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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 47/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सप्तगुः देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स्वा॒यु॒धं स्वव॑सं सुनी॒थं चतु॑:समुद्रं ध॒रुणं॑ रयी॒णाम् । च॒र्कृत्यं॒ शंस्यं॒ भूरि॑वारम॒स्मभ्यं॑ चि॒त्रं वृष॑णं र॒यिं दा॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽआ॒यु॒धम् । सु॒ऽअव॑सम् । सु॒ऽनी॒थम् । चतुः॑ऽसमुद्रम् । ध॒रुण॑म् । र॒यी॒णाम् । च॒र्कृत्य॑म् । शंस्य॑म् । भूरि॑ऽवारम् । अ॒स्मभ्य॑म् । चि॒त्रम् । वृष॑णम् । र॒यिम् । दाः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वायुधं स्ववसं सुनीथं चतु:समुद्रं धरुणं रयीणाम् । चर्कृत्यं शंस्यं भूरिवारमस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽआयुधम् । सुऽअवसम् । सुऽनीथम् । चतुःऽसमुद्रम् । धरुणम् । रयीणाम् । चर्कृत्यम् । शंस्यम् । भूरिऽवारम् । अस्मभ्यम् । चित्रम् । वृषणम् । रयिम् । दाः ॥ १०.४७.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 47; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सु-आयुधम्) शोभन आयु के धारण करानेवाले (सु-अवसम्) सम्यक् रक्षा करनेवाले (सुनीथम्) सुसंचालक-अच्छे नेता (चतुः-समुद्रम्) चार अर्थात् धर्मार्थकाममोक्ष जिससे सिद्ध होते हैं, उस ऐसे (रयीणां धरुणम्) पोषणकारक धनों के धारण करनेवाले (चर्कृत्यम्) पुनः-पुनः सत्करणीय-उपासनीय (शस्यम्) प्रशंसनीय (भूरिवारम्) बहुत वरणीय पदार्थों के दाता परमात्मा को जानते हैं-मानते हैं (अस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दाः) पूर्ववत् ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा उत्तम आयु का देनेवाला, उत्तम रक्षक, धर्मार्थकाममोक्ष का साधक, विविध धनों का धारण करनेवाला है, ऐसे बहुत वरणीय पदार्थों के दाता सत्करणीय परमात्मा को जानना और मानना चाहिए, वह हमें निश्चित धन और सुख से संपन्न कर सकता है ॥२॥

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    विषय

    कैसी सन्तान ?

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये रयिम् = [पुत्रास्यं रयिं ] पुत्ररूप धन को (दा:) = दीजिये । जो पुत्र [क] (स्वायुधम्) = उत्तम आयुधोंवाला है । इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि आयुध हैं, ये तीनों जिनके उत्तम हैं वे 'स्वायुध' हैं। [ख] (स्ववसं) [सु अवसम् ] = जो उत्तमता से अपना रक्षण करता है । वस्तुतः रोगों व वासनाओं से अपने को न आक्रान्त होने देने के द्वारा ही वे 'स्वायुध' बने हैं। [ग] (सुनीथम्) = उत्तम मार्ग से चलनेवाले पुत्र को [घ] (चतुः समुद्रम्) = वेदज्ञान के समुद्र हैं [ रायः समुद्राँश्चतुरः] जो चारों ज्ञान-समुद्रोंवाला है [चत्वारः समुद्राः यस्य] जो ऋग्वेद के द्वारा प्रकृति के ज्ञान को, यजु के द्वारा जीवन के कर्त्तव्यों के ज्ञान को तथी साम द्वारा प्रभु की उपासना के ज्ञान को प्राप्त करके अथर्व से आयुर्वेद व युद्धविद्या का भी ज्ञान प्राप्त करता है । [ङ] (रयीणां धरुणम्) = हमें उस सन्तान को दीजिये जो कि धनों का धारण करनेवाला है, जो संसार व्यवहार को चलाने के लिये धनार्जन की क्षमता रखता है । [च] (चर्कृत्यम्) = [कर्तव्येषु कार्येषु साधुम् द० १।६४।१४] जो कर्त्तव्य कर्मों को उत्तमता से करता है, [छ] (शंस्यम्) = जो प्रभु के शंसन व स्तवन में उत्तम है, [ज] (भूरिवारम्) = जो बहुतों से चाहने योग्य है, अर्थात् जो अपने स्वार्थ में ही फँसा न रहकर बहुतों का हित करता है और अतएव बहुतों से चाहने योग्य होता है। [झ] (चित्रम्) = ज्ञान का देनेवाला है और [ञ] (वृषणम्) = शक्तिशाली है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें मन्त्रोक्त दश गुणों से सम्पन्न सन्तान प्राप्त हों ।

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    विषय

    सर्वरक्षक।

    भावार्थ

    हे प्रभो ! हे राजन् ! हम तुझे (सु-आयुधम्) दुष्टों को भली प्रकार ताड़ना देनेहारा, उत्तम मनन साधनों से सम्पन्न, (सु-अवसम्) उत्तम रक्षा करनेहारा, (सु-नीथम्) उत्तम नीति और उत्तम वाणी का ज्ञाता, (चतुः-समुद्रम्) चारों समुद्रों का शासक, (रयीणां धरुणम्) समस्त ऐश्वर्यों का आश्रय, (चर्कृत्यम्) समस्त जगत् का बनाने वाला, (शंस्यम्) प्रशंसनीय वा सर्वोपदेष्टा, (भूरि-वारम्) बहुत से कष्टों वा दुष्टों का वारण करने वाला जानते हैं। तू (अस्मभ्यं) हमें (वृषणं चित्रं रयिं दाः) सर्वसुखवर्षी, अद्भुत, संग्रह योग्य ऐश्वर्य प्रदान कर। इन सब द्वितीयान्त पदों के साथ ‘विद्म’ क्रिया का सम्बन्ध करना चाहिये।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः सप्तगुः॥ देवता–इन्द्रो वैकुण्ठः॥ छन्द:– १, ४, ७ त्रिष्टुप्। २ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ५, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सु-आयुधम्) शोभनायुधारयितारम् (सु-अवसम्) सम्यग्रक्षणकर्तारम् (सुनीथम्) सुसञ्चालकं शोभननेतारम् (चतुःसमुद्रम्) चत्वारः कामाः कमनीयपदार्था धर्मार्थकाममोक्षा यस्मात् सिद्ध्यन्ति तथाभूतम् “कामं समुद्रमाविश” [तै० आ० ३।१०।२] (रयीणां धरुणम्) पोषणकराणां धनानां धारकम् (चर्कृत्यम्) पुनः पुनः सत्करणीयमुपासनीयम् “चर्कृत्यः यो जगदीश्वरः सर्वमनुष्यैः पुनः पुनरुपासनायोग्यः” [ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, दयानन्दः] (शस्यम्) प्रशंसनीयम् (भूरिवारम्) भूरयो वाराः-वरणीया यस्मात् तं बहुवरणीयानां दातारं विद्म जानीम इति (अस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दाः) पूर्ववत् ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We know you, Indra, wielder of mighty weapons, unfailing guardian, noble guide, pervasive all round in the four quarters of space, treasure-hold of universal wealth, constantly doing and glorified, adorable and infinite source of choicest boons. Pray bear and bring us abundant and wondrous wealth of the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उत्तम आयू देणारा, उत्तम रक्षक, धर्मार्थकाममोक्षाचे साधन, विविध धन धारण करणारा, पुष्कळ वरणीय पदार्थांचा दाता आहे. सत्कर्म करणाऱ्या परमात्म्याला जाणले व मानले पाहिजे, तो आम्हाला निश्चित धन व सुखाने संपन्न करू शकतो. ॥२॥

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