ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 70/ मन्त्र 4
ऋषिः - सुमित्रो वाध्र्यश्चः
देवता - आप्रियः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वि प्र॑थतां दे॒वजु॑ष्टं तिर॒श्चा दी॒र्घं द्रा॒घ्मा सु॑र॒भि भू॑त्व॒स्मे । अहे॑ळता॒ मन॑सा देव बर्हि॒रिन्द्र॑ज्येष्ठाँ उश॒तो य॑क्षि दे॒वान् ॥
स्वर सहित पद पाठवि । प्र॒थ॒ता॒म् । दे॒वऽजु॑ष्टम् । ति॒र॒श्चा । दी॒र्घम् । द्रा॒घ्मा । सु॒र॒भि । भू॒तु॒ । अ॒स्मे इति॑ । अहे॑ळत । मन॑सा । दे॒व॒ । ब॒र्हिः॒ । इन्द्र॑ऽज्येष्ठान् । उ॒श॒तः । य॒क्षि॒ । दे॒वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि प्रथतां देवजुष्टं तिरश्चा दीर्घं द्राघ्मा सुरभि भूत्वस्मे । अहेळता मनसा देव बर्हिरिन्द्रज्येष्ठाँ उशतो यक्षि देवान् ॥
स्वर रहित पद पाठवि । प्रथताम् । देवऽजुष्टम् । तिरश्चा । दीर्घम् । द्राघ्मा । सुरभि । भूतु । अस्मे इति । अहेळत । मनसा । देव । बर्हिः । इन्द्रऽज्येष्ठान् । उशतः । यक्षि । देवान् ॥ १०.७०.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 70; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवजुष्टं बर्हिः) जीवन्मुक्तों के द्वारा सेवित करने योग्य प्रवृद्ध विज्ञान (विप्रथताम्) विस्तृत होवे-होता है (अस्मे) हमारे लिए (तिरश्चा दीर्घं द्राघ्मा सूरभि भूतु) अन्दर रखा हुआ बड़ा और चिरस्थायी सुगन्धरूप होवे, होता है (देव) हे परमात्मदेव ! (अहेळता मनसा) क्रोधरहित दयापूर्ण मन से-अपने ज्ञान से (इन्द्रज्येष्ठान्-उशतः-देवान्) इन्द्र अर्थात् तुझ परमात्मा को ज्येष्ठ अर्थात् अपने से ऊपर जो स्वीकार करते हैं, उनको और तुझे चाहनेवाले विद्वानों को (यक्षि) सङ्गति का अवसर दे-अपने साथ मिला ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा का ज्ञान जीवन्मुक्तों के अन्दर वृद्धि को प्राप्त होता है। वे लोग अपने ऊपर परमात्मा को ही उपास्य समझते हैं। परमात्मा उन्हें अपनी संगति का लाभ देता है, उनके द्वारा अन्य जन परमात्मा के ज्ञान का लाभ लेते हैं ॥४॥
विषय
धान्यवत् प्रजाजन के विस्तृत होने का वर्णन।
भावार्थ
हे मनुष्य ! (देवजुष्टम्) मनुष्यों को अच्छा लगने वाला (बर्हिः) धान्य आदि अन्न (तिरश्चा) खूब दूर तक (वि प्रथताम्) विस्तृत हो, वह (दीर्घं) खूब बड़ा, लम्बा, दृढ़ हो, वह (द्राघ्मा) दीर्घता के साथ २ (अस्मे) हमारे लिये (सुरभिः) उत्तम गंधयुक्त, दृढ़, पुष्टिकारक (भूतु) हो। हे देव प्रभो ! हे विद्वन् ! तू (अहेडता मनसा) क्रोध और अनादर से रहित चित्त से (इन्द्र-ज्येष्ठान्) इन्द्र, प्रभु परमेश्वर को सर्वश्रेष्ठ मानने वाले (देवान्) शुभ गुणयुक्त, (उशतः) कामनावान् जनों को (यक्षि) अन्न प्रदान कर। इसी प्रकार ‘बर्हिः’ लोक, प्रजा आदि का वाचक भी है। वे विस्तृत हों, चिरस्थायी हों। इन्द्र गुरु और राजा हैं। उनको ज्येष्ठ मानने वाले देव तेजस्वी पुरुष और शिष्य गण हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुमित्रो वाध्र्यश्व ऋषिः। आप्रियो देवताः॥ छन्द:- १, २, ४, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५—७, ९, ११ त्रिष्टुप्। ८ विराट् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सुरभि जीवन
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार जब हम हृदयों में देवों को आसीन करते हैं तो यह (देवजुष्टम्) = देवों से, दिव्य भावनाओं से सेवित हृदय (तिरश्चा) = [तिरः अञ्चति] तिरोहितरूपेण रहकर सब गति करते हुए उस प्रभु से (विप्रथताम्) = विशिष्ट विस्तारवाला हो । जब हृदय में प्रभु का हम स्मरण करते हैं तो हृदय विशाल बनता ही है, 'हम सब उस एक प्रभु के पुत्र हैं' यह भावना हमें एक दूसरे के समीप लानेवाली होती है। [२] इस प्रकार हृदय के विशाल बनने पर (दीर्घं द्राघ्मा) = यह लम्बा जीवन का विस्तार (अस्मे) = हमारे लिये (सुरभि भूतु) = सुगन्धित हो। हम कभी इस जीवन में अपशब्दों को न बोलें । वस्तुतः अपशब्दों के प्रयोग का अभाव स्वयं दीर्घायुष्य का कारण बनता है 'सुरभि नो मुखा करत् प्रण आयूंषि तारिषत्' । [३] इस प्रकार प्रार्थना करनेवाले सुमित्र से प्रभु कहते हैं कि हे (देव) = दिव्यगुणों के अधिष्ठानभूत हृदयवाले! तू (अहेडता मनसा) = किसी से भी घृणा न करते हुए हृदय से (इन्द्रज्येष्ठान्) = सर्वशक्तिमान् प्रभु जिनमें ज्येष्ठ हैं उन (उशतः) = हित की कामनावाले (देवान्) = सब देवों को (बर्हिः) = अपने वासनाशून्य हृदय में यक्षि-संगत कर । हम हृदय से घृणा व द्वेष को दूर करें, तभी यह हृदय 'बर्हिः ' कहलायेगा, जिसमें से वासनाओं का उद्धर्हण कर दिया गया है। इस मन में ही सब देवों के साथ परमदेव प्रभु अधिष्ठित होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा हृदय प्रभु स्मरण से विशाल बने । जीवन सुगन्धित हों तथा प्रभु व देवों को हम हृदय में आसीन करें।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवजुष्टं बर्हिः) जीवन्मुक्तैः सेवितव्यं प्रवृद्धं विज्ञानम् “भूमा वै बर्हिः” [श० १।५।४।४] “बर्हिः-विज्ञानम्” [ऋ० १।८३।६ दयानन्दः] (विप्रथताम्) विस्तृतं भवतु (अस्मे) अस्मभ्यं (तिरश्चा दीर्घं द्राघ्मा सुरभि भूतु) तिरश्चीनमन्तर्गतम् “तिरोऽन्तर्धौ” [अष्टा० १।४।७०] महत्-चिरस्थायि सुगन्धरूपं भवतु (देव) हे परमात्मदेव ! (अहेळता मनसा) क्रोधरहितेन दयापूर्णेन मनसेव स्वज्ञानेन (इन्द्रज्येष्ठान्-उशतः-देवान्) इन्द्रं त्वां परमात्मानं ज्येष्ठं स्वोपरि वर्तमानं ये मन्यन्ते तान्, त्वां ये कामयन्ते तान् “वश कान्तौ” [अदादिः] विदुषः (यक्षि) सङ्गमयसि ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May the yajnic light, fire and prosperity loved by the divinities, grow, expand and rise all round, long, wide and lofty in space and time so that there may be sweet fragrance for us all time. O divine light, fire and fragrance of yajna, O lord of space and divine bliss, help us with a gracious mind free from hate and anger to join the brilliant divinities with Indra, omnipotent Supreme, first and highest of them.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराचे ज्ञान जीवनमुक्तांमध्ये वृद्धी पावते. ते लोक परमेश्वरालाच उपास्य समजतात. परमात्मा त्यांच्या संगतीत असतो. त्यांच्याकडून इतर लोकही परमात्म्याच्या ज्ञानाचा लाभ घेतात. ॥४॥
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