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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 69/ मन्त्र 8
    ऋषिः - सुमित्रो वाध्र्यश्चः देवता - अग्निः छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वे धे॒नुः सु॒दुघा॑ जातवेदोऽस॒श्चते॑व सम॒ना स॑ब॒र्धुक् । त्वं नृभि॒र्दक्षि॑णावद्भिरग्ने सुमि॒त्रेभि॑रिध्यसे देव॒यद्भि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वे इति॑ । धे॒नुः । सु॒ऽदुघा॑ । जा॒त॒वे॒दः॒ । अ॒स॒श्चता॑ऽइव । स॒म॒ना । स॒बः॒ऽधुक् । त्वम् । नृऽभिः॑ । दक्षि॑णावत्ऽभिः । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽमि॒त्रेभिः॑ । इ॒ध्य॒से॒ । दे॒व॒यत्ऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वे धेनुः सुदुघा जातवेदोऽसश्चतेव समना सबर्धुक् । त्वं नृभिर्दक्षिणावद्भिरग्ने सुमित्रेभिरिध्यसे देवयद्भि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वे इति । धेनुः । सुऽदुघा । जातवेदः । असश्चताऽइव । समना । सबःऽधुक् । त्वम् । नृऽभिः । दक्षिणावत्ऽभिः । अग्ने । सुऽमित्रेभिः । इध्यसे । देवयत्ऽभिः ॥ १०.६९.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 69; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (जातवेदः) हे सर्वोत्पादक, सर्वज्ञ, परमात्मन् ! या राष्ट्ररूप धन जिसके लिए संपन्न हुआ है, ऐसे राजन् ! (त्वे) तुझ (असश्चता-इव) शान्त के द्वारा (सुदुघा-धेनुः) अच्छी दोहनवाली गौ की भाँति स्तुति करनेवाली प्रजा (समना) समान मनवाली-अविचल मनवाली (सबर्धुक्) सुख दोहनयोग्य है (त्वम् ) तू (दक्षिणावद्भिः सुमित्रेभिः) आत्मसमर्पणरूप दक्षिणवाले अच्छे स्नेही (देवयद्भिः-नृभिः-इध्यसे) तझे अपना देव माननेवाले जीवन्मुक्तों द्वारा प्रसिद्ध किया जाता है-साक्षात् किया जाता है ॥८॥

    भावार्थ

    सर्वज्ञ शान्तस्वरूप परमात्मा के लिए स्तुति करनेवाले जन स्तुति भेंटरूप में देते हैं और आत्मसमर्पण करनेवाले जनों-अपना इष्टदेव माननेवाले जनों के द्वारा सक्षात् किया जाता है या प्रसिद्ध किया जाता है। एवं जो राजा राष्ट्रधन का उपभोग करनेवाला है, इन्द्रियविषयों में आसक्त नहीं होता, उसकी प्रजा उसके लिए सुगमता से दुहनेवाली गौ के समान भेंट देनेवाली होती है और उसे अपने ऊपर शासक देव मानती हुई उसकी प्रसिद्धि करती है ॥८॥

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    विषय

    उत्तम गौ के तुल्य स्त्री और वाणी का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (जात-वेदः) समस्त उत्पन्न लोकों को जानने वाले, सब धनों के स्वामिन् ! (सुदुघा धेनुः) सुख से दोहने योग्य, दुधार गौ के सदृश, (असश्चता) असंग, निःस्वार्थ तुझ से (समना) संगत समान चित्त हुई (सबर-धुक्) परम रस का प्रदान करने वाली है, प्रभु के आश्रय प्रकृति, स्वामी के आश्रय प्रजा, पुरुष के आश्रय स्त्री और विद्वान् के आश्रय वेदवाणी है। हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! तेजस्विन् ! नायक ! (त्वं) तू (दक्षिणावद्भिः नृभिः) ‘दक्षिणा’ अर्थात् उत्साहजनक साधनों वाले, शक्तिशाली, अन्नादि से सम्पन्न (सु-मित्रेभिः) उत्तम स्नेही जनों के रक्षकों और (देवयद्भिः) विद्वानों, वीरों की कामना वाले पुरुषों द्वारा (त्वम् इध्यसे) तू प्रदीप्त किया जाता है। (२) इसी प्रकार देव अर्थात् प्रभु की कामना करने वाले, दक्षिणा, के दाता, स्नेही सत्पुरुषों से तू यज्ञ में अग्नि रूप से प्रज्वलित किया जाता है, और वह रस-ज्ञान की देने वाली (धेनुः) वाणी (असश्चता) अन्य कहीं भी न लगती हुई (त्वे समना) एकमात्र तेरे में ही संगत होती है। वेदवाणी की मुख्य संगति प्रभु में ही है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुमित्रो वाध्र्यश्वः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ निचृज्जगती। २ विराड् जगती। ३, ७ त्रिष्टुप्। ४, ५, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९, ११ विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम॥

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    विषय

    सुदुघा धेनु

    पदार्थ

    [१] हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो ! (त्वम्) = आप (सुदुघा धेनुः) = उत्तमता से दोहन योग्य गौ के समान हैं। जैसे सुखदोह्य गौ दूध को प्राप्त कराती है, इसी प्रकार आप ज्ञानदुग्ध को प्राप्त करानेवाले हैं। (असश्चतास्व) = [सश्च = to eling ] अनासक्तरूप से आप समना सम्यक् प्राणित व चेष्टित करनेवाले हैं, (सबधुक्) = ज्ञानदुग्ध का पूरण करनेवाले हैं। प्रभु प्रेरणा देकर क्रिया में प्रवृत्त तो करते हैं कि 'यह करो', परन्तु हम नहीं करते तो क्रोध में आकर 'तुमने यह क्यों नहीं किया ?' इस प्रकार झिड़कने नहीं लगते। 'यह करो' इस रूप में प्रेरणा ही करते रहते हैं । [२] (अग्ने त्वम्) = हे प्रभो! आप (नृभिः) = उन्नतिपथ पर आगे बढ़नेवालों से, (दक्षिणावद्भिः) = त्याग की वृत्तिवालों से (सुमित्रेभिः) = अच्छी प्रकार अपने को पापों व रोगों से बचानेवालों से तथा (देवयद्रिः) = अपने को दिव्यगुणों से युक्त करने की कामनावालों से इध्यसे दीप्त किये जाते हो। आपको 'नर, दक्षिणावान्, सुमित्र व देवयन्' पुरुष ही प्राप्त करते हैं। आपकी ज्योति को ये ही अपने हृदयों में देख पाते हैं इन्हीं को आपकी प्रेरणा ठीक प्रकार से सुनाई पड़ती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु सुदुधा धेनु के समान ज्ञानदुग्ध को देनेवाले हैं। उन्हें 'सुमित्र' ही हृदयों के अन्दर देख पाते हैं।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (जातवेदः) हे सर्वोत्पादक ! सर्वज्ञ ! परमात्मन् ! जातं राष्ट्ररूपं धनं यस्मै-राष्ट्रधनवन् राजन् ! वा (त्वे) त्वया (असश्चता-इव) असज्यमानेन शान्तगतिकेन वा सह “असश्चन्ती असज्यमाने” [निरु० १।११] (सुदुघा धेनुः) सुदोग्ध्री गौरिव स्तोतृप्रजा (समना) समानमनस्का (सबर्धुक्) सुखदोहनयोग्याऽस्ति (त्वम्) त्वं खलु (दक्षिणावद्भिः सुमित्रेभिः-देवयद्भिः-नृभिः) आत्मसमर्पणरूप-दक्षिणावद्भिः शोभनस्नेहिभिस्त्वं देवं मन्यमानैर्जीवन्मुक्तैः “नरो ह वै देवविशः” [जै० १।८९] प्रकाशितीक्रियसे प्रसिद्धीक्रियसे साक्षात्क्रियसे ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Jataveda, omniscient lord of all existence, in you abides the perennial, inexhaustible mother cow, nature, the divine Word, agreeable and spontaneous giver of ceaseless streams of life sustaining light and natural energy. You are enkindled and adored by all leading lights of humanity bearing homage in abundance, noble friends, devotees who love and worship divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्वज्ञ शांतस्वरूप परमात्म्याची स्तुती करणारे लोक स्तुतीरूपी भेट देतात व आत्मसमर्पण करणाऱ्या आणि आपले इष्टदेव मानणाऱ्या लोकांद्वारे तो साक्षात केला जातो किंवा प्रसिद्ध केला जातो. जो राजा राष्ट्रधनाचा उपभोग करणारा आहे. इंद्रिय विषयात आसक्त होत नाही. त्याची प्रजा त्याला सुगमतेने दूध देणाऱ्या गायीप्रमाणे भेट देणारी असते व त्याला आपला शासक देव मानून त्याची प्रसिद्धी करते. ॥८॥

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