ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 68/ मन्त्र 12
इ॒दम॑कर्म॒ नमो॑ अभ्रि॒याय॒ यः पू॒र्वीरन्वा॒नोन॑वीति । बृह॒स्पति॒: स हि गोभि॒: सो अश्वै॒: स वी॒रेभि॒: स नृभि॑र्नो॒ वयो॑ धात् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । अ॒क॒र्म॒ । नमः॑ । अ॒भ्रि॒याय॑ । यः । पू॒र्वीः । अनु॑ । आ॒ऽनोन॑वीति । बृह॒स्पतिः॑ । सः । हि । गोभिः॑ । सः । अश्वः॑ । सः । वी॒रेभिः॑ । सः । नृऽभिः॑ । नः॒ । वयः॑ । धा॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदमकर्म नमो अभ्रियाय यः पूर्वीरन्वानोनवीति । बृहस्पति: स हि गोभि: सो अश्वै: स वीरेभि: स नृभिर्नो वयो धात् ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । अकर्म । नमः । अभ्रियाय । यः । पूर्वीः । अनु । आऽनोनवीति । बृहस्पतिः । सः । हि । गोभिः । सः । अश्वः । सः । वीरेभिः । सः । नृऽभिः । नः । वयः । धात् ॥ १०.६८.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 68; मन्त्र » 12
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अभ्रियाय-इदं नमः-अकर्म) वेदवाणी को प्राप्त हुए विद्वान् के लिए स्वागत करते हैं (यः पूर्वीः-अनु-आनोनवीति) जो पुरातन-शाश्वतिक वेदवाणियों का भली प्रकार प्रवचन करता है (सः-बृहस्पतिः-हि) वेद का स्वामी वह परमात्मा (गोभिः) इन्द्रियों के द्वारा (सः-अश्वैः) व्यापनशील मन बुद्धि चित्ताहंकारों से (सः-वीरेभिः) वह प्राणों द्वारा (सः-नृभिः) वह रक्तवाहक नाड़ियों द्वारा (नः-वयः-धात्) हमारे लिए जीवन धारण कराता है ॥१२॥
भावार्थ
वेदवाणी को प्राप्त वेदवक्ता के लिए नमस्कार-स्वागत आदि करना चाहिए। उस वेदज्ञान का स्वामी परमात्मा शाश्वतिक वेदवाणियों का आदि सृष्टि में उपदेश करता है। वह इन्द्रियों के द्वारा मन बुद्धि चित्त अहङ्कारों के द्वारा और प्राणों, रक्तनाड़ियों के द्वारा शारीरिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन को प्रदान करता है ॥१२॥
विषय
उपदेष्टा गुरु के कर्त्तव्य।
भावार्थ
जो विद्वान् (पूर्वीः) पूर्व आचार्यों की ज्ञान से पूर्ण और सनातन से विद्यमान वाणियों का (अनु आनोनवाति) एक के बाद एक परम्परा से शिष्यों को अभिमुख बैठा कर उपदेश करता है। (अभ्रियाय) मेघ के तुल्य इस प्रकार उदारता से गंभीरतापूर्वक उपदेश के लिये (नमः अकर्म) हम नमस्कार, अन्नादि सत्कार करें। (सः) हमारे बीच में वह (गोभिः अश्वभिः वीरेभिः) गौओं से, अश्वों से और वीरों से, (सः नृभिः) वह अन्य नायकों वा मनुष्यों द्वारा (नः वयः धात्) हम में बल और शक्ति प्रदान करे॥ इत्यष्टादशो वर्गः॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अयास्य ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता। छन्दः— १, १२ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८—११ त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
गो- अश्व- वीर-नर
पदार्थ
[१] (अभ्रियाय) = [अभ्रेषु भवाय] द्युलोक व पृथिवीलोक के मध्य में होनेवाले बादलों के स्थान में होनेवाले, अर्थात् सदा अन्तरिक्ष में, मध्यमार्ग में चलनेवाले बृहस्पति के लिये (इदं नमः अकर्म) = इस नमस्कार को करते हैं । ऐसे व्यक्ति का, जो अति को छोड़कर सदा मध्यमार्ग को अपनाता है, हम सत्कार करते हैं । (यः) = जो बृहस्पति (पूर्वी:) = जीवन का पूरण करनेवाले ऋचाओं को (अनु आनोनवीति) = प्रतिदिन खूब ही उच्चारण करता है। इन ऋचाओं का उच्चारण करता हुआ उनके अनुसार जीवन बिताने का प्रयत्न करता है। [२] (स बृहस्पतिः) = वह ज्ञान का रक्षक व्यक्ति (नः) = हमारे में से (हि) = निश्चयपूर्वक (गोभिः) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियों के साथ (वयः) = उत्कृष्ट जीवन को (धातू) = धारण करता है । (सः) = वह (अश्वैः) = उत्तम कर्मेन्द्रियों के साथ उत्तम जीवनवाला होता है । (स) = वह (वीरेभिः) = वीर - सन्तानों के साथ सुन्दर जीवनवाला होता है । (स नृभिः) = वह उत्तम नर मनुष्यों के साथ, उत्तम मनुष्यों की मित्रता में प्रशस्त जीवनवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम मध्यमार्ग में चलें, ऋचाओं का उच्चारण करते हुए तदनुकूल जीवनवाले हों । हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ प्रशस्त हों । सन्तान वीर हों, साथी प्रगतिशील हों । सूक्त का प्रारम्भ बृहस्पति की इस आराधना से हुआ था कि [क] शक्ति वृद्धि रक्षण के द्वारा हमारे आयुष्य की वृद्धि हो, [ख] हमारी इन्द्रियाँ सशक्त बनी रहें, [ग] जीवन उल्लासमय हो, [१] समाप्ति पर यही भाव है कि बृहस्पति सदा मध्यमार्ग में चलता हुआ प्रशस्त इन्द्रियोंवाला होता है, वीर सन्तानों को प्राप्त करता है, इसके साथी भी प्रगतिशील होते हैं, [१५] इस प्रकार यह 'सुमित्र' = उत्तम मित्रोंवाला व उत्तमता से रोगों व पापों से अपने को बचानेवाला होता है [प्रमीतेः त्रायते] तथा 'वाथ्र्यश्व' = संयम रज्जु से बद्ध इन्द्रियाश्वोंवाला होता है। यह 'सुमित्र वाध्यश्व' निम्न प्रकार से जीवन को बिताता है-
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अभ्रियाय-इदं नमः-अकर्म) वेदवाचं प्राप्ताय “वाग्वा-अभ्रिः” [श० ६।४।८।५] खल्विदं नमः कुर्मः (यः-पूर्वीः-अनु-आनोनवीति) यः पुरातनीः शाश्वतीः वाचः परम्परया समन्तात् प्रवक्ति ब्रवीति “नोनुवन्तः-भृशं शब्दायन्ते” [ऋ० ४।२२।४ दयानन्दः] (सः-बृहस्पतिः-हि) स हि वेदपतिः (गोभिः) इन्द्रियैः (सः-अश्वैः) व्यापनशीलैर्मनोभिरन्तःकरणैः (सः-वीरेभिः) सः प्राणैः “प्राणा वै दश वीराः” [श० १२।८।१।१२] (सः-नृभिः) रक्तनेत्रीभिर्नाडीभिः (नः-वयः-धात्) अस्मभ्यं जीवनं दधाति ॥१२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This homage we offer to Brhaspati, lord of living waters and thunder, who reveals the eternal words of divine knowledge. May that lord bless us with good health and long age with lands, cows and the light of knowledge, horses, transport and advancement, brave progeny, leading lights and enlightened people.
मराठी (1)
भावार्थ
वेदवाणी प्राप्त झालेल्या वेदवक्त्यासाठी नमस्कार-स्वागत इत्यादी केले पाहिजे. त्या वेदवाणीचा, वेदज्ञानाचा स्वामी परमात्मा शाश्वतिक वेदवाणीचा आदि सृष्टीत उपदेश करतो. तो इंद्रियांद्वारे मन, बुद्धी, चित्त, अहंकाराद्वारे व प्राण, रक्तनाड्यांद्वारे शारीरिक जीवन व आध्यात्मिक जीवन प्रदान करतो. ॥१२॥
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