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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 70/ मन्त्र 9
    ऋषिः - सुमित्रो वाध्र्यश्चः देवता - आप्रियः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    देव॑ त्वष्ट॒र्यद्ध॑ चारु॒त्वमान॒ड्यदङ्गि॑रसा॒मभ॑वः सचा॒भूः । स दे॒वानां॒ पाथ॒ उप॒ प्र वि॒द्वाँ उ॒शन्य॑क्षि द्रविणोदः सु॒रत्न॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    देव॑ । त्व॒ष्टः॒ । यत् । ह॒ । चा॒रु॒ऽत्वम् । आन॑ट् । यत् । अङ्गि॑रसाम् । अभ॑वः । स॒चा॒ऽभूः । सः । दे॒वाना॑म् । पाथः॑ । उप॑ । प्र । वि॒द्वान् । उ॒शन् । य॒क्षि॒ । द्र॒वि॒णः॒ऽदः॒ । सु॒ऽरत्नः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देव त्वष्टर्यद्ध चारुत्वमानड्यदङ्गिरसामभवः सचाभूः । स देवानां पाथ उप प्र विद्वाँ उशन्यक्षि द्रविणोदः सुरत्न: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देव । त्वष्टः । यत् । ह । चारुऽत्वम् । आनट् । यत् । अङ्गिरसाम् । अभवः । सचाऽभूः । सः । देवानाम् । पाथः । उप । प्र । विद्वान् । उशन् । यक्षि । द्रविणःऽदः । सुऽरत्नः ॥ १०.७०.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 70; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (त्वष्टः-देव) हे जगत् के रचनेवाले परमात्मदेव ! (यत्-ह चारुत्वम्-आनट्) जो तू कल्याणरूपता या श्रेष्ठता प्राप्त किये हुए है (यत्-अङ्गिरसां सचाभूः-अभवः) और जो तुझ परमात्मा को अपना अङ्गी बनाकर रस लेते हैं, उन विद्वानों का सहयोगी होता है-हो (सः) वह तू (द्रविणोदः) हे धन प्रदान करनेवाले (सुरत्नः) सुरमणीय भोगवाला होता हुआ (देवानां पाथः) उन विद्वानों के पथ्य भोग को (विद्वान्-उशन्) जानता हुआ, देने की कामना करता हुआ (उप प्रयक्षि) देता है ॥९॥

    भावार्थ

    परमात्मा जगत् का रचयिता जीवों के ऊपर अपनी दयारूप श्रेष्ठता को प्रकट करता है। जो उपासक तुझे अपना अङ्गी बनाकर आनन्द रस लेते हैं, उन्हें तू निश्चय अपना उपहार देता है ॥९॥

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    विषय

    विद्वानों के बीच पालक स्वामी का कर्त्तव्य। पक्षान्तर में प्राणों के बीच आत्मा की स्थिति।

    भावार्थ

    हे (त्वष्टः) तेजस्विन् ! (यत्) जो (चारुत्वम्) उत्तमता को (आनड्) प्राप्त होता है, और (यत्) जो तू (अंगिरसाम्) विद्वानों के बीच (सचा-भूः अभवः) उनका सहयोगी होता है, हे (द्रविणोदः) धन ज्ञानादि के देनेहारे ! (सः) वह तू (सु-रत्नः) उत्तम रत्नादि पदार्थों का स्वामी होकर भी (उशन्) इच्छावान् और (विद्वान्) ज्ञानवान् होकर (देवानां) विद्वान् ज्ञानदाता और विद्या धनादि के इच्छुकों की (पाथः) पालन, रक्षा, अन्न, जल आदि पदार्थ, (प्र यक्षि उप यक्षि) प्रदान कर और उपस्थित कर। अध्यात्म में—आत्मा अंगिरसों, प्राणों के बीच एक है, वह त्वष्टा है, जो उनको बनाता है। वह उनको रस और रक्षा देता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुमित्रो वाध्र्यश्व ऋषिः। आप्रियो देवताः॥ छन्द:- १, २, ४, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५—७, ९, ११ त्रिष्टुप्। ८ विराट् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु अंगिरसों के मित्र हैं

    पदार्थ

    [१] हे (देव) = दिव्यगुणों के पुञ्ज ! (त्वष्टः) = [ त्विषेर्वा स्याद्दीप्तिकर्मणः, त्वक्षतेर्वा गतिकर्मणः नि०] दीप्त व सारे संसार के निर्माता प्रभो ! (यद् ह) = जो निश्चय से आप (चारुत्वम्) = सौन्दर्य को (आनट्) = व्याप्त करते हैं, अर्थात् सम्पूर्ण सौन्दर्य के स्वामी हैं तथा (यद्) = जो आप (अंगिरसाम्) = अंग- प्रत्यंग में रसवाले, अर्थात् सबल शरीरवालों के (सचाभूः अभवः) = साथ होनेवाले हैं । (स) = वे आप (प्रविद्वान्) = हमारी स्थिति के प्रकर्षेण जानते हुए (उशन्) = हमारे हित को चाहते हुए (देवानाम्) = देवों के (पाथः) = सात्त्विक अन्न को [food] (उपयक्षि) = हमारे साथ संगत करिये। देवों से खाने योग्य सात्त्विक अन्न के प्रयोग से ही हमारी वृत्ति भी देववृत्ति बनेगी। सब जीवन का सौन्दर्य इस सात्त्विक अन्न पर ही निर्भर करता है। इसी अन्न ने हमें अंग-प्रत्यंग में रसवाला सात्त्विक शक्ति सम्पन्न बनाना है। [२] हे प्रभो! आप ही (द्रविणोदः) = सब द्रविणों के देनेवाले हैं और (सुरत्न:) = सुन्दर रमणीय रत्नोंवाले हैं। आपका मित्र बनकर मैं इन द्रविणों व रत्नों को क्यों न प्राप्त करूँगा ?

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु की मित्रता में ही जीवन का सौन्दर्य है । देवताओं का सात्त्विक अन्न ही हमें सात्त्विक बनाकर सशक्त बनायेगा और हम प्रभु की मित्रता के अधिकारी होंगे।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (त्वष्टः-देव) हे जगद्रचयित देव परमात्मन् ! (यत्-ह चारुत्वम्-आनट्) यत् खलु कल्याणरूपत्वं श्रेष्ठत्वं प्राप्नोषि (यत्-अङ्गिरसां सचाभूः-अभवः) यच्च अङ्गिनं त्वां परमात्मानं स्वस्मिन् रसयन्ति तेषां विदुषाम् “अङ्गिरसो विद्वांसः” [ऋ० ३।३१।१९] सहयोगी भवसि (सः) स त्वं (द्रविणोदः) हे धनदः ! (सुरत्नः) सुरमणीयभोगवान् सन् (देवानां पाथः) तेषां विदुषां पथ्यं भोगं (विद्वान्-उशन्) जानन् तथा च दातुं कामयमाना सन् (उप प्र यक्षि) उपप्रयच्छसि ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O divine Tvashta, creator and maker of the forms of existence, when you create the beauty and graces of life and become a friend and associate of the Angirasas, spirit and energy of the life of humanity, then O generous lord of the world’s wealth, loving and all knowing, pray give food and living sustenance for the holy creative people on their paths of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा जगाचा उत्पत्तिकर्ता असून जीवांवर दयारूप श्रेष्ठत्व प्रकट करतो. जे उपासक परमेश्वराला आपला अंगी बनवून आनंदरस घेतात. त्यांना परमेश्वर निश्चयपूर्वक आपला उपहार देतो. ॥९॥

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