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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 61/ मन्त्र 17
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स द्वि॒बन्धु॑र्वैतर॒णो यष्टा॑ सब॒र्धुं धे॒नुम॒स्वं॑ दु॒हध्यै॑ । सं यन्मि॒त्रावरु॑णा वृ॒ञ्ज उ॒क्थैर्ज्येष्ठे॑भिरर्य॒मणं॒ वरू॑थैः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । द्वि॒ऽबन्धुः॑ । वै॒त॒र॒णः । यष्टा॑ । स॒बः॒ऽधुम् । धे॒नुम् । अ॒स्व॑म् । दु॒हध्यै॑ । सम् । यत् । मि॒त्रावरु॑णा । वृ॒ञ्जे । उ॒क्थैः । ज्येष्ठे॑भिः । अ॒र्य॒मण॑म् । वरू॑थैः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स द्विबन्धुर्वैतरणो यष्टा सबर्धुं धेनुमस्वं दुहध्यै । सं यन्मित्रावरुणा वृञ्ज उक्थैर्ज्येष्ठेभिरर्यमणं वरूथैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । द्विऽबन्धुः । वैतरणः । यष्टा । सबःऽधुम् । धेनुम् । अस्वम् । दुहध्यै । सम् । यत् । मित्रावरुणा । वृञ्जे । उक्थैः । ज्येष्ठेभिः । अर्यमणम् । वरूथैः ॥ १०.६१.१७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 61; मन्त्र » 17
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः-द्विबन्धुः) वह परमात्मा जीवात्मा को दोनों अर्थात् संसार और मोक्ष-में बाँधनेवाला-सम्बन्ध करानेवाला है (वैतरणः) दोनों अर्थात् संसार और मोक्ष-भोगसुख और मोक्षानन्द-के वितरण-पृथक् पृथक् देने में समर्थ है (यष्टा) सृष्टियज्ञ का याजक (सबर्धुम्-अस्वं धेनुं दुहध्यै) सब कामनाओं की दोहनेवाली अप्रसूता मुक्तिरूपा अथवा वेदवाणी को अथवा सब लौकिक भोगों को दोहनेवाली अनुत्पन्न प्रकृतिरूप गौ को दोहने में समर्थ है (यत्) जबकि (वरूथैः-ज्येष्ठेभिः-उक्थैः) परमात्मा के वरणीय श्रेष्ठ प्रशंसनीय स्तुति प्रार्थना उपासनाओं से (मित्रावरुणा-अर्यमणं संवृञ्जे) प्राणापान और मुख्य प्राण को भली प्रकार से त्यागता है, उनके बन्धन से मुक्त होता है अथवा उनको सङ्गत होता है प्रकृति के भोग और अपवर्ग के लिए, क्योंकि भोगापवर्ग के लिए दृश्य है ॥१७॥

    भावार्थ

    परमात्मा सृष्टि का उत्पादक है। वह जीवात्मा का सम्बन्ध सृष्टि और मुक्ति दोनों से कराता है। मुक्ति अनुत्पन्न है, उसका आनन्द स्थायी है। सृष्टि भोगप्रद है। सृष्टि के भोग और मुक्ति के आनन्द वितरण में समर्थ है। जीवात्मा को परमात्मा प्राणसाधन देता है। जब वह वैराग्यवान् होकर प्राणों को त्यागता है, तो मुक्ति में हो जाता है और प्राणों के सहारे से ही अनुत्पन्न प्रकृति के साथ जीवात्मा का सम्बन्ध होने पर भोग प्राप्त करता है। भोगों से ग्लानि होने पर अपवर्ग-मुक्ति में जाता है ॥१७॥

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    विषय

    पुत्रवत् आत्मा का उभय-लोक-तारक होने का वर्णन।

    भावार्थ

    (सः) वह आत्मा, (द्वि-बन्धुः) दोनों लोकों में बन्धु के समान, वा दोनों लोकों को बांधने वाला, वा माता पिता दोनों को बांधने वाले बालक के तुल्य, (वैतरणः) इस लोक से विशेष रूप से तारने वाला, (यष्टा) ज्ञान, हर्ष का दाता (अस्वम्) कभी न उत्पन्न होने वाली अजा रूप (धेनुम्) गौ के तुल्य, (सबः-धुम्) आनन्दरस को देने वाली प्रभुरुप वाणी को (दुहध्यै) दोहन करने के लिये (यत्) जो (मित्रावरुणा) स्नेहवान्, और वरण करने योग्य श्रेष्ठ जनों को और (अर्यमणं) स्वामिवत् न्यायकारी, नियन्ता प्रभु को (ज्येष्ठैः) श्रेष्ठ २ (वरूथैः) उत्तम २ वचनों से (सं वृञ्जे) अच्छी प्रकार स्तुति करता और उनसे मिलकर सत्संग लाभ करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभानेदिष्ठो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:–१, ८–१०, १५, १६, १८,१९, २१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७, ११, १२, २० विराट् त्रिष्टुप्। ३, २६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, १४, १७, २२, २३, २५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, १३ त्रिष्टुप्। २४, २७ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    द्विबन्धु

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र का (स) = वह प्राणसाधक (द्विबन्धुः) = दोनों को अपने साथ बाँधनेवाला होता है, शरीर के स्वास्थ्य को तथा मस्तिष्क के ज्ञान को । अथवा यह अपने जीवन में प्रकृति व परमात्मा दोनों के साथ सम्बद्ध होकर के चलता है। प्रकृति सम्बन्ध से यह अभ्युदय को सिद्ध करता है तो प्रभु सम्बन्ध से निःश्रेयस को । इहलोक व परलोक दोनों को यह सम्यक्तया अपने जीवन से सम्बद्ध करता है। (वैतरणः) = शक्ति व ज्ञान की साधना करके यह मार्ग में आनेवाले विघ्नों को तैर जाता है (यष्टा) = यज्ञशील होता है और (सबर्धुम्) = अमृतोपम ज्ञानदुग्ध को देनेवाली वेदवाणी रूप गौ को (अस्वम्) = जिसने अब सन्तान को जन्म देना छोड़ दिया था, अर्थात् जिसे अब स्वाध्याय के अभाव के कारण हम समझते न थे, उसके (दुहध्यै) = दोहन के लिये यह होता है। इसकी बुद्धि तीव्र होती है और वह वेदरूप धेनु से ज्ञानदुग्ध को प्राप्त करनेवाला बनता है। [२] ऐसा यह बनता तब है (यत्) = जब कि यह उक्थैः स्तोत्रों के द्वारा (मित्रावरुणा) = मित्र और वरुण देवता का (संवृञ्जे) = सम्यक् स्तवन करता है । और (ज्येष्ठेभिः) = प्रशस्त (वरूथैः) = [armohr] कवचों व [shield] ढालों के द्वारा (अर्यमणम्) = अर्यमा देव का स्तवन करता है । 'मित्र' का भाव है सबके साथ स्नेह करना, 'वरुण' का भाव है द्वेष का निवारण । प्रभु-स्तवन करनेवाला व्यक्ति सब में प्रभु - सत्ता का अनुभव करता हुआ सब के प्रति स्नेह को धारण करता है, वह किसी से द्वेष नहीं करता। इस प्रभु को ही अपना कवच व ढाल बनानेवाला व्यक्ति वासनाओं का नियमन करनेवाला 'अर्यमा' बनता है [ब्रह्मवर्म ममान्तरम्] ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु-स्तवन से प्रेम व निर्देषता को अपने में स्थापित करें। प्रभु को अपना कवच बनाकर काम-क्रोधादि का नियमन करें। ऐसा करने पर हम 'द्विबन्धु- वैतरण-यष्टा' बनेंगे और वेदधेनु के अमृतोपम दूध का पान करेंगे।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः-द्विबन्धुः) स परमात्मा जीवात्मानं द्वयोः संसारमोक्षयो-र्बन्धयिता सम्बन्धयिता (वैतरणः) द्वयोश्च संसारमोक्षयोर्भोगसुख-मोक्षानन्दानां वितरणे पृथक् पृथक् प्रदाने शक्तः (यष्टा) सृष्टियज्ञस्य याजकः (सबर्धुम्-अस्वं धेनुं दुहध्यै) सर्वकामानां दोग्ध्रीमप्रसूतां मुक्तिरूपां यद्वा वेदवाचम् “धेनुर्वाङ्नाम” [निघ० १।११] यद्वा सर्वलौकिकभोगदोग्ध्रीमनुत्पन्नां प्रकृतिरूपां धेनुं दोग्धुं समर्थोऽस्ति (यत्) यदा (वरूथैः-ज्येष्ठेभिः-उक्थैः) परमात्मनो वरणीयैः श्रेष्ठैः प्रशंसनीयैः स्तुतिप्रार्थनोपासनैः (मित्रावरुणा-अर्यमणं संवृञ्जे) प्राणापानौ मुख्यं प्राणं च सम्यक् त्यजति तद्बन्धनाद् वियुक्तो भवति अथवा तान् प्राणापानमुख्यप्राणान् सङ्गच्छते, प्रकृतेर्भोगायापवर्गाय च “भोगापवर्गार्थं दृश्यम्” (योग) ॥१७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    He that holds the two worlds of heaven and earth in bond, the high priest of cosmic yajna, all pervasive power that helps us to cross over the flood of existence, gives us the immortal gift of eternal Word and vision when a person, with the best of chant and meditative practice, realises together Mitra, centripetal, and Varuna, centrifugal, processes of cosmic dynamics, and also Aryaman, the all-controlling spirit that controls both the centre and the circle of the wheel of existence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा सृष्टीचा उत्पादक आहे, तो जीवात्म्याचा संबंध सृष्टी व मुक्ती दोन्हीशी करवितो. मुक्ती अनुत्पन्न आहे. त्याचा आनंद स्थायी आहे. सृष्टी भोगप्रद आहे. सृष्टीचे भोग व मुक्तीचा आनंद वितरणात समर्थ आहे. परमात्मा जीवात्म्याला प्राणसाधन देतो. जेव्हा तो वैराग्यवान बनून प्राणांचा त्याग करतो. तेव्हा मुक्तीमध्ये जातो व प्राणांच्या आश्रयानेच अनुत्पन्न प्रकृतीबरोबर जीवात्म्याचा संबंध आल्यावर भोग प्राप्त करतो. जेव्हा भोगापासून दूर होतो तेव्हा अपवर्ग-मुक्तीमध्ये जातो. ॥१७॥

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