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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 71/ मन्त्र 3
    ऋषिः - बृहस्पतिः देवता - ज्ञानम् छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    य॒ज्ञेन॑ वा॒चः प॑द॒वीय॑माय॒न्तामन्व॑विन्द॒न्नृषि॑षु॒ प्रवि॑ष्टाम् । तामा॒भृत्या॒ व्य॑दधुः पुरु॒त्रा तां स॒प्त रे॒भा अ॒भि सं न॑वन्ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञेन॑ । वा॒चः । प॒द॒ऽवीय॑म् । आ॒य॒न् । ताम् । अनु॑ । अ॒वि॒न्द॒न् । ऋषि॑षु । प्रऽवि॑ष्टाम् । ताम् । आ॒ऽभृत्य॑ । वि । अ॒द॒धुः॒ । पु॒रु॒ऽत्रा । ताम् । स॒प्त । रे॒भाः । अ॒भि । सम् । न॒व॒न्ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञेन वाचः पदवीयमायन्तामन्वविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम् । तामाभृत्या व्यदधुः पुरुत्रा तां सप्त रेभा अभि सं नवन्ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञेन । वाचः । पदऽवीयम् । आयन् । ताम् । अनु । अविन्दन् । ऋषिषु । प्रऽविष्टाम् । ताम् । आऽभृत्य । वि । अदधुः । पुरुऽत्रा । ताम् । सप्त । रेभाः । अभि । सम् । नवन्ते ॥ १०.७१.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 71; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वाचः) मन्त्रवाणियाँ (यज्ञेन) अध्यात्मयज्ञ के द्वारा-ध्यान से (पदवीयम्) पदों द्वारा ज्ञानक्रम को (आयन्) प्राप्त होती हैं (ताम्-ऋषिषु) उस वाणी को मन्त्रों में (प्रविष्टाम्-अन्वविन्दन्) प्रविष्ट हुई को प्राप्त करते हैं (ताम्-आभृत्य) उस वाणी को भली प्रकार धारण करके (पुरुत्रा व्यदधुः) बहुत देशों में प्रचारित करते हैं (तां सप्त रेभाः) उस वाणी को सात छन्द विषयों को लक्ष्य करके (अभि सं नवन्ते) स्तुति करते हैं, वर्णित करते हैं ॥३॥  

    भावार्थ

    वेदवाणी एक-एक पद के साथ अर्थ को रखती हुई सात छन्दों में-मन्त्रों में ज्ञानयज्ञ तथा अध्यात्मयज्ञ से प्रकाशित होती है। जिसका भिन्न-भिन्न देशों में ऋषियों द्वारा प्रचार हो जाता है ॥३॥

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    विषय

    संगति द्वारा वाणी को समझने का सिद्धान्त।

    भावार्थ

    वे ध्यानवान्, बुद्धिमान्, विचारशील पुरुष (वाचः पदवीयम्) वाणी के एक २ पद से प्राप्त करने योग्य अभिप्राय को भी (यज्ञेन) परस्पर की संगति से ही (आयन्) प्राप्त करते हैं। वे (ऋषिषु) तत्व ज्ञान को साक्षात् करने वाले अध्यात्मदर्शी जनों में (प्रविष्टाम्) प्रविष्ट हुई (ताम्) उस वाणी को (अनु अविन्दन्) उपदेश के अनन्तर ही प्राप्त करते हैं। (ताम् आभृत्य) उसको प्राप्त करके ही वे (पुरुत्रा) बहुत से स्थलों में (वि अदधुः) विविध प्रकार से उपदेश करते हैं। (ताम्) उसको ही (सप्त) सातों (रेभाः) छन्द (अभि सं नवन्ते) साक्षात् उपदेश करते हैं। अर्थात् मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की वाणी जो सात छन्दों में प्रकट है उसको भी लोगों ने उपदेश के द्वारा प्राप्त किया। प्रथम उन्होंने उसका साक्षात् किया और पश्चात् अन्यों के प्रति प्रकाश किया। उस वाणी के पद-पदार्थ का बोध गति द्वारा ही किया। संगति को विद्वान् लोग ही समझते हैं, अविद्वान् नहीं। क्योंकि—

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहस्पतिः॥ देवता—ज्ञानम्॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप्। २ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, ८, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप्। ९ विराड् जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    सप्तरेभा वेदवाणी का ऋषियों में प्रवेश

    पदार्थ

    [१] (यज्ञेन) = यज्ञ के द्वारा उस उपास्य प्रभु के द्वारा ['यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः '] (वाचः) = वाणी के (पदवीयम्) = मार्ग को (आयन्) = प्राप्त हुए । सृष्टि के प्रारम्भ में प्रभु के द्वारा अग्नि आदि को इस वेदवाणी का ज्ञान हुआ और (ऋषिषु प्रविष्टाम्) = अग्नि आदि ऋषियों के हृदयों में प्रविष्ट हुई- हुई (ताम्) = उस वेदवाणी को (अन्वविन्दन्) = पीछे अन्य ऋषियों ने प्राप्त किया। प्रभु ने अग्नि आदि को ज्ञान दिया। अग्नि आदि से अन्य ऋषियों ने इसे पाया । [२] (तां आमृत्या) = उस वेदवाणी को उत्तमता से धारण करके उन्होंने (पुरुत्रा) = बहुत स्थानों में (व्यदधुः) = इसे स्थापित किया। इसका मनुओं में, विचारशील पुरुषों में प्रचार किया, (ताम्) = उस वेदवाणी को (सप्त रेभाः) = सात गायत्री आदि छन्द (अभिसंनवन्ते) = प्राप्त होते हैं। यह वेदवाणी गायत्री आदि सात छन्दों में प्रवृत्त होती है । अथवा 'सप्तरेभाः' को समस्त पद लेकर यह अर्थ किया जा सकता है कि उस वेदवाणी को 'कानों, नासिकाओं, आँखों व मुख' से इन सातों से प्रभु-स्तवन करनेवाले लोग (अभितः) = प्राप्त होते हैं

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु अग्नि आदि को वेदज्ञान देते हैं, इनसे अन्य यज्ञिय वृत्तिवाले ऋषियों को यह प्राप्त होती है। उसे ये ऋषि मानवसमाज में प्रचरित करते हैं। यह वेदवाणी सात छन्दों से युक्त है, अथवा 'कान - २, नाक-२, आँख-२, मुख -१' ये सात स्तोता बनकर इसे प्राप्त करते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वाचः-यज्ञेन पदवीयम्-आयन्) मन्त्रवाचो अध्यात्मयज्ञेन ध्यानेन पदशो ज्ञानक्रमम् “पद्वी पदं वेत्ति” [निरु० १३ (१४) ७२ (१४)] पदपूर्वकाद् वी धातोर्यति गुणाभावश्छान्दसः (ताम्-ऋषिषु प्रविष्टाम्-अन्वविन्दन्) तां वाचं मन्त्रेषु प्रविष्टां लब्धवन्तः-प्राप्तवन्तः (ताम्-आभृत्य पुरुत्रा व्यदधुः) तां वाचं समन्ताद् धारयित्वा बहुषु देशेषु विदधति प्रचारयन्ति (तां सप्त रेभाः-अभि सं नवन्ते) तां वाचं सप्त छन्दांसि विषयान् लक्ष्यीकृत्य स्तुवन्ति वर्णयन्ति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    By yajna and meeting of minds on the vedi, they get to the form and meaning of language, tracing it word by word in the structure, realising the reality of meaning hidden in the mind of the sages. And having reached, realised and received it, they bear it around and communicate it in many ways widely in many places at various times. Thus do seven eloquent sages honour, serve and worship it, structured and articulated in seven poetic forms.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    भिन्न भिन्न ऋषींद्वारे जिचा प्रचार होतो अशी वेदवाणी एकेका पदाबरोबर, अर्थासह, सात छन्दात - मंत्रात ज्ञानयज्ञ व अध्यात्म यज्ञाने प्रकट होते. ॥३॥

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    Vocal Communication Skills

    Word Meaning

    (वाच: पदवीयं यज्ञेन आयन् ) इस प्रकार बुद्धिमान जन, उर्कृष्ट वाणी से यज्ञ्यों द्वारा प्रतिष्ठित पद प्राप्त करते हैं. (ऋषिषु प्रविष्ठां तां अविंदन्) ऋषियों द्वारा दिये ज्ञान को आधार बना कर.(तां आभृत्य पुरुत्रा व्यदधु:) सहायक भृत्यों के द्वारा दूर दूर तक प्रतिष्ठित होते हैं .( तां सप्त रेभा:अभि सं नवन्ते) इस प्रकार उत्कृष्ट वाणी द्वारा सभी सम्भव उन्नति प्राप्त करते हैं .

    Tika / Tippani

    भावार्थ: उत्कृष्ट वाणी द्वारा ही भावोद्दीपक प्रभाव से सामुहिक योजनाओं मे सफलता प्राप्त होती है.

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