ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 70/ मन्त्र 6
ऋषिः - सुमित्रो वाध्र्यश्चः
देवता - आप्रियः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दे॒वी दि॒वो दु॑हि॒तरा॑ सुशि॒ल्पे उ॒षासा॒नक्ता॑ सदतां॒ नि योनौ॑ । आ वां॑ दे॒वास॑ उशती उ॒शन्त॑ उ॒रौ सी॑दन्तु सुभगे उ॒पस्थे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वी इति॑ । दि॒वः । दु॒हि॒तरा॑ । सु॒शि॒ल्पे इति॑ सु॒ऽशि॒ल्पे । उ॒षसा॒नक्ता॑ । स॒द॒ता॒म् । नि । योनौ॑ । आ । वा॒म् । दे॒वासः॑ । उ॒श॒ती॒ इति॑ । उ॒शन्तः॑ । उ॒रौ । सी॒द॒न्तु॒ । सु॒भ॒गे॒ इति॑ सुऽभगे । उ॒पऽस्थे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवी दिवो दुहितरा सुशिल्पे उषासानक्ता सदतां नि योनौ । आ वां देवास उशती उशन्त उरौ सीदन्तु सुभगे उपस्थे ॥
स्वर रहित पद पाठदेवी इति । दिवः । दुहितरा । सुशिल्पे इति सुऽशिल्पे । उषसानक्ता । सदताम् । नि । योनौ । आ । वाम् । देवासः । उशती इति । उशन्तः । उरौ । सीदन्तु । सुभगे इति सुऽभगे । उपऽस्थे ॥ १०.७०.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 70; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(दिवः-दुहितरा) सूर्य के समान प्रकाशमान ज्ञानसूर्य विद्वान् की दुहिताओं के समान दोहनेवाली (सुशिल्पे देवी) सुकर्म की साधिकाएँ दिव्य सुख देनेवाली (उषासानक्ता) उषा और रात्रि के समान विद्या और स्त्री (योनौ नि सदताम्) सुबुद्धि में-उत्तम बुद्धि में प्रशस्त बुद्धिवाले मुझ मनुष्य में निविष्ट हों (सुभगे उशती) हे सुभाग्य के निमित्तभूत ! कमनीय ! (उशन्तः-देवासः) कामना करते हुए विद्वान् (वाम्-उरौ) तुम्हारे विस्तृत (उपस्थे-आसीदन्तु) उपयुक्त स्थान-अध्ययनश्रवणस्थान में भलीभाँति प्राप्त होते हैं ॥६॥
भावार्थ
विद्यासूर्य विद्वान् की दोहने योग्य विद्या और योग्य पत्नी अच्छे कर्म की साधिकाएँ बनती हैं, जबकि अच्छे और श्रवण स्थान में उनका उपयोग हो ॥६॥
विषय
दिन रात्रिवत् गृहस्थ स्त्री पुरुषों का वर्णन।
भावार्थ
(दिवः दुहितरा) तेजस्वी सूर्य के पुत्र और पुत्री के समान (उषासानक्ता) दिन और रात्रि जैसे (देवी) कान्तियुक्त होते हैं उसी प्रकार (देवी) शुभ गुणों से युक्त, एक दूसरे को चाहने वाले दोनों स्त्री पुरुष (दिवः दुहितरा) एक दूसरे की कामनाओं को पूर्ण करने वाले हों। वे दोनों (सुशिल्पे) उत्तम शिल्प, कला को जानने वाले होकर (योनौ नि सदताम्) गृह में सुख से विराजें। हे (सुभगे) उत्तम ऐश्वर्ययुक्त स्त्री पुरुषो ! (उशती वाम्) परस्पर को चाहने वाले आप दोनों को (उशन्तः देवासः) चाहते हुए विद्वान् जन (उरौ) इस विस्तृत (उपस्थे) स्थान, राष्ट्र वा गृह में (नि सीदन्तु) विराजें। (२) इसी प्रकार राजा प्रजा आदि के पक्ष में भी समझें।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुमित्रो वाध्र्यश्व ऋषिः। आप्रियो देवताः॥ छन्द:- १, २, ४, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५—७, ९, ११ त्रिष्टुप्। ८ विराट् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
उषासानक्ता
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार सब इन्द्रियों के ठीक होने पर (उषासानक्ता) = ये दिन और रात (देवी) = हमारे सब व्यवहारों के साधक हों [दिव्= व्यवहार] इनमें हमारा दैनिक कार्यक्रम बड़ी सुन्दरता से चले। किसी कर्म के करने में हम प्रमाद न करें। (दिवः दुहितरा) = ये ज्ञान प्रकाश का प्रपूरण करनेवाले हों, अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों से अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करनेवाले हों । तथा (सुशिल्पे) = उत्तम शिल्पवाले हों। इन दिन व रात में प्रत्येक कार्य बड़े कलापूर्ण तरीके से किया जाये । कर्मेन्द्रियाँ अपने-अपने कार्य को सुन्दरता से करनेवाली हों। [२] इस प्रकार के ये दिन-रात, जिनमें ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान के पूरण में लगी हैं और कर्मेन्द्रियाँ कलापूर्ण तरीके से कार्यों में व्यापृत हैं, (योनौ) = उस मूल-स्थान प्रभु में (निसदताम्) = निश्चय से स्थित हों । अर्थात् दिन-रात प्रभु का स्मरण चले। हमारा प्रत्येक कार्य प्रभु स्मरण पूर्वक हो । [३] हे उषासानक्ता ! (उशती) = आप हमारे हित की कामनावाले हो। और (उशन्तः) = हमारे हित को चाहते हुए (देवासः) = सब देव (वाम्) = आपकी (उरौ) = विशाल व (सुभगे) = उत्तम ऐश्वर्यवाली उपस्थे गोद में (आसीदन्तु) = आसीन हों। दिन-रात्रि की गोद के उरु व सुभग होने का भाव यह है कि हमारा हृदय सदा विशाल व श्री सम्पन्न बना रहे। उस विशाल श्री-सम्पन्न हृदय में सब दिव्यभावनाओं का निवास हो । पूर्वार्ध में कहा था कि हम सदा प्रभु का स्मरण करनेवाले बनें, उत्तरार्ध में कहते हैं कि हमारे हृदयों में दिव्यगुणों का विकास हो । प्रभु स्मरण से दिव्यगुणों की उत्पत्ति होती है। प्रभु स्मरण कारण है, दिव्यगुणों का विकास उसका कार्य ।
भावार्थ
भावार्थ- हम दिन-रात प्रभु स्मरण करते हुए, प्रभु स्मरणपूर्वक सब कार्यों को करते हुए, अपने जीवन में दिव्यता का अवतरण करें।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(दिवः-दुहितरा सुशिल्पे देवी-उषासानक्ता) सूर्यस्येव प्रकाशमानस्य ज्ञानसूर्यस्य विदुषो दुहितराविव दोग्ध्र्यौ सुकर्मसाधिके “शिल्पं कर्मनाम” [निघ० २।१] दिव्यसुखदात्र्यौ-उषोरात्रे इव विद्यायोषे (योनौ निसदताम्) सुबुद्धौ प्रशस्तबुद्धिमति मयि जने “सुधीन् योनीन्” [काठ० १।१२] नितिष्ठतां (सुभगे-उशती) हे सुभाग्यनिमित्तभूते ! कमनीये (उशन्तः-देवासः) कामयमाना विद्वांसः (वाम्-उरौ-उपस्थे-आसीदन्तु) युवयोः-विस्तृते उपयुक्त- स्थानेऽध्ययनश्रवणस्थाने समन्तात् प्राप्नुवन्ति ‘लडर्थे लोट् छान्दसः’ ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O divine daughters of heaven, dawn of the busy day and restful night, both dexterous accomplishers of yajna, abide in the midst of the creative endeavours of humanity. Loving as you are, generous and gracious, may the dedicated and enthusiastic celebrants of divine nature come and abide in the boundless bosom of your love and good fortune.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्या सूर्य विद्वानाची सारयुक्त विद्या व योग्य पत्नी चांगले कर्म करू शकतात. जेव्हा चांगले श्रवण व उपयुक्त स्थान असेल तर त्यांचा उपयोग होऊ शकतो. ॥६॥
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