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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 62/ मन्त्र 9
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः देवता - सावर्णेर्दानस्तुतिः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    न तम॑श्नोति॒ कश्च॒न दि॒व इ॑व॒ सान्वा॒रभ॑म् । सा॒व॒र्ण्यस्य॒ दक्षि॑णा॒ वि सिन्धु॑रिव पप्रथे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । तम् । अ॒श्नो॒ति॒ । कः । च॒न । दि॒वःऽइ॑व । सानु॑ । आ॒ऽरभ॑म् । सा॒व॒र्ण्यस्य॑ । दक्षि॑णा । वि । सिन्धुः॑ऽइव । प॒प्र॒थे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न तमश्नोति कश्चन दिव इव सान्वारभम् । सावर्ण्यस्य दक्षिणा वि सिन्धुरिव पप्रथे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । तम् । अश्नोति । कः । चन । दिवःऽइव । सानु । आऽरभम् । सावर्ण्यस्य । दक्षिणा । वि । सिन्धुःऽइव । पप्रथे ॥ १०.६२.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 62; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (तं कः-चन न-अश्नोति) उस ज्ञानदाता को कोई भी धनान्न का दाता नहीं पा सकता (दिवः-इव सानु-आरभम्) जैसे द्युलोक के सम्भजनीय उच्चस्थित सूर्य को पाने में समर्थ नहीं होता (सावर्ण्यस्य दक्षिणा) समान वर्ण में समान भरण पालन में कुशल का दान (सिन्धुः-इव पप्रथे) नदी के समान विस्तृत-व्याख्यात होता है ॥९॥

    भावार्थ

    धन या अन्नदान से बढ़ कर ज्ञानदान है, उसका दाता उच्च स्थति को प्राप्त होता हुआ सूर्य के समान उत्कृष्ट है तथा नदी की भाँति उदार होता है, प्रसिद्ध होता है ॥९॥

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    विषय

    तेजस्वी सूर्यवत् सर्वोच्च स्थान। उसका महान् सागरवत् वर्णन।

    भावार्थ

    (तम्) उस (दिवः इव सानुम्) भूमि या आकाश में ऊंचे स्थान पर सूर्यवत् स्थित उसको (कः चन) कोई भी (आरभम् न अश्नोति) प्राप्त नहीं कर सकता। (सावर्ण्यस्य) समान रूप से वरण करने वाले शिष्यों के गुरु एवं एक समान चारों या पांचों वर्णों से वरण करने योग्य राजा की (दक्षिणा) बल, उत्साह, क्रियाशक्ति, दानशक्ति, पर-छन्दानुवर्त्तिता यह सब (सिन्धुः इव) बहती जलधारा, नद नदी, वा समुद्र के समान (पप्रथे) विस्तृत होती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभानेदिष्ठो मानव ऋषिः। देवता-१-६ विश्वेदेवाङ्गिरसो वा। ७ विश्वेदेवाः। ८—११ सावर्णेर्दानस्तुतिः॥ छन्द:—१, २ विराड् जगती। ३ पादनिचृज्जगती। ४ निचृज्जगती। ५ अनुष्टुप्। ८, ९ निचृदनुष्टुप्। ६ बृहती। ७ विराट् पङ्क्तिः। १० गायत्री। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    तेजस्वी का सूर्यवत् सर्वोच्च स्थान

    पदार्थ

    (दिवः इव सानुम्) = आकाश में ऊँचे स्थान पर सूर्यवत् स्थित उसको (कः चन) = कोई भी (आरभम् न अश्नोति) = प्राप्त नहीं कर सकता। (सावर्ण्यस्य) = चारों वर्णों से समान रूप में वरण करने योग्य उसकी दक्षिणा दानशक्ति (सिन्धुः इव) = समुद्र के समान (पप्रथे) = विस्तृत होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ - दानी पुरुष समुद्र के समान गम्भीर होते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (तं कः-चन न अश्नोति) तं ज्ञानदातारं कश्चन धनान्नदाता न व्याप्नोति-न-प्राप्नोति “अश्नोति व्याप्नोति व्यत्ययेन परस्मैपदम्” [ऋ० १।९४।२ दयानन्दः] (दिवः-इव सानु-आरभम्] यथा द्युलोकस्य सम्भजनीयमुच्चस्थितं सूर्यमारब्धुं न पारयति (सावर्ण्यस्य दक्षिणा) समानवर्णे समानभरणे कुशलस्य “वृ वरणे भरणे-इत्येके” [क्र्यादि०] दानं (सिन्धुः-इव पप्रथे) नदीवत् खलु विस्तृतो व्याख्यातो भवति ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    No one can approach even the fringe of this wonder worker’s achievement as the sun’s on top of heaven. After all, the versatility and generosity of this man of universal competence flows ceaselessly like the flood of a river and expands as the sea.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    धन, अन्न दानापेक्षा ज्ञानदान अधिक श्रेष्ठ आहे. त्याचा दाता उच्च स्थिती प्राप्त करतो. सूर्याप्रमाणे उत्कृष्ट व नदीप्रमाणे उदार व प्रसिद्ध असतो. ॥९॥

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