दृढ़ भी (अद्रिम्) = अविद्या पर्वत को (अभिनत्) = विदीर्ण करनेवाला होता है । विषय-वासनाएँ ही ज्ञान पर आवरण के रूप में होती हैं। उनसे दूर होकर यह अज्ञान को नष्ट कर डालता है । (यद्) = जब ऐसा होता है उस समय (अग्निम्) = इस प्रगतिशील जीव को (पञ्चजना:) = पाँचों विकास, पाँचों कोशों की उन्नति से, (अयजन्त) = संगत होती हैं, प्राप्त होती हैं । इसके पाँचों ही कोश अपने-अपने विकसित गुणोंवाले होते हैं । इसका अन्नमयकोश तेज से, प्राणमयकोश वीर्य से, मनोमयकोश ओज व बल से, विज्ञानमयकोश मन्यु से तथा आनन्दमयकोश सहस् से परिपूर्ण होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम वसुधा को ही अपना परिवार समझनेवाले, अज्ञान को दूर करके सब कोशों की शक्तियों को प्राप्त करनेवाले हों ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    और उसके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    वह राजा, प्रभु (विश्वस्य भुवनस्य केतुः) समस्त जगत् का प्रकाशक, (गर्भः) सब को अपने वश करने वाला और सबके बीच में छुपा हुआ, (जायमानः) व्यक्त होकर (रोदसी आ अपृणात्) ज़मीन और आकाश सब को सब तरफ़ पूर्ण कर रहा है। वह (वीडुम् अद्रिम् अभिनत्) बलवान् मेघ को सूर्य के तुल्य अभेद्य तम को भी छिन्न भिन्न करता है, (यत् अग्निम्) जिस तेजस्वी नायक को (जनाः परायन्) मनुष्य परम जान कर आश्रय करते, (पञ्च) पांचों जन जिसको (अयजन्त) आदर, उपासना पूजा करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वत्सप्रिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१—५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९-१२ विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विश्वस्य केतुः) संसारस्य प्रद्योतयिता प्रेरयिता चालयिता (भुवनस्य गर्भः) भूतजातस्य प्राणिमात्रस्य ग्रहणकर्त्ता स्वीकर्त्ता (जायमानः-रोदसी-अपृणात्) उदयन् द्यावापृथिव्यौ स्वप्रकाशेन पूरयति (परायन् वीळुं चित्-अद्रिम्-अभिनत्) बलवन्तमपि मेघम् “अद्रिर्मेघनाम” [निघ० १।१०] पराक्रमं कुर्वन् भिनत्ति (यत् पञ्च जनाः-अग्निम्-अयजन्त) ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रनिषादाः यदाऽग्निहोत्रेऽग्निं यजन्ति-अग्निहोत्रं कुर्वन्ति तदा “पञ्चजना………चत्वारो वर्णा निषादः पञ्चमः [निरु० ३।८] ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Illuminator of the world, pervasive life energy of the universe, as it rises it fills the heaven and earth with light and life. Moving ahead and penetrating, it breaks the mighty strong cloud, and for this reason of its energy, power and light all communities of the world kindle and adore it in their yajnic projects of creation and production.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्य जगाची प्रगती करणारा आहे. आकाश व पृथ्वीवर आपला प्रकाश पसरवितो. माणसे जेव्हा सामूहिक रूपाने यजन करतात. यज्ञाने मेघ बनतात. त्या मेघांना पृथ्वीवर वर्षाव करणारा सूर्य आहे. तो मेघांना छिन्न भिन्न करून पृथ्वीवर वृष्टी करतो. जो प्राण्यांच्या पोषणाचे निमित्त बनतो. ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top