ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 56/ मन्त्र 7
ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ना॒वा न क्षोद॑: प्र॒दिश॑: पृथि॒व्याः स्व॒स्तिभि॒रति॑ दु॒र्गाणि॒ विश्वा॑ । स्वां प्र॒जां बृ॒हदु॑क्थो महि॒त्वाव॑रेष्वदधा॒दा परे॑षु ॥
स्वर सहित पद पाठना॒वा । न । क्षोदः॑ । प्र॒ऽदिशः॑ । पृ॒थि॒व्याः । स्व॒स्तिऽभिः॑ । अति॑ । दुः॒ऽगानि॑ । विश्वा॑ । स्वाम् । प्र॒ऽजाम् । बृ॒हत्ऽउ॑क्थः । म॒हि॒ऽत्वा । अव॑रेषु । अ॒द॒धा॒त् । आ । परे॑षु ॥
स्वर रहित मन्त्र
नावा न क्षोद: प्रदिश: पृथिव्याः स्वस्तिभिरति दुर्गाणि विश्वा । स्वां प्रजां बृहदुक्थो महित्वावरेष्वदधादा परेषु ॥
स्वर रहित पद पाठनावा । न । क्षोदः । प्रऽदिशः । पृथिव्याः । स्वस्तिऽभिः । अति । दुःऽगानि । विश्वा । स्वाम् । प्रऽजाम् । बृहत्ऽउक्थः । महिऽत्वा । अवरेषु । अदधात् । आ । परेषु ॥ १०.५६.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 56; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 7
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(नावा न क्षोदः) नौका से जिस प्रकार कोई मनुष्य जल को पार करता है (स्वस्तिभिः पृथिव्याः प्रदिशः) सुकल्याणकर आचरणों द्वारा फैली हुई सृष्टि के प्रदेशों को तथा (विश्वा दुर्गाणि-अति) तत्रस्थ सारे दुर्गम्य ऊँचे-नीचे स्थानों को पार करता है-लाँघता है (बृहदुक्थः स्वां प्रजाम्) महान् अर्थात् सबसे महत्त्वपूर्ण गुण वचनवाला सद्गृहस्थ अपनी सन्तति को (महित्वा-अवरेषु परेषु) महान् भावना-उदारता से समीप और दूरवालों में समानभाव से अपनों में तथा दूसरे वंशों में गुण-कर्म-व्यवस्था के अनुसार (आ-अदधात्) सम्बन्ध का आधान करता है-विवाह करता है ॥७॥
भावार्थ
जैसे कोई मनुष्य नौका से जलाशय को पार करता है या जैसे विस्तृत सृष्टि के प्रदेशों और दुर्गम स्थानों को यात्रा के साधनों से पार करता है, इसी प्रकार गृहस्थ में आये संकटों को अपने शुभचरित्रों से पार करे तथा अपने पुत्र-पुत्रियों का विवाहसम्बन्ध स्ववंशीय स्ववर्ण के या परवंशीय-परवर्ण के जनों में गुणकर्मानुसार करे ॥७॥
विषय
नाव और समुद्र के दृष्टान्त से इस लोक का तरण, प्रजास्थापन का उपदेश।
भावार्थ
(नावा क्षोदः न) नाव से जिस प्रकार जल को तरा जाता है, उसी प्रकार (स्वस्तिभिः) उत्तम कल्याणकारक उपायों से (पृथिव्याः) पृथिवी, भूमि या इस लोक की (प्र-दिशः) समस्त दिशाओं को (विश्वा दुर्गाणि अति) और समस्त दुखदायी कष्टों को पार करके (बृहद्-उक्थः) बड़े भारी ज्ञान को जानने वाला विद्वान् (महित्वा) अपने महान् सामर्थ्य से (परेषु अवरेषु) आगे आने वालों और उत्तम जनों में, पास और दूर के लोकों में भी (स्वां प्रजाम् आ अदधात्) अपनी प्रजा को उत्पन्न करे। इत्यष्टादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहदुक्थो वामदेव्यः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:–१, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४ पादनिचृज्जगती। ५ विराड् जगती। ६ आर्ची भुरिंग् जगती॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
पिता के गुणों का पुत्र पौत्रों में संचार
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार प्रभु को अपने में स्थापित करनेवाला व्यक्ति (पृथिव्याः प्रदिशः) पृथिवी की इन प्रकृष्ट दिशाओं को उसी प्रकार (अति) = अतिक्रान्त कर जाता है (न) = जैसे कि (क्षोदः) = पानी को [= नदी को] (नावा) = नाव से पार कर लेते हैं। यह व्यक्ति (स्वस्तिभिः) = [सु अस्ति = ] उत्तम जीवन से, जीवन के सब कार्यों को उत्तमता से करने के द्वारा (विश्वा दुर्गाणि अति) = सब कठिनताओं को पार कर जाता है। [२] प्रभु स्मरण से उत्तम जीवन को बनाकर यह (स्वां प्रजाम्) = अपने विकास को सिद्ध करता है। प्रभु स्मरण इसके लिये भवसागर को पार करने के लिये नाव के समान हो जाता है। यह (बृहदुक्थः) = प्रभु को खूब ही स्तुत करनेवाला व्यक्ति (महित्वा) = अपने महत्त्व से, अपनी 'मह पूजायाम्' इस प्रभु-पूजा की वृत्ति से (अपरेषु) = अपने सन्तानों में भी, पुत्रों में भी प्रभु पूजा के भाव को (अदधात्) = धारण करता है। पिता का स्वभाव पुत्र में संक्रान्त होना ही चाहिये। [३] पुत्र 'अवर' कहलाता है, अपने एकदम समीप होने से । पौत्र 'पर' कहलाता है, पुत्र से अन्तर्हित होकर यह हमारे से दूर [पर-far] ही हो जाता है। 'बृहदुक्थ' जहाँ अपने पुत्रों में अपने विकास को संचरित करता है, वहाँ वह इस विकास को पौत्रों में भी संचरित करनेवाला होता है । इसीलिए कहते कि (परेषु) = दूरभावी पौत्र आदि में भी (आ) = वह अपने विकास को प्राप्त कराता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का स्तोता 'बृहदुक्थ' अपने जीवन की शक्तियों का विकास करके उस विकास को पुत्र-पौत्रों में भी संचरित करनेवाला होता है। तीन ज्योतियों को धारण करने के साथ इस सूक्त का प्रारम्भ होता है [१] और प्रभु सम्पर्क से शक्ति सम्पन्न बनकर उन शक्तियों को पुत्र-पौत्रों में संचरित करने के साथ सूक्त की समाप्ति । इस प्रभु सम्पर्क के लिये मनोनिरोध आवश्यक है। मन को बाँधनेवाला 'बन्धु' ही अगले ४ सूक्तों का ऋषि है। यह उत्तमता से मन को बाँधने कारण 'सुबन्धु' है। ज्ञान प्राप्ति में, स्वाध्याय में मन को बाँधने से यह 'श्रुतबन्धु' है और अपना विशेषरूप से [वि] पूरण करने के लिये [प्रा] इस बन्धन क्रिया को करने के कारण यह 'विप्रबन्धु' है। मनोनिरोध से इन्द्रियों [गो] का उत्तमता से रक्षण करनेवाले ये 'बन्धु, सुबन्धु, श्रुतबन्धु व विप्रबन्धु' गौपायन हैं। इनकी प्रार्थना है कि-
संस्कृत (1)
पदार्थः
(नावा न क्षोदः) नौकया यथा कश्चिज्जन उदकं तरति “क्षोदः उदकनाम” [निघ० १।१२] (स्वस्तिभिः पृथिव्याः प्रदिशः-विश्वा दुर्गाणि-अति) सु-अस्तित्वकरैराचरणैः पृथिव्याः प्रथितायाः सृष्टेः प्रदिशः प्रविभागान् प्रदेशान् वा तथा तत्रस्थानि विश्वानि सर्वाणि दुर्गम्यानि क्रमणानि पारयति (बृहदुक्थः स्वां प्रजां महित्वा-अवरेषु परेषु-आ अदधात्) बृहत्-उक्थं महत्-महत्त्वपूर्णं सर्वेभ्यो महद् वचनं गुणवचनं यस्य स सद्गृहस्थः स्वकीयां पुत्ररूपां दुहितृरूपां च सन्ततिं महद्भावनया-उदारतया-अवरेषु समीपेषु परेषु दूरस्थेषु च समानभावेन स्ववंश्येषु परवंश्येषु च गुणकर्म-व्यवस्थामनुसरन् आदधाति विवाहयति ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as you cross the flood by boat and, with noble acts of knowledge, action and piety, cross all difficult problems of earthly life, so does the man of praise-worthy knowledge, action and piety cross over the problems of life and death and leaves his own legacy, physical, intellectual and spiritual, by his own grand potential vesting it in the next and further generations to survive and continue.
मराठी (1)
भावार्थ
जशी एखादी व्यक्ती नावेद्वारे जलाशय पार करते किंवा जसे विस्तृत सृष्टीतील प्रदेश व दुर्गम स्थानी यात्रेच्या साधनांद्वारे पार पाडते. त्याच प्रकारे गृहस्थ जीवनात आलेल्या संकटातून आपल्या शुभाचरणाने पार पडावे. आपल्या कन्या व पुत्रांचा विवाह जवळ किंवा दूर असलेल्या वर्णातील लोकांशी गुणकर्मानुसार करावा. ॥७॥
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