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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 63/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गयः प्लातः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    स॒म्राजो॒ ये सु॒वृधो॑ य॒ज्ञमा॑य॒युरप॑रिह्वृता दधि॒रे दि॒वि क्षय॑म् । ताँ आ वि॑वास॒ नम॑सा सुवृ॒क्तिभि॑र्म॒हो आ॑दि॒त्याँ अदि॑तिं स्व॒स्तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽराजः॑ । ये । सु॒ऽवृधः॑ । य॒ज्ञम् । आ॒ऽय॒युः । अप॑रिऽह्वृताः । द॒धि॒रे । दि॒वि । क्षय॑म् । तान् । आ । वि॒वा॒स॒ । नम॑सा । सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑ । म॒हः । आ॒दि॒त्यान् । अदि॑तिम् । स्व॒स्तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सम्राजो ये सुवृधो यज्ञमाययुरपरिह्वृता दधिरे दिवि क्षयम् । ताँ आ विवास नमसा सुवृक्तिभिर्महो आदित्याँ अदितिं स्वस्तये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽराजः । ये । सुऽवृधः । यज्ञम् । आऽययुः । अपरिऽह्वृताः । दधिरे । दिवि । क्षयम् । तान् । आ । विवास । नमसा । सुवृक्तिऽभिः । महः । आदित्यान् । अदितिम् । स्वस्तये ॥ १०.६३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 63; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ये) जो (सम्राजः) ज्ञान से सम्यक् प्रकाशमान (सुवृधः) उत्तम गुणवृद्ध (अपरिह्वृताः) कामादि से अविचलित या विचलित न होनेवाले (यज्ञम्-आययुः) अध्यात्मयज्ञ या यज्ञरूप सङ्गमनीय परमात्मा को साक्षात् किये हुए हैं या करते हैं (दिवि क्षयं दधिरे) मोक्षधाम में निवास धारण करते हैं या धारण करने योग्य हैं (तान्-आदित्यान्) उन अखण्डित ज्ञान ब्रह्मचर्य से युक्त हुओं की (नमसा सुवृक्तिभिः) उत्तम अन्न आदि भोग से या शुभ प्रशंसाओं से (अदितिं स्वस्तये-आविवास) अखण्डित कल्याणस्वरूप मुक्ति के लिए सेवा सङ्गति कर ॥५॥

    भावार्थ

    जो ज्ञानवृद्ध और गुणवृद्ध तथा कामादि दोषों से रहित मोक्ष के अधिकारी जीवन्मुक्त महानुभाव हैं, उनकी सङ्गति करनी चाहिए अपनी कल्याण कामना के लिए ॥५॥

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    विषय

    योग्य आदरणीय पूज्यों की पूजा का उपदेश।

    भावार्थ

    (ये सम्राजः) जो अच्छी प्रकार दीप्तियुक्त, (सु-वृधः) उत्तम रीति से स्वयं बढ़ने और अन्यों को बढ़ाने वाले, (अपरि-ह्वताः) अकुटिलाचारी, सुधार्मिक (यज्ञम् आ ययुः) यज्ञ, आदरणीय पद वा सत्संग योग्य मान को प्राप्त होते हैं और जो (दिवि) सूर्यवत् तेजस्वी, मूर्धन्य राजासभा आदि में (क्षयम् दधिरे) ऐश्वर्य को धारण करते हैं (तान्) उनकी (नमसा) नमस्कार और (सु-वृक्तिभिः) उत्तम वचनों द्वारा (आ विवास) परिचर्या कर। और उन (आदित्यान्) आदित्यसम तेजस्वी, ज्ञानी पुरुषों की और (अदितिं) अखण्ड व्रतधारी पुरुष वा प्रभु की (स्वस्तये आ विवास) कल्याण के लिये परिचर्या, सेवा किया कर। इति तृतीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गयः प्लात ऋषिः। देवता—१—१४,१७ विश्वेदेवाः। १५, १६ पथ्यास्वस्तिः॥ छन्द:–१, ६, ८, ११—१३ विराड् जगती। १५ जगती त्रिष्टुप् वा। १६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    आदित्यों व अदिति का पूजन

    पदार्थ

    [१] (तान्) = उन (आदित्यान्) = सब स्थानों से गुणों का ग्रहण करनेवाले (महः) = गुणों के आधिक्य से महनीय देवों को (नमसा) = नमन के द्वारा और (सुवृक्तिभिः) = सुष्ठु दोष वर्जन के द्वारा, प्रयत्नपूर्वक दोषों को दूर करने के द्वारा, (आविवास) = पूजित कर । बड़ों का आदर दो ही प्रकार से होता है, [क] उनके प्रति नम्रता के धारण से तथा [ख] अपने दोषों को दूर करने से। यदि हम नमस्ते तो करें, पर उनके कहने के अनुसार अपनी कमियों को दूर करने का प्रयत्न न करें तो यह उनका निरादर ही है। [२] हम उन आदित्यों का आदर तो करें, साथ ही (अदितिम्) = [अ खण्डन] स्वास्थ्य का भी आदर करें। स्वास्थ्य का भी पूरा ध्यान करें। (स्वस्तये) = [सु+अस्ति ] उत्तम स्थिति के लिये आदित्यों व अदिति दोनों का पूजन आवश्यक है । [३] आदित्य वे हैं ये जो [क] (सम्राजः) = दीप्त व व्यवस्थित जीवनवाले हैं, जिनकी सब भौतिक क्रियाएं ठीक समय पर होती हैं [well regulated] और अतएव [ख] (सुवृधः) = उत्तम वर्धनवाले हैं। ठीक समय पर क्रियाओं के होने से उनके सब अंग-प्रत्यंगों की शक्ति का ठीक से विकास होता है। [ग] जो विकसित शक्तिवाले होकर (यज्ञं आययुः) = श्रेष्ठतम कर्मों को प्राप्त होते हैं । [घ] (अपरिहृताः) = जो सब प्रकार की कुटिलता से रहित हैं। श्रेष्ठतम कर्मों का कुटिलता से समन्वय सम्भव ही नहीं । [ङ] जो (दिवि) = मस्तिष्क रूप द्युलोक में (क्षयम्) = निवास को दधिरे धारण करते हैं। जिनका जीवन ज्ञान प्रधान होता है, वे ही आदित्य हैं। ये भावुकता में बहकर न्याय्य पथ को छोड़ नहीं देते। इनकी श्रद्धा भी ज्ञानोज्ज्वल होती है। इन आदित्यों के सम्पर्क में तो हम आयें ही, साथ ही स्वास्थ्य का पूरा ध्यान करें। तभी हमारी स्थिति उत्तम होगी।

    भावार्थ

    भावार्थ - आदित्यों व अदिति का पूजन हमारी स्थिति को उत्तम बनाये ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Those illustrious children of light, self-refulgent and steadily rising in knowledge and wisdom, who come and grace the yajna and, straight and unassailable in action and character, abide in the sphere of the light of divinity, those great children of inviolable mother Infinity and Mother Nature, serve, exhilarate and replenish with homage and humility for the good and all round well being of life. Be grateful with holy words of praise and rejoice.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे ज्ञानवृद्ध व गुणांनी वृद्ध, काम इत्यादी दोषांपासून मुक्त मोक्षाचे अधिकारी, जीवनमुक्त महानुभाव आहेत त्यांची संगती आपल्या कल्याणासाठी केली पाहिजे. ॥५॥

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