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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 61/ मन्त्र 16
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒यं स्तु॒तो राजा॑ वन्दि वे॒धा अ॒पश्च॒ विप्र॑स्तरति॒ स्वसे॑तुः । स क॒क्षीव॑न्तं रेजय॒त्सो अ॒ग्निं ने॒मिं न च॒क्रमर्व॑तो रघु॒द्रु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । स्तु॒तः । राजा॑ । व॒न्दि॒ । वे॒धाः । अ॒पः । च॒ । विप्रः॑ । त॒र॒ति॒ । स्वऽसे॑तुः । सः । क॒क्षीव॑न्तम् । रे॒ज॒य॒त् । सः । अ॒ग्निम् । ने॒मिम् । न । च॒क्रम् । अर्व॑तः । र॒घु॒ऽद्रु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं स्तुतो राजा वन्दि वेधा अपश्च विप्रस्तरति स्वसेतुः । स कक्षीवन्तं रेजयत्सो अग्निं नेमिं न चक्रमर्वतो रघुद्रु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । स्तुतः । राजा । वन्दि । वेधाः । अपः । च । विप्रः । तरति । स्वऽसेतुः । सः । कक्षीवन्तम् । रेजयत् । सः । अग्निम् । नेमिम् । न । चक्रम् । अर्वतः । रघुऽद्रु ॥ १०.६१.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 61; मन्त्र » 16
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अयं राजा वेधाः स्तुतः-वन्दि) यह राजमान-सर्वत्र विराजमान विधाता परमात्मा स्तुति करने योग्य है, सब जनों से स्तुत किया जाता है (च) तथा (विप्रः स्वसेतुः-अपः तरति) विविधरूप से व्याप्त अपने ही आश्रय से स्थित-सर्वथा स्वतन्त्र व्याप्य जगत् को भी व्याप्त होता हुआ उस जगत् के पार है (सः कक्षीवन्तं रेजयत्) वह परमात्मा मातृकक्ष-गर्भ में उत्पन्न हुए देहपाशवाले आत्मा को जन्म-जन्मान्तर में चलाता है अथवा बद्धकौपीन ब्रह्मचारी को मोक्ष में प्रेरित करता है (अग्निम्) वह अग्नि सूर्य को चलाता है (नेमिं न चक्रं रघुद्रु-अर्वतः) जैसे परिधिवाले-परिधियुक्त-परिधिसहित तुरन्त गतिशील रथचक्र को घोड़े चलाते हैं ॥१६॥

    भावार्थ

    परमात्मा सारे संसार में व्यापक है और उससे बाहर भी है। वह सूर्य आदि को चलाता है-रथ के चक्र की भाँति। माता के गर्भ में जानेवाले जीवात्मा को भी जन्म-जन्मान्तर में चलाता है तथा पूर्ण ब्रह्मचारी को मोक्ष में प्रेरित करता है ॥१६॥

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    विषय

    राजा के तुल्य आत्मा का वर्णन। उसको रथवत् देह-चालन का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (अयम्) यह आत्मा (स्तुतः राजा) प्रशंसित राजा के तुल्य तेजोमय (वेधाः) सब कार्यों का करने कराने वाला, (विप्रः) ज्ञानवान्, (वन्दि) स्तुति किया जाता एवं पूज्यवत् उपासना करने योग्य है। वह (स्व-सेतुः) स्वयं अपने को देह में बांधने वाला, जगत् से पार उतरने के लिये स्वयं सेतु वा बन्ध के समान वा स्वयं अपने बल से प्राणों को, धन बल से भृत्यवत् बांधने वाले राजा के तुल्य होकर (अपः च रेजयत्) समस्त प्राणों और नाड़िगत जलों, रुधिरों, और प्रजाओं को राजावत् (तरति) व्यापता है। (सः) वह (कक्षीवन्तं) कक्ष्याओं या कोखों में विचरने वाले प्राणगण को (रेजयत्) चलाता है और (सः) वह ही (अग्निम्) जाठराग्नि को भी (रघुद्रु नेमिं चक्रं) अति वेग से चलने वाले नमनशील चक्र को (अर्वतः न) अश्वों के तुल्य वा (अर्वतः चक्रं) अरों वाले रथ के चक्र के समान चलाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभानेदिष्ठो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:–१, ८–१०, १५, १६, १८,१९, २१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७, ११, १२, २० विराट् त्रिष्टुप्। ३, २६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, १४, १७, २२, २३, २५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, १३ त्रिष्टुप्। २४, २७ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    कक्षीवान् व अग्नि का दीपन

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार प्राणापान की साधना करनेवाला (अयम्) = यह व्यक्ति (स्तुतः) = [स्तुतं अस्य अस्ति] प्रभु-स्तवन की प्रवृत्तिवाला होता है। (राजा) = [regnlated] व्यवस्थित जीवनवाला होता है और अतएव [राज् दीप्तौ] दमकता है। यह (वन्दि) = लोगों से अभिवादित होता है। इसकी 'उपासनावृत्ति को, व्यवस्थित व दीप्त जीवन को देखकर लोग इसका आदर करते हैं । यह (वेधा:) = [creetor or leerned wan] निर्माण के कार्यों को करनेवाला व ज्ञानी होता है । [२] (अपः च तरति) = सब कार्यों को तैरनेवाला, पार करनेवाला, अन्त तक पहुँचानेवाला होता है [पार कर्मसमाप्तौ ] । यह (विप्रः) = अपना विशेष रूप से पूरण करनेवाला (स्वसेतुः) = आत्मतत्त्व को अपना सेतु बनाता है, भवसागर को पार करने का साधन बनाता है [सेतु-bridge in genorel] [३] (सः) = वह साधक (कक्षीवन्तम्)= [कक्षः = hidig place] गुहा में निवास करनेवाले उस प्रभु को (रेजवत्) = अपने में दीप्त करता है (सः) = वह अग्निम् अपने शरीर के अन्दर निवास करनेवाली वैश्वानर (अग्निम्) = [=जाठराग्नि] को दीप्त करता है। प्राणसाधक जहाँ हृदय को पवित्र करके प्रभु का दर्शन करता है, वहाँ जाठराग्नि को भी दीप्त करता हुआ स्वास्थ्य का पूर्ण विकास करने के लिये यत्नशील होता है। [४] यह साधक (नेमिं न चक्रम्) = परिधि की तरह चक्र को भी दीप्त करता है। शरीर चक्र है, तो त्वचा उसकी नेमि है, शरीर को भी स्वस्थ बनाता है और त्वचा को भी दीप्त रखने का प्रयत्न करता है । (अर्वतः) = इन्द्रिय रूप अश्वों को (रघुद्रु) = लघुगमनवाला बनाता हुआ दीप्त करता है। इसकी इन्द्रियाँ शीघ्रता से अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त होती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से जीवन उपासनामय व व्यवस्थित बनता है । यह प्राणसाधक स्वस्थ शरीरवाला व प्रभुदर्शन करनेवाला बनता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This adored and refulgent ruler is worshipped.$All knowing, all doing, all vibrant pranic and soma force of divinity, all saviour bridge, by itself crosses all waters and spaces. It moves all spatial energies and all fiery elements just as horses move the centre and the circle of a fast whirling wheel.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा संपूर्ण संसारात व्यापक आहे व त्या बाहेरही आहे. तो सूर्य इत्यादींना रथाच्या चक्राप्रमाणे चालवितो. मातेच्या गर्भात जाणाऱ्या जीवात्म्यालाही जन्मजन्मांतरी चालवितो व पूर्ण ब्रह्मचाऱ्याला मोक्षासाठी प्रेरित करतो. ॥१६॥

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