ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 66/ मन्त्र 6
वृषा॑ य॒ज्ञो वृष॑णः सन्तु य॒ज्ञिया॒ वृष॑णो दे॒वा वृष॑णो हवि॒ष्कृत॑: । वृष॑णा॒ द्यावा॑पृथि॒वी ऋ॒ताव॑री॒ वृषा॑ प॒र्जन्यो॒ वृष॑णो वृष॒स्तुभ॑: ॥
स्वर सहित पद पाठवृषा॑ । य॒ज्ञः । वृष॑णः । स॒न्तु॒ । य॒ज्ञियाः॑ । वृष॑णः । दे॒वाः । वृष॑णः । ह॒विः॒ऽकृतः॑ । वृष॑णा । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । ऋ॒तऽव॑री॒ इत्यृ॒तऽव॑री । वृषा॑ । प॒र्जन्यः॑ । वृष॑णः । वृ॒ष॒ऽस्तुभः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषा यज्ञो वृषणः सन्तु यज्ञिया वृषणो देवा वृषणो हविष्कृत: । वृषणा द्यावापृथिवी ऋतावरी वृषा पर्जन्यो वृषणो वृषस्तुभ: ॥
स्वर रहित पद पाठवृषा । यज्ञः । वृषणः । सन्तु । यज्ञियाः । वृषणः । देवाः । वृषणः । हविःऽकृतः । वृषणा । द्यावापृथिवी इति । ऋतऽवरी इत्यृतऽवरी । वृषा । पर्जन्यः । वृषणः । वृषऽस्तुभः ॥ १०.६६.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 66; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यज्ञः-वृषा) सङ्गमनीय परमात्मा सुखवर्षक हो (यज्ञियाः-वृषणः सन्तु) उसके उपासक सर्वत्र सुखवर्षक हों (देवाः-वृषणः) विद्वान् सुखवर्षक हों (हविष्कृतः-वृषणः) दानकर्त्ता सुखवर्षक हों (ऋतावरी द्यावापृथिवी वृषणा) सत्यपूर्ण प्रजा और राजसभा परस्पर सुखवर्षक हों (पर्जन्यः-वृषा) तर्पणीय उत्पन्न होनेवाला अपना पुत्र सुखवर्षक हो (वृषस्तुभः) इन सुखवर्षकों के भी स्तोता-उपासक सुखवर्षक हों ॥६॥
भावार्थ
परमात्मा हमारे समागम योग्य है, वह सुख की वर्षा करनेवाला हो, उसके सुखवर्षक होने पर उसकी कृपा से विद्वान्, राजा, राजसभा और प्रजा, दानी, उपासक तथा पुत्र ये सभी सुखवर्षक हों। इनके स्तुति करनेवाले उपासक भी हमारे लिए सुखों को प्राप्त करानेवाले बनें ॥६॥
विषय
यज्ञ, विद्वान् स्त्री पुरुषों, वीरों के बलशाली होने की प्रार्थना।
भावार्थ
(यज्ञः वृषा) यज्ञ हमारे ऊपर समस्त सुखों की वर्षा करने वाला हो। और (यज्ञः वृषा) हमारा यज्ञ, परस्पर सत्संगति, और दान बलयुक्त हो। (यज्ञिया देवाः वृषणः सन्तु) यज्ञ में आदर योग्य विद्वान् पुरुष सुखों के देने वाले और बलवान् हों। (हविः-कृतः वृषणः) अन्नों और साधनों के उत्पन्न करने वाले जन भी बलवान् हों। (द्यावा पृथिवी वृषणा) भूमि और सूर्यवत् स्त्री पुरुष भी बलवान् वीर्यवान् और (ऋतावरी) अन्न, जल और ज्ञान से श्रेष्ठ हों। (पर्जन्यः वृषा) मेघ के तुल्य शत्रु-पराजयकारी और धन बलोपार्जन करने वाला पुरुष भी सुखों का वर्षक और बलवान् हो। (वृषस्तुभः वृषणः सन्तु) उस सर्व-सुखदाता की स्तुति करने वाले भी बलवान् हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्द:– १, ३, ५–७ जगती। २, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ४, ८, ११ विराड् जगती। ९ पाद-निचृज्जगती। १४ आर्ची स्वराड् जगती। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
यज्ञ व प्रभु-स्तवन
पदार्थ
[१] (यज्ञः) = यज्ञ (वृषा) = सुखों का वर्षण करनेवाला है। यज्ञ से इस लोक व परलोक दोनों में कल्याण होता है । इस यज्ञ को करनेवाले (यज्ञियाः) = यज्ञशील पुरुष (वृषण:) = शक्तिशाली (सन्तु) = हों। यज्ञ के अन्दर 'देव-पूजा'-बड़ों का आदर 'संगतिकरण' मिल करके चलना परस्पर प्रेम से वर्तना तथा 'दान' देने की वृत्तिवाला होना ये तीन भाव निहित हैं। (देवाः) = 'देवो दानाद्वा' ये देने की वृत्तिवाले पुरुष (वृषणः) = शक्तिशाली होते हैं, दान की वृत्ति इन्हें भोगवृत्तिवाला नहीं बनने देती और इस प्रकार इनकी शक्ति स्थिर रहती है । (हविष्कृतः) = ये हवि को करनेवाले, दानपूर्वक अदन की वृत्तिवाले व्यक्ति (वृषणः) = शक्तिशाली होते हैं। 'यज्ञिय, देव व हविष्कृत्' तीनों शब्दों में यज्ञ की भावना ओत-प्रोत है। यज्ञ इन्हें शक्तिशाली बनाता है। [२] (ऋतावरी) = ऋत का अवन व रक्षण करनेवाले, ऋत के अनुसार गतिवाले (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (वृषणा) = सुखों का वर्षण करनेवाले हैं। (पर्जन्यः) = अन्तरिक्षलोक में होनेवाला यह बादल (वृषा) = सुखों का वर्षण करनेवाला है । (वृषस्तुभः) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले शक्तिशाली प्रभु के स्तोता (वृषण:) = शक्तिशाली बनते हैं। प्रभु का स्तवन करनेवाले के लिये द्यावापृथिवी तथा अन्तरिक्ष में होनेवाला पर्जन्य ये सभी सुखों का वर्षण करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - यज्ञशील पुरुषों का जीवन शक्ति सम्पन्न बनता है । प्रभु-स्तवन से संसार के सब पदार्थ सुखों का वर्षण करनेवाले होते हैं ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यज्ञः-वृषा) सङ्गमनीयः परमात्मा सुखवर्षको भवतु (यज्ञियाः-वृषणः सन्तु) तदुपासकाः सर्वत्र सुखवर्षका भवन्तु (देवाः-वृषणः) विद्वांसः सुखवर्षका भवन्तु (हविष्कृतः-वृषणः) दानकर्त्तारः सुखवर्षका भवन्तु (ऋतावरी द्यावापृथिवी वृषणा) सत्यपूर्णे प्रजाराजसभे परस्परे सुखवर्षके स्यातां (पर्जन्यः-वृषा) तर्पणीयश्च जन्यः स्वपुत्रः सुखवर्षको भवतु (वृषस्तुभः) एतेषां सुखवर्षकानामपि स्तोतारः-उपासकाः सुखवर्षकाः सन्तु “स्तुभ् स्तोतृनाम” [निघ० ३।१६] ॥६।
इंग्लिश (1)
Meaning
May yajna bring us showers of peace and prosperity, may the yajakas be generous and abundant, may the divinities be generous and abundant, may the bearers of havi be generous and abundant, may heaven and earth replete with waters be generous and abundant, may the clouds be generous and abundant, may the celebrants of the generous divinities too be generous and abundant and bring us showers of peace and prosperity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा आमच्या समायोगायोग्य आहे. तो सुखाची वृष्टी करणारा असावा. तो सुखवर्षक असल्यामुळे त्याच्या कृपेने विद्वान, राजा, राजसभा व प्रजा, दानी, उपासक व पुत्र हे सर्व सुखवर्षक असावेत. त्यांची स्तुती करणारे उपासकही आमच्यासाठी सुख प्राप्त करविणारे असावेत. ॥६॥
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