ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 62/ मन्त्र 7
ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
इन्द्रे॑ण यु॒जा निः सृ॑जन्त वा॒घतो॑ व्र॒जं गोम॑न्तम॒श्विन॑म् । स॒हस्रं॑ मे॒ दद॑तो अष्टक॒र्ण्य१॒॑: श्रवो॑ दे॒वेष्व॑क्रत ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रे॑ण । यु॒जा । निः । सृ॒ज॒न्त॒ । वा॒घतः॑ । व्र॒जम् । गोऽम॑न्तम् । अ॒श्विन॑म् । स॒हस्र॑म् । मे॒ । दद॑तः । अ॒ष्ट॒ऽक॒र्ण्यः॑ । श्रवः॑ । दे॒वेषु॑ । अ॒क्र॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेण युजा निः सृजन्त वाघतो व्रजं गोमन्तमश्विनम् । सहस्रं मे ददतो अष्टकर्ण्य१: श्रवो देवेष्वक्रत ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रेण । युजा । निः । सृजन्त । वाघतः । व्रजम् । गोऽमन्तम् । अश्विनम् । सहस्रम् । मे । ददतः । अष्टऽकर्ण्यः । श्रवः । देवेषु । अक्रत ॥ १०.६२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 62; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वाघतः) वे मेधावी विद्वान् (इन्द्रेण युजा) ऐश्वर्यवान् परमात्मा के सहयोगी (गोमन्तं अश्विनं व्रजम्) इन्द्रियवाले, इन्द्रियसम्बन्धी ज्ञान तथा मनसम्बन्धी ज्ञान को मनुष्यों के लिए (निसृजन्त) उपदेश देते हैं (अष्टकर्ण्यः) व्याप्त इद्रिय शक्तिवाले विद्वान् (मे सहस्रं ददतः) मेरे लिए बहुत ज्ञान देते हुए (देवेषु श्रवः-अक्रत) इन्द्रियों में यश सम्पादित करें ॥७॥
भावार्थ
परमात्मा से सम्पर्क करनेवाले मेधावी ऋषि जन अन्य जनों को इन्द्रियों के संयम एवं मन के विकासार्थ ज्ञान का उपदेश अधिक से अधिक देते रहें ॥७॥
विषय
गुरु-शिष्य का विद्या-दान।
भावार्थ
(वाघतः) ज्ञान को धारण करने वाले विद्वान् जन (इन्द्रेणयुजा) ज्ञानद्रष्टा गुरु रूप सहायक के साथ मिलकर (गोमन्तः) वाणी से युक्त और (अश्विनम्) कर्म में सिद्ध हस्तादि अवयवों से युक्त (व्रजम्) वाणीसमूह का (निः सृजन्त) उच्चारण करते हैं। (मे) मुझे (सहस्रं ददतः) हज़ारों ऋचाओं वा ज्ञानों को देने वाले (अष्ट-कर्ण्यः) व्यापक साधनवान् होकर (देवेषु) विद्वानों और विद्या के इच्छुक शिष्य वर्गों में (श्रवः) श्रवण योग्य ज्ञान को (अक्रत) प्रकट करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभानेदिष्ठो मानव ऋषिः। देवता-१-६ विश्वेदेवाङ्गिरसो वा। ७ विश्वेदेवाः। ८—११ सावर्णेर्दानस्तुतिः॥ छन्द:—१, २ विराड् जगती। ३ पादनिचृज्जगती। ४ निचृज्जगती। ५ अनुष्टुप्। ८, ९ निचृदनुष्टुप्। ६ बृहती। ७ विराट् पङ्क्तिः। १० गायत्री। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्॥
विषय
गोमान् अश्ववान् व्रज
पदार्थ
[१] (वाघतः) = ज्ञान का वहन करनेवाले मेधावी ऋत्विज् (इन्द्रेण युजा) = उस प्रभु रूप मित्र के साथ (गोमन्तम्) = प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियों से बने (व्रजम्) = इस इन्द्रियसमूह को तथा (अश्विनम्) = प्रशस्त कर्मेन्द्रियों से बने इस इन्द्रियसमूह को (निःसृजन्त) = विषयपंक से बाहिर निकाल लेते हैं। ये लोग इन्द्रियों को विषयपंक में नहीं फँसने देते। इसके लिये वे प्रभु का स्मरण करते हैं, प्रभु की मित्रता का परिणाम होता है कि वे वासनाओं को जीत लेते हैं और इन्द्रियों को सुरक्षित कर पाते हैं। [२] ये (अष्टकर्ण्यः) = व्याप्त कर्णोंवाले, अर्थात् ज्ञान का खूब श्रवण करनेवाले (सहस्त्रम्) = [स+हस्] प्रसन्नतापूर्वक (मे) = मेरे प्रति अपने को देते हुए अथवा खूब दान करते हुए, (देवेषु) = दिव्यगुणों के विषय में (श्रवः) = अपनी कीर्ति को अक्रत फैलाते हैं। ज्ञान को प्राप्त करते हैं, और त्यागशील बनते हैं । ये दोनों बातें मिलकर उनके अन्दर दिव्यगुणों का वर्धन करनेवाली होती हैं। इन दिव्यगुणों के कारण उनका चारों ओर यश फैलता है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु को मित्र बनाकर ज्ञानी पुरुष इन्द्रियों को सुरक्षित करते हैं । ये खूब ज्ञान प्राप्त करते हैं, त्यागशील होते हैं। और इस प्रकार अपने दिव्यगुणों के कारण कीर्तिवाले होते हैं ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वाघतः) ते मेधाविनो विद्वांसः “वाघतः-मेधाविनाम” [निघण्टु ३।१८] (इन्द्रेण युजा) ऐश्वर्यवता परमात्मना सह योगिना सह (गोमन्तम्-अश्विनं व्रजं निः सृजन्त) इन्द्रियवन्तमिन्द्रियसम्बन्धिनं मनःसम्बन्धिनं [व्रजं ज्ञानं ऋ० १।१०।७ दयानन्दः] जनेभ्यो निसृजन्ति उपदिशन्ति (अष्टकर्ण्यः) व्याप्तकर्णवन्तः-व्याप्तेन्द्रियशक्तिकास्ते विद्वांसः (मे सहस्रं ददतः) मह्यं सहस्रं बहुदानं प्रयच्छतः (देवेषु श्रवः-अक्रतः) इन्द्रियेषु यशः कुरुत ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The wise and visionary yajakas with the inspiration of Indra, lord ruler, create knowledge relating to senses, mind and will, and with their senses raised to eighfold power and sensitivity, giving me a thousand gifts, win praise among brilliant scholars.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याशी संपर्क करणाऱ्या मेधावी ऋषींनी इतर लोकांना इंद्रिय संयम व मनाच्या विकासासाठी उपदेश अधिकात अधिक देत राहावा. ॥७॥
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