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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 70/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सुमित्रो वाध्र्यश्चः देवता - आप्रियः छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    श॒श्व॒त्त॒ममी॑ळते दू॒त्या॑य ह॒विष्म॑न्तो मनु॒ष्या॑सो अ॒ग्निम् । वहि॑ष्ठै॒रश्वै॑: सु॒वृता॒ रथे॒ना दे॒वान्व॑क्षि॒ नि ष॑दे॒ह होता॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒श्व॒त्ऽत॒मम् । ई॒ळ॒ते॒ । दू॒त्या॑य । ह॒विष्म॑न्तः । म॒नु॒ष्या॑सः । अ॒ग्निम् । वहि॑ष्ठैः । अश्वैः॑ । सु॒ऽवृता॑ । रथे॑न । आ । दे॒वान् । व॒क्षि॒ । नि । स॒द॒ । इ॒ह । होता॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शश्वत्तममीळते दूत्याय हविष्मन्तो मनुष्यासो अग्निम् । वहिष्ठैरश्वै: सुवृता रथेना देवान्वक्षि नि षदेह होता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शश्वत्ऽतमम् । ईळते । दूत्याय । हविष्मन्तः । मनुष्यासः । अग्निम् । वहिष्ठैः । अश्वैः । सुऽवृता । रथेन । आ । देवान् । वक्षि । नि । सद । इह । होता ॥ १०.७०.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 70; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (हविष्मन्तः-मनुष्यासः) मनस्वी या मननशील मनुष्य (शश्वत्तमम्-अग्निं-दूत्याय-ईळते) अति सदातन महान् परमात्मा को अपने आनन्द या ज्ञान के द्रावण करने के लिए प्रेरित करने के लिए स्तुति करते हैं (वहिष्ठैः-अश्वैः) संसारवहनकर्त्ता व्यापक गुणों से, तथा (सुवृता रथेन) उत्तम वर्तने योग्य या रमणीय मोक्ष के द्वारा (देवान्-वक्षि) जीवन्मुक्तों को तू वहन करता है (होता-इह-निषद) मेरा स्वीकार करनेवाला होकर यहाँ हृदय में विराज ॥३॥

    भावार्थ

    मनस्वी या मननशील परमात्मा के आनन्दरस या ज्ञानरस को ग्रहण कर सकता है। जो परमात्मा की उपासना में निरत रहता है, वह मोक्ष का भागी बनता है ॥३॥

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    विषय

    शिष्यों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (हविष्मन्तः मनुष्यासः) अन्न आदि अनेक साधनों से सम्पन्न जन (दूत्याय अग्निम्) दूत, कर्म अर्थात् संदेश पहुंचाने के कार्य के लिये (अग्निम्) तेजस्वी ज्ञानी पुरुष को (शश्वत्-तमम् ईडते) सदा से और बहुत २ चाहते और उसका आदर सत्कार करते हैं। वह (वहिष्ठैः अश्वैः) अच्छी प्रकार ढोने वाले अश्वों से और (सुवृता रथेन) उत्तम रीति से वा सुख से जाने योग्य रथ से जैसे कोई पूज्य जनों को प्राप्त करता है उसी प्रकार (वहिष्ठैः अश्वैः) ज्ञान धारण करने वाले धुरन्धरा और विद्या के पारंगत पुरुषों द्वारा और (सुवृता रथेन) उत्तम उत्तम वर्णन बतलाने वाले (रथेन) रमणीय उपदेश वचन से (देवान् आवहसि) शिष्यों के प्रति ज्ञान का उपदेश करे। वह (होता) ज्ञानदाता (इह नि सद) तू यहां विराज, हम तुझ से ज्ञान प्राप्त करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुमित्रो वाध्र्यश्व ऋषिः। आप्रियो देवताः॥ छन्द:- १, २, ४, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५—७, ९, ११ त्रिष्टुप्। ८ विराट् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु का सन्देश

    पदार्थ

    [१] (हविष्मन्तः) = प्रशस्त हविवाले, सदा दानपूर्वक अदन करनेवाले, यज्ञ शेष का सेवन करनेवाले, (मनुष्यासः) = विचारपूर्वक कर्मों को करनेवाले मनुष्य [मत्वा कर्माणि सीव्यति] (शश्वत्तमम्) = उस सनातन (अग्निम्) = अग्रेणी प्रभु को (दूत्याय) = दूत कर्म के लिये, उससे ज्ञान सन्देश को प्राप्त करने के लिये, (ईडते) = उपासित करते हैं । प्रभु के उपासना 'हविष्मान् मनुष्य' बनने से ही होती है, 'कस्मै देवाय हविषा विधेम ' -उस आनन्दमय देव का हवि के द्वारा उपासन करें। [२] वे उपासित प्रभु हमें ज्ञान का सन्देश प्राप्त कराते हुए कहते हैं कि [क] (वहिष्ठैः) = अधिक से अधिक कर्त्तव्यों का वहन करनेवाले (अश्वैः) - इन्द्रियाश्वों से तथा (सुवृता रथेन) = जिसमें प्रत्येक अंग शोभन है 'शोभनं वर्तते 'उस शरीररूप रथ से तू (देवान् आवक्षि) = देवों को अपने में प्राप्त करानेवाला हो। तेरे हृदय में दिव्य भावों का निवास हो, ऐसा होने के लिये तू सदा कर्त्तव्य कर्मों में लगा रह तथा शरीर को स्वस्थ, सुन्दर व सबल बनाने का ध्यान कर । [ख] (इह) = इस जीवन में (होता) = होता बनकर (निषद) = आसीन हो । दानभाव तेरे में सदा बने रहे। देकर ही यज्ञशेष को खानेवाला बन ।

    भावार्थ

    भावार्थ- जब हम प्रभु का उपासन करते हैं तो प्रभु हमें यही ज्ञान का सन्देश देते हैं कि इन्द्रियों को कर्त्तव्य-कर्मों में व्याप्त रखो और संसार में होता बनकर चलो, यज्ञशेष का ही सेवन करो ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (हविष्मन्तः-मनुष्यासः) मनस्विनो मननशीला वा “मनो हविः” [तै० आ० ३।६।१] मनुष्याः (शश्वत्तमम्-अग्निं दूत्याय-ईळते) सदातनं महान्तं परमात्मानं स्वानन्दस्य ज्ञानस्य वा द्रावणाय “दूतो जवतेर्वा द्रवतेर्वा” [निरु० ५।१] स्तुवन्ति (वहिष्ठैः-अश्वैः) संसारवहनकर्त्तृभिर्व्यापकगुणैः, तथा (सुवृता रथेन) सुवर्तनेन रमणीयमोक्षेण (देवान् वक्षि) जीवन्मुक्तान् वहसि (होता-इह निषद) मम स्वीकर्त्ताऽत्र हृदये विराजस्व ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Men with homage of yajnic offerings always invoke, serve and pray to Agni to carry their offerings to the divinities and bring in their blessings. O high priest of yajna, pray come, bring in the divinities by the strongest fastest chariot drawn by most radiant carriers of natural dynamics, sit on the vedi and, by the same powers, transmit our fragrances to nature’s bounties.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मनस्वी किंवा मननशील व्यक्तीच परमात्म्याचा आनंदरस किंवा ज्ञानरसाला ग्रहण करू शकते. जो परमात्म्याच्या उपासनेत निरत असतो तो मोक्षाचा भागी बनतो. ॥३॥

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