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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 54/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    च॒त्वारि॑ ते असु॒र्या॑णि॒ नामादा॑भ्यानि महि॒षस्य॑ सन्ति । त्वम॒ङ्ग तानि॒ विश्वा॑नि वित्से॒ येभि॒: कर्मा॑णि मघवञ्च॒कर्थ॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    च॒त्वारि॑ । ते॒ । अ॒सु॒र्या॑णि । नाम॑ । अदा॑भ्यानि । म॒हि॒षस्य॑ । स॒न्ति॒ । त्वम् । अ॒ङ्ग । तानि॑ । विश्वा॑नि । वि॒त्से॒ । येभिः॑ । कर्मा॑णि । म॒घ॒ऽव॒न् । च॒कर्थ॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चत्वारि ते असुर्याणि नामादाभ्यानि महिषस्य सन्ति । त्वमङ्ग तानि विश्वानि वित्से येभि: कर्माणि मघवञ्चकर्थ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चत्वारि । ते । असुर्याणि । नाम । अदाभ्यानि । महिषस्य । सन्ति । त्वम् । अङ्ग । तानि । विश्वानि । वित्से । येभिः । कर्माणि । मघऽवन् । चकर्थ ॥ १०.५४.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 54; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (महिषस्य ते चत्वारि नाम) तुझ महान् परमात्मा के चार नाम (असुर्याणि-अदाभ्यानि सन्ति) मन से मनन करने योग्य अर्थात् जागरितस्थान ब्रह्म अकार-‘अ’ से, स्वप्नस्थान ब्रह्म उकार-‘उ’ से, सुषुप्तस्थान ब्रह्म मकार-‘म’ से, तुरीय ब्रह्म अमात्र-विराम से, ये चारों नाम अविनश्वर-स्वाभाविक हैं (अङ्ग) हे प्रिय परमात्मन् ! (तानि विश्वानि वित्से) उन सब अन्य नामों को उन चारों नामों से प्राप्त होते हो, अतः वे चार मुख्य नाम हैं (येभिः कर्माणि मघवन् त्वं चकर्थ) उनसे भिन्न जिन ‘विष्णु’ आदि नामों से तू सृष्टिरचना आदि कर्म करता है ॥४॥

    भावार्थ

    महान् परमात्मा के चार स्वाभाविक नाम हैं, जो ‘ओ३म्’ की चार मात्राओं द्वारा कहे जाते हैं-मन से समझे जाते हैं। ‘अ’ से जागरितस्थान ब्रह्म, ‘उ’ से स्वप्नस्थान ब्रह्म, ‘म्’ से सुषुप्तस्थान ब्रह्म, पश्चात् अमात्र-विराम से तुरीय ब्रह्म। अन्य नाम इन्हीं नामों के अन्तर्गत हो जाते हैं। ये नाम स्वाभाविक हैं, स्वरूपबोधक हैं। इनसे भिन्न ‘विष्णु’ आदि कर्मनाम हैं, सृष्टि आदि कर्मों को दर्शानेवाले हैं ॥४॥

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    विषय

    महान् प्रभु के ४ अविनाशी रूप।

    भावार्थ

    हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! (ते महिषस्य) तुझ महान् प्रभु के (चत्वारि) चार (नाम) नाम, रूप ही (अदाभ्यानि) कभी नाश न होने योग्य, अविनाशी हैं। (अङ्ग) हे प्रभो ! (त्वं तानि विश्वानि वित्से) तू उन सबको जानता है (येभिः) जिन से तू (कर्माणि चकर्थ) समस्त कर्म, जगत् आदि निर्माण करता है। ब्रह्म के ४ पाद ४ अदाभ्य नाम हैं जो ‘असुर्यं’ है अर्थात् असु प्राणों में रमण करने वालों या जीवों में भी प्रकट होते हैं, जीवों में प्रकट होने वाली उन चार दशाओं के अनुसार ही ब्रह्म में भी उन चार दशाओं का वर्णन किया जाता है। वे चार दशाएं जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और अमात्रा तुरीया दशा। तदनुसार सृष्टि, स्थिति, लय और परमा दशा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहदुक्थो वामदेव्यः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ६ त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    शक्ति

    पदार्थ

    [१] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (महिषस्य) = [मह पूजायाम्] पूजा के योग्य (ते) = आपके (चत्वारि) = [ चत्-नाशने terrify] आसुरवृत्तियों को नष्ट करनेवाले, असुर्याणि आसुरवृत्तियों के दूर करने के लिये साधनभूत (अदाभ्यानि) = न हिंसित होनेवाले (नाम) = शत्रुओं को झुका देनेवाले बल (सन्ति) = हैं । हे (अंग) = सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को गति देनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप ही (तानि विश्वानि) = उन सब बलों को (वित्से) = जानते हैं । ये वे बल हैं (येभिः) = जिनसे (कर्माणि) = सृष्टि की उत्पत्ति स्थिति प्रलय व कर्मानुसार विविध योनियों में प्राणियों को जन्म देने रूप कर्मों को आप (चकर्थ) = करते हैं । [२] प्रभु की शक्तियाँ आसुर वृत्तियों को नष्ट करनेवाली हैं। मनुष्य स्वयं आसुर - भावनाओं को जीतने में समर्थ नहीं होता। प्रभु की शक्ति को धारण करने पर ही इनको हम नष्ट कर पाते हैं। इन शक्तियों के द्वारा ही हमने उत्तम कर्मों को करना है, इनके द्वारा ही लोक धारण में प्रवृत्त होना है। ये शक्तियाँ ही हमें आसुरभावों को नष्ट करने के योग्य बनायेंगी और इन्हीं से हम न्याय्य मार्ग पर चलते हुए किसी को उसके अधिकार से वञ्चित न करना चाहेंगे ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु की शक्ति हिंसित नहीं हो सकती। इन शक्तियों से अपने को शक्ति सम्पन्न बनाकर हम आसुरवृत्तियों का संहार करनेवाले बनते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (महिषस्य ते चत्वारि नाम) महतस्तव “महिषः-महन्नाम” [निघ० ३।३] (असुर्याणि-अदाभ्यानि सन्ति) मनोज्ञेयानि-मनसा मननीयानि “मनो वा असुरम्” [जै० उ० ३।३५।३] जागरितस्थानं ब्रह्म-अकारमात्रया, स्वप्नस्थानं ब्रह्म-उकारमात्रया, सुषुप्तस्थानं ब्रह्म मकारमात्रया, तुरीयं ब्रह्म-अमात्ररूपेण, तानि खल्वविनश्यानि स्वाभाविकानि भवन्ति (अङ्ग) हे प्रिय परमात्मन् ! (तानि विश्वानि वित्से) तानि यानि खल्वन्यानि सर्वाणि नामानि तैश्चतुभिर्नामभिः लभसेऽतो मुख्यानि नामानि तानि (येभिः कर्माणि मघवन् त्वम् चकर्थ) यैर्नामभिस्तद्भिन्नैर्विष्णुप्रभृतिभिः कर्माणि सृष्टिरचनादिकर्माणि करोषि ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O great and glorious Indra, four are your states of being, four the modifications of existential manifestation, all of them living and imperishable, which all, O dear lord of life of the universe, you know and by which, O lord of cosmic majesty, you perform the acts of universal life in existence.$(The four states of cosmic being are waking, dreaming, sleeping and the transcendent Absolute. Four states of existence are generation, sustenance, withdrawal and the trans-existential state. Four Prakrti modifications are Prakrti, mahat, ahankara and the specifics of material and mental forms of physical, biological and psychic stages of evolution which are then absorbed into the Absolute state at the end.) Reference may also be made to ‘Om’ which is the divine Word, the name of divinity consisting of four matras A, U, and M and the fourth is silent and absolute. ‘A’ refers to the waking, that is, the objective state of existence which is the subject of science. ‘U’ refers to the imaginative and subjective state which is the subject of psychology and meditation upto the stage of ‘vitark’ and ‘vichara’ samadhi, and ‘M’ refers to the sleep state which is realisable in ‘Ananda’ state of Samadhi. All these are covered under the Samprajnata Samadhi. The fourth, transcendent state, is realisable in Asamprajnata samadhi which is Transcendental Meditation).

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    महान परमात्म्याची चार नावे आहेत. जी ‘ओ३म्’च्या चार मात्रांद्वारे म्हटली जातात. मनांनी समजली जातात. ‘अ’ने जागरित स्थान ब्रह्म, ‘उ’ने स्वप्नस्थान ब्रह्म, ‘म’ने सुषुप्तस्थान ब्रह्म, त्यानंतर अ मात्र-विरामाने तुरीय ब्रह्म. इतर नावे याच नावाच्या अंतर्गत येतात. ही नावे स्वाभाविक आहेत. स्वरूपबोधक आहेत. यापेक्षा वेगळे ‘विष्णू’ इत्यादी कर्म नाव आहेत. सृष्टी इत्यादी कर्मांना दर्शविणारी आहेत. ॥४॥

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