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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 62/ मन्त्र 4
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः देवता - विश्वे देवा आङ्गिरसो वा छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अ॒यं नाभा॑ वदति व॒ल्गु वो॑ गृ॒हे देव॑पुत्रा ऋषय॒स्तच्छृ॑णोतन । सु॒ब्र॒ह्म॒ण्यम॑ङ्गिरसो वो अस्तु॒ प्रति॑ गृभ्णीत मान॒वं सु॑मेधसः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । नाभा॑ । व॒द॒ति॒ । व॒ल्गु । वः॒ । गृ॒हे । देव॑ऽपुत्राः । ऋ॒ष॒यः॒ । तत् । शृ॒णो॒त॒न॒ । सु॒ऽब्र॒ह्म॒ण्यम् । अ॒ङ्गि॒र॒सः॒ । वः॒ । अ॒स्तु॒ । प्रति॑ । गृ॒भ्णी॒त॒ । मा॒न॒वम् । सु॒ऽमे॒ध॒सः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं नाभा वदति वल्गु वो गृहे देवपुत्रा ऋषयस्तच्छृणोतन । सुब्रह्मण्यमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । नाभा । वदति । वल्गु । वः । गृहे । देवऽपुत्राः । ऋषयः । तत् । शृणोतन । सुऽब्रह्मण्यम् । अङ्गिरसः । वः । अस्तु । प्रति । गृभ्णीत । मानवम् । सुऽमेधसः ॥ १०.६२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 62; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवपुत्राः-ऋषयः) हे परमात्मदेव के पुत्रसमान मन्त्रार्थद्रष्टाओं ! (अयं नाभा) यह प्रसिद्ध परमात्मा मनुष्यों के मध्य में वर्तमान (वः-गृहे) तुम्हारे हृदय-गृह में (वल्गु वदति) वेद-वाणी का उपदेश देता है (तत्-शृणोतन) उसे तुम सुनो  (अङ्गिरसः-वः) हे अङ्गियों आत्माओं के ज्ञानदाता, स्वयंसंयमी विद्वानों ! तुम्हारे लिए (सुब्रह्मण्यम्-अस्तु) शोभन ब्रह्मप्राप्ति फल होवे। आगे पूर्ववत् ॥४॥

    भावार्थ

    आरम्भ सृष्टि में योग्य चरम ऋषि मन्त्रार्थद्रष्टाओं के अन्तःकरण में परमात्मा वेद का प्रवचन करता है। वे अन्य आत्माओं को उसका उपदेश करते हैं। यह ब्रह्मप्राप्ति का सुखद साधन है ॥४॥

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    विषय

    गुरु और ज्ञानार्थी शिष्यों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (देव पुत्राः) विद्वान् दानशील जनों के पुत्रो और शिष्यो ! हे (ऋषयः) मन्त्रार्थ ज्ञान के दृष्टा जनो ! (अयम्) यह विद्वान् गुरु (वः) आप लोगों के (गृहे) गृह में वा आश्रम में, वा आप लोगों को शिष्यवत् स्वीकारार्थ ग्रहण करने के लिये (नाभा) नाभि अर्थात् केन्द्र में बांधने वाले, गुरुपद पर स्थिर होकर (वः) आप लोगों को (वल्गु वदति) उत्तम वचन कहता, उपदेश करता है। आप (तत् शृणोतन) उसको श्रवण करो। हे (अंगिरसः वः सुब्रह्मण्यम् अस्तु) विद्वान् जनो ! आप लोगों को उत्तम वेदज्ञान और उत्तम ब्रह्मवर्चस् प्राप्त हो, आप (सु-मेधसः मानवं प्रति गृभ्णीत) उत्तम मेधा वाले होकर मनुष्योपयोगी समस्त ज्ञान को वा मानवीय जनसमूह को प्राप्त हो भिक्षा, अन्न आदि ग्रहण करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभानेदिष्ठो मानव ऋषिः। देवता-१-६ विश्वेदेवाङ्गिरसो वा। ७ विश्वेदेवाः। ८—११ सावर्णेर्दानस्तुतिः॥ छन्द:—१, २ विराड् जगती। ३ पादनिचृज्जगती। ४ निचृज्जगती। ५ अनुष्टुप्। ८, ९ निचृदनुष्टुप्। ६ बृहती। ७ विराट् पङ्क्तिः। १० गायत्री। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    सुब्रह्मण्यम्

    पदार्थ

    [१] (अयम्) = यह (नाभा) = नाभानेदिष्ठ [सूक्त का ऋषि], यज्ञों को केन्द्र बनाकर उनके समीप रहनेवाला, (वः) = तुम्हारे (गृहे) = घर में (वल्गु वदति) = शुभ व सुन्दर ही शब्द बोलता है । यहाँ सन्तानों को सम्बोधन करते हुए यह कहना कि '(वः) = तुम्हारे घर में', उन सन्तानों को प्रेरणा देता है कि 'घर हमारा है, इसे हमने अच्छा बनाना है।' [२] पिता पुत्रों को कहता है कि हे देव (पुत्राः) = देव पुत्रों, दिव्यगुणों का वर्धन करनेवाले पुत्रो ! (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा ज्ञानियो ! ज्ञान प्राप्त करनेवालो ! (तत् शृणोतन) = उन शुभ शब्दों को सुनो। सन्तान 'देव पुत्र, ऋषि' आदि शुभ शब्दों को सुनेंगे तो वैसे ही बनेंगे। 'नालायक' आदि शब्दों को सुनकर वे नालायक ही बन जाएँगे। [३] इस प्रकार शुभ शब्दों के बोलनेवाले (अंगिरसः) = रसमय अंगोंवाले पुरुषो! (वः) = तुम्हारे लिये (सुब्रह्मण्यं अस्तु) = ज्ञाननैपुण्य हो, तुम वेदज्ञान में पूर्ण कुशलतावाले बनो। और (सुमेधसः) = उत्तम मेधावी बनकर (मानवम्) = मानवधर्म को (प्रति गृभ्णीत) = ग्रहण करो । मानवहित के कार्यों में सदा रत रहो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - यज्ञशील पुरुष घर में सन्तानों को 'देव पुत्र व ऋषि' उत्तम शब्दों से ही सम्बोधित करता है, इन उत्तम शब्दों से प्रेरणा को लेते हुए वे 'देव पुत्र व ऋषि' ही बनते हैं। मन उनके देवों के समान होते हों, मस्तिष्क ऋषियों के तुल्य । ये अंगिरस होते हुए उत्तम ज्ञानवाले होते हैं।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवपुत्राः-ऋषयः) हे देवस्य परमात्मनः पुत्राः पुत्रवद्वर्तमाना मन्त्रार्थद्रष्टारः ! (अयं नाभा) अयं प्रसिद्धः परमात्मा युष्माकं मध्ये वर्तमानः (वः-गृहे) युष्माकं हृदयगृहे (वल्गु वदति) वेदवाचम् “वल्गु वाङ्नाम” [निघण्टु १।११] (तत्-शृणोतन) तद्वचनं शृणुत (अङ्गिरसः वः सुब्रह्मण्यम्-अस्तु) अङ्गिनामात्मनां ज्ञानदातारः, स्वयं संयमिनो देवाः ! युष्मभ्यं शोभनब्रह्मत्वं शोभनब्रह्मप्राप्तिफलं भवतु। अग्रे पूर्ववत् ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O children of divinity, seers and visionaries, this central soul speaks the voice divine in your yajnic home, in the core of your heart. Listen to that. O Angirasas, may this divine voice be yours and your heritage to your posterity. O sages of holy mind and wisdom, pray take the children of humanity under your care.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रथम सृष्टीत श्रेष्ठ मंत्रार्थदृष्ट्या ऋषींच्या अंत:करणात परमात्मा वेदाचे प्रवचन करतो. ते इतर आत्म्यांना त्याचा उपदेश करतात. हे ब्रह्मप्राप्तीचे सुखद साधन आहे. ॥४॥

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