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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 69/ मन्त्र 4
    ऋषिः - सुमित्रो वाध्र्यश्चः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यं त्वा॒ पूर्व॑मीळि॒तो व॑ध्र्य॒श्वः स॑मी॒धे अ॑ग्ने॒ स इ॒दं जु॑षस्व । स न॑: स्ति॒पा उ॒त भ॑वा तनू॒पा दा॒त्रं र॑क्षस्व॒ यदि॒दं ते॑ अ॒स्मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । त्वा॒ । पूर्व॑म् । ई॒ळि॒तः । व॒ध्रि॒ऽअ॒श्वः । स॒म्ऽई॒धे । अ॒ग्ने॒ । सः । इ॒दम् । जु॒ष॒स्व॒ । सः । नः॒ । स्ति॒ऽपाः । उ॒त । भ॒व॒ । त॒नू॒ऽपाः । दा॒त्रम् । र॒क्ष॒स्व॒ । यत् । इ॒दम् । ते॒ । अ॒स्मे इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं त्वा पूर्वमीळितो वध्र्यश्वः समीधे अग्ने स इदं जुषस्व । स न: स्तिपा उत भवा तनूपा दात्रं रक्षस्व यदिदं ते अस्मे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । त्वा । पूर्वम् । ईळितः । वध्रिऽअश्वः । सम्ऽईधे । अग्ने । सः । इदम् । जुषस्व । सः । नः । स्तिऽपाः । उत । भव । तनूऽपाः । दात्रम् । रक्षस्व । यत् । इदम् । ते । अस्मे इति ॥ १०.६९.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 69; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (वध्र्यश्वः) नियन्त्रित इन्द्रियोंवाला अथवा चर्मबन्धनी में अश्व की भाँति देहबन्धनी-वासना में बँधा मैं जीवात्मा (यं त्वा) जिस तुझ को (पूर्वम्-ईळितः) पूर्वजन्म में स्तुति में ला चुका हूँ (समीधे) इस जन्म में भी अपने में सम्यक् प्रकाशित करता हूँ (सः-इदं जुषस्व) वह तू मेरी स्तुति को स्वीकार कर (सः) वह तू (नः) हमारे (स्तिपाः) हृदयगृह का रक्षक अथवा शरीर में ऊपर नीचे स्थित संहत-एक दूसरे से संसक्त जीवनरसों का रक्षक है (उत) और (तनूपाः) बाह्यदेह का भी पालक है (अस्मे) हमारे लिए (ते-इदम्) तेरा यह (यद्-दात्रम्) जो दातव्य है, (रक्षस्व) उसकी रक्षा कर ॥४॥

    भावार्थ

    जीवात्मा की आन्तरिक अनुभूति है-वह अपने देह और वासना के बन्धन में समझता हुआ स्मरण करता है कि परमात्मा की स्तुति पूर्वजन्म में भी करता रहा, इस जन्म में भी करता हूँ बन्धन से छूटने के लिए। परमात्मा आन्तरिक भावनाओं और मन आदि उपकरणों का रक्षक है तथा बाहरी रस-रक्त आदि धातुओं तथा शरीर का भी रक्षक है। अपने उत्थान के लिए उसकी स्तुति प्रार्थना उपासना करनी चाहिए ॥४॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (वध्र्यश्वः) वध्रयो नियन्त्रिता इन्द्रियरूपाश्वाः-यस्य यद्वा वध्रयः-चर्मबन्धन्यामश्व इव देहबन्धन्यां वासनायां बद्धोऽहं जीवात्मा (यं त्वा) यं त्वां (पूर्वम्-ईळितः) पूर्वजन्मनि स्तुतवान् ‘कर्त्तरि क्तः’ (समीधे) अस्मिन् जन्मनि स्वात्मनि स्तुत्या सम्यक्प्रकाशयामि (सः-इदं जुषस्व) स त्वं मम स्तवनं सेवस्व-स्वीकुरु (सः) स त्वं (नः) अस्माकं (स्तिपाः) हृदयगृहस्य रक्षकः, यद्वा शरीरे-ऊर्ध्वाधःस्थितानां संहतजीवन-रसानां रक्षकः स्तिपाः-“ष्टौ वेष्टने” [भ्वादिः] कि प्रत्यये ‘स्तिः’ (उत) अपि च (तनूपाः) बाह्यदेहस्यापि पालकः (अस्मे) अस्मभ्यं (ते-इदम्) तवेदं (यद् दात्रम्) दातव्यमस्ति (रक्षस्व) रक्ष ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, you have been loved, studied and adored since the earliest times. The same you, I study and adore with controlled and concentrated mind, senses, intentions and motivations in my yajnic performance. Pray listen to my words and respond to this endeavour of mine. Be the protector of our homes and families and of our health of body and community, and protect this gift of yours which you have given to us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवात्म्याची आंतरिक अनुभूती अशी आहे, की तो आपल्याला देह व वासनेच्या बंधनात समजून स्मरण करतो, की परमात्म्याची स्तुती पूर्वीही करत होतो. या जन्मातही बंधनातून सुटण्यासाठी करतो. परमात्मा आंतरिक भावना व मन इत्यादी उपकरणांचा रक्षक आहे व बाह्य रस-रक्त इत्यादी धातू व शरीराचा रक्षक आहे. आपल्या उत्थानासाठी त्याची स्तुती, प्रार्थना, उपासना केली पाहिजे. ॥४॥

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