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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 50/ मन्त्र 3
    ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - धैवतः

    के ते नर॑ इन्द्र॒ ये त॑ इ॒षे ये ते॑ सु॒म्नं स॑ध॒न्य१॒॑मिय॑क्षान् । के ते॒ वाजा॑यासु॒र्या॑य हिन्विरे॒ के अ॒प्सु स्वासू॒र्वरा॑सु॒ पौंस्ये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    के । ते । नरः॑ । इ॒न्द्र॒ । ये । ते॒ । इष॒े । ये । ते॒ । सु॒म्नम् । स॒ऽध॒न्य॑म् । इय॑क्षान् । के । ते॒ । वाजा॑य । अ॒सु॒र्या॑य । हि॒न्वि॒रे॒ । के । अ॒प्ऽसु । स्वासु॑ । उ॒र्वरा॑सु । पौंस्ये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    के ते नर इन्द्र ये त इषे ये ते सुम्नं सधन्य१मियक्षान् । के ते वाजायासुर्याय हिन्विरे के अप्सु स्वासूर्वरासु पौंस्ये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    के । ते । नरः । इन्द्र । ये । ते । इषे । ये । ते । सुम्नम् । सऽधन्यम् । इयक्षान् । के । ते । वाजाय । असुर्याय । हिन्विरे । के । अप्ऽसु । स्वासु । उर्वरासु । पौंस्ये ॥ १०.५०.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 50; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र के ते नरः) हे परमात्मन् ! वे तेरे मुमुक्षुजन कौन हैं (ये ते इषे) जो तेरे एषणीय मोक्ष के लिए (सुम्नं सधन्यम्-इयक्षान्) जो अपने को साधु और सधन्य, सफल सङ्गत करते हैं (के ते वाजाय-असुर्याय हिन्विरे) कौन तेरे अमृत अन्नभोग के लिए अपने को प्रेरित करते हैं (के स्वासु-उर्वरासु-अप्सु पौंस्ये) कौन अपनी ऊँची कामनाओं में और आत्मभाव में आत्मा को प्रेरित करते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    मोक्ष की इच्छा करनेवाले और अपने को उसके अधिकारी बनानेवाले विरले होते हैं, एवं परमात्मा के अमृतभोग को चाहनेवाले अपने को उन्नत किया करते हैं ॥३॥

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    विषय

    भक्तों विषयक प्रश्न

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् प्रभो ! (ते के नरः) वे कौन से मनुष्य हैं (ये) जो (ते इषे) तेरी प्रेरणा पाने वाले हैं, तेरे दिये अन्न, वृष्टि आदि के लिये चाहते रहते हैं और (ये) जो (स-धन्यम्) ऐश्वर्य सहित (ते सुम्नम्) तेरे सुख को (इयक्षान्) प्राप्त होते हैं। और (के) वे कौन हैं जो (ते असुर्याय वाजाय) प्राणों को धारण करने और दुष्टों के नाशकारी तेरे बलैश्वर्य के लाभ के लिये (हिन्विरे) यत्न करते हैं ? और वे (के) कौन हैं जो (अप्सु) प्राणों वा प्रजाओं के बीच वा धर्म से प्राप्त (स्वासु उर्वरासु) अपनी ऊर्वरा भूमियों में (पौंस्ये) अपने पुरुषोचित वीर्य वा पराक्रम के बल पर, उत्तम गृहपति के तुल्य प्रजापति होकर धनधान्य, ऐश्वर्य और सन्तान आदि से (हिन्विरे) बढ़ते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रो वैकुण्ठ ऋषिः। देवता—इन्द्रो वैकुण्ठः॥ छन्द:- १ निचृज्जगती। २ आर्ची स्वराड् जगती। ६, ७ पादनिचृज्जगती। ३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५ त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    आनन्द में कौन ?

    पदार्थ

    [१] (ते नरः) = वे मनुष्य (के) = आनन्द में विचरनेवाले हैं (ये) = जो हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! ते इषे = आपकी प्रेरणा में चलते हैं । अन्तः स्थित प्रभु की प्रेरणा को सुनकर कार्य करनेवाले लोग आनन्द में विचरण करते हैं । [२] आनन्द में वे हैं (ये) = जो हे प्रभो ! (ते) = आपके (सुम्नम्) = स्तवन को [hymn], जो (सधन्यम्) = मनुष्य को प्रशस्त बनानेवाले धन से युक्त है, (इयक्षान्) = अपने साथ संगत करते हैं । प्रभु का स्तवन करनेवाले धन-सम्पन्न व्यक्ति आनन्दमय जीवनवाले होते हैं । प्रभु-स्तवन से रहित धन ही निधन का कारण बनता है। [३] (ते) = वे (के) = आनन्द में हैं जो (असुर्याय) = असुरों के संहार के लिये साधनभूत (वाजाय) = शक्ति के लिये (हिन्वरे) = प्रेरित होते हैं । आसुरवृत्तियों को नष्ट करनेवाले बल से युक्त पुरुष ही आनन्दमय जीवनवाले होते हैं। [४] आनन्द में वे हैं जो (स्वासु उर्वरासु) = अपनी उपजाऊ भूमियों पर (पौंस्ये) = पुरुषार्थ में निवास करते हैं और (अप्सु) = सदा कर्मों में लगे रहते हैं । अर्थात् कृषि-प्रधान (पौरुष) = सम्पन्न क्रियाशील जीवन ही मनुष्य को आनन्दित करनेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- आनन्द प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि - [क] हम प्रभु प्रेरणा को सुनें, [ख] प्रभु का स्तवन करते हुए धनसम्पन्न हों, [ग] आसुरवृत्तियों की नाशक शक्ति से युक्त हों, [घ] कृषि प्रधान श्रममय जीवन बिताएँ ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र के ते नरः) हे परमात्मन् ! के हि ते नरो मुमुक्षवः सन्ति (ये ते-इषे) ये तव-एषणीयमोक्षाय (सुम्नं सधन्यम्-इयक्षान्) आत्मानं साधुम् “सुम्ने मा धत्तमिति साधौ मा धत्तमित्येवैतदाह” [श० १।८।३।२७] तथा सधन्यं सफलं सङ्गच्छन्ते “इयक्षति गतिकर्मा” [निघ० २।१४] के (ते वाजाय-असुर्याय हिन्विरे) के तव- अमृतान्नभोगाय-प्राणपोषकाय “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै० २।१९३] आत्मानं प्रेरयन्ति (के स्वासु-उर्वरासु अप्सु पौंस्यै) के खलु स्वासु-उच्चासु कामनासु “आपो वै सर्वे कामाः” [श० ४।५।५।१५] आत्मत्वे च-आत्मानं प्रेरयन्ति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, who are those people that try to win your favour of sustenance and enlightenment, who realise your divine bliss of peace and well being, who exert themselves to win the strength and spirit of life and joy of divinity, and who delight in their own acts of ambition, manliness and generosity?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मोक्षाची इच्छा धरणारे व स्वत:ला त्याचे अधिकारपात्र बनविणारे कमी असतात; परंतु परमात्म्याच्या अमृतभोगाची कामना करणारे मात्र स्वत:ला उन्नत करतात. ॥३॥

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