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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 70/ मन्त्र 5
    ऋषिः - सुमित्रो वाध्र्यश्चः देवता - आप्रियः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दि॒वो वा॒ सानु॑ स्पृ॒शता॒ वरी॑यः पृथि॒व्या वा॒ मात्र॑या॒ वि श्र॑यध्वम् । उ॒श॒तीर्द्वा॑रो महि॒ना म॒हद्भि॑र्दे॒वं रथं॑ रथ॒युर्धा॑रयध्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वः । वा॒ । सानु॑ । स्पृ॒शत॑ । वरी॑यः । पृ॒थि॒व्या । वा॒ । मात्र॑या । वि । श्र॒य॒ध्व॒म् । उ॒श॒तीः । द्वा॒रः॒ । म॒हि॒ना । म॒हत्ऽभिः॑ । दे॒वम् । रथ॑म् । र॒थ॒ऽयुः । धा॒र॒य॒ध्व॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवो वा सानु स्पृशता वरीयः पृथिव्या वा मात्रया वि श्रयध्वम् । उशतीर्द्वारो महिना महद्भिर्देवं रथं रथयुर्धारयध्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवः । वा । सानु । स्पृशत । वरीयः । पृथिव्या । वा । मात्रया । वि । श्रयध्वम् । उशतीः । द्वारः । महिना । महत्ऽभिः । देवम् । रथम् । रथऽयुः । धारयध्वम् ॥ १०.७०.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 70; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (द्वारः) हे द्वार के समान सुशोभित गृहदेवियों-गृहमहिलाओं ! अथवा इन्द्रियद्वारों से निकली हुई शुभवृत्तियों ! (दिवः-वा सानु स्पृशत) मोक्ष-धाम के-स्वर्ग के भजनीय सुख को प्राप्त करो (पृथिव्याः-वा वरीयः) प्रथित सृष्टि के महत्तर सुख को (मात्रया विश्रयध्वम्) आंशिकरूप से सेवन करो (उशतीः) कामना करती हुई (महिना महद्भिः) गुणमहत्त्व से महान् विद्वानों से स्वीकृत तथा अनुमोदित (देवं रथं रथयुः-धारयध्वम्) रमणीय मोक्ष या गृहस्थ के रमण को चाहते हुए धारण करो ॥५॥

    भावार्थ

    घर की महिलाएँ अथवा प्रत्येक मनुष्य की इन्द्रियवृत्तियाँ सृष्टि के भोगों को आंशिकरूप में भोगें। इसी में कल्याण है, अधिक सेवन में नहीं। तथा महान् विद्वानों द्वारा सेवित तथा अनुमोदित विशेषरूप से मोक्षधाम का सुख, साधारणरूप से गृहस्थ का सुख भोगने योग्य है ॥५॥

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    विषय

    स्त्रियों और सेनाओं का द्वारों के दृष्टान्त से वर्णन।

    भावार्थ

    हे (द्वारः) स्वयं वरण करने वाली, (उशतीः) पतियों को चाहने वाली वा लौकिक सुख-सामग्री वा पुत्रादि की कामना करने वाली स्त्री जनो ! आप लोग (दिवः) सूर्य के समान कान्ति और तेज से युक्त, तुम्हें चाहने वाले पुरुष के (सानुं स्पृशत) उत्तम सेवनीय धन वा उत्तम भाव को प्राप्त करो। (पृथिव्या वा मात्रया) और पृथिवी की मात्रा से अर्थात् पृथिवी के समान उत्पादक मातृ शक्ति से युक्त होकर (वि श्रयध्वम्) विशेष रूप से पुरुष का आश्रय लो। (महिना) बड़े पूज्य पुरुष के साथ और (मरुद्भिः) अपने पूज्य सम्बन्धियों सहित (रथ-युः) रमण करने योग्य, सुखदाता पति को देव के तुल्य (धारयध्वम्) धारण करो, उसको स्वीकार करो। (२) शत्रु को वारण करने वाली सेनाएं भी वारण करने से ‘द्वारः’ हैं। वे तेजस्वी, सूर्यवत् सेनापति के (सानु) दिये आज्ञा-वचन को सुनें। जितनी पृथिवी हो उस पर अधिकार करें। बड़े सामर्थ्य और बड़े वीर पुरुषों से स्वयं रथशाली होकर, रमण योग्य सर्वसुखद राजा वा राष्ट्र-रथ को धारण करें। इत्येकविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुमित्रो वाध्र्यश्व ऋषिः। आप्रियो देवताः॥ छन्द:- १, २, ४, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५—७, ९, ११ त्रिष्टुप्। ८ विराट् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    द्वार:-इन्द्रियाणिं

    पदार्थ

    [१] 'अष्टचक्रा नवद्वारा०' आदि मन्त्रभागों में द्वार् शब्द इन्द्रियों के लिये प्रयुक्त हुआ है। इन इन्द्रियों के दो मुख्य विभाग हैं, ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ । ज्ञानेन्द्रियों के लिये प्रार्थना करते हैं कि हे ज्ञानेन्द्रियरूप द्वारो! (दिवः) = ज्ञान के (वरीयः) = विशाल व उत्कृष्ट (सानु) = शिखर को (स्पृशता) = तुम छूनेवाले बनो। अर्थात् ऊँचे से ऊँचे ज्ञान को प्राप्त करनेवाले होओ। हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्ति का साधन बनें। [२] (वा) = और हे कर्मेन्द्रिय रूप द्वारो ! तुम (पृथिव्याः मात्रया) = पृथिवी की मात्रा से, अर्थात् पृथिवी को इकाई बनाकर, सारी पृथिवी को ही अपना कुटुम्ब समझकर, (वि श्रयध्वम्) = विशेषरूप से लोकहितात्मक कर्मों का सेवन करनेवाले बनो । अर्थात् तुम्हारे सब कार्य हृदय की विशाल वृत्ति से किये जाएँ, स्वार्थ से ऊपर उठकर ही सब कार्य हों। [३] (उशती:) = हित की कामनावाले (द्वार:) = इन्द्रिय द्वारो ! (महिना महद्भिः) = महिमा से महान् देवों से अधिष्ठित और अतएव (देवं रथम्) = इस प्रकाशमय रथ को (रथयुः) = रथ की कामनावाले होकर (धारयध्वम्) = धारण करो। इस शरीर-रथ में सब देव आरुढ़ हैं, 'सर्वाह्यस्मिन् देवता गावो गोष्ठ इवासते'। सूर्य यहाँ आँखों में स्थित है, तो दिशाएँ कानों में, वायु नासिका में, अग्नि मुख में, चन्द्रमा मन में, पृथिवी पाँवों में और इसी प्रकार अन्यान्य देवता अन्यान्य स्थानों में स्थित हैं। सब देवों का अधिष्ठान होने से यह शरीर - रथ 'देवरथ' है । इस देवरथ को ये सब इन्द्रिय द्वार उत्तमता से धारण करते हैं। सब इन्द्रिय द्वारों [ख] का उत्तम होना [सु] ही 'सुख' है। इनकी विकृति [दुः] ही 'दुःख' है । शरीर के ये सब द्वार ठीक होंगे तभी ज्ञान के शिखर पर भी हम पहुँचेंगे और तभी व्यापक लोकहित के कार्यों को कर सकेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारे सब इन्द्रिय द्वार ठीक हों । ज्ञानेन्द्रियाँ हमें ज्ञानशिखर पर पहुँचाएँ और कर्मेन्द्रियाँ व्यापक यज्ञात्मक कर्मों में व्यापृत रहें ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (द्वारः) हे द्वार इव सुशोभिता देव्यः ! “द्वारः द्वार इव सुशोभिताः” [ऋ० १।४२।६ दयानन्दः] इन्द्रियद्वारतो निःसृताः शुभो वृत्तयो वा (दिवः-वा सानु स्पृशत) मोक्षधाम्नः स्वर्गस्य भजनीयं सुखं प्राप्नुत (पृथिव्याः-वा वरीयः) प्रथितायाः सृष्टेश्च महत्तरं सुखम् (मात्रया विश्रयध्वम्) आंशिकरूपेण विश्रयत (उशतीः) कामयमानाः सत्यः (महिना महद्भिः-देवं रथं रथयुः-धारयध्वम्) गुणमहत्त्वेन महद्भिर्विद्वद्भिः स्वीकृतमनुमोदितं वा दिव्यं रमणीयं मोक्षं गार्हस्थ्यं वा रमणं कामयमानाः-धारयत ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O divinities of yajnic energy of nature, treasure troves of prosperity, touch the highest top of heavenly light and open and expand the fertility of earth in ample measure. Loving, passionate and gracious, ride the cosmic chariot of Infinity with the great divinities by virtue of your own grandeur and open the doors of boundless prosperity and enlightenment for humanity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    घरातील स्त्रियांनी किंवा प्रत्येक माणसाच्या इंदियवृत्तींनी सृष्टीतील भोगांना आंशिक रूपाने भोगावे. यातच कल्याण असते. अधिक सेवन करण्याने नव्हे. विद्वानांद्वारे अनुमोदित विशेषरूपाने मोक्षधामाचे सुख व सामान्यत: गृहस्थाचे सुख भोगणे योग्य असते. ॥५॥

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