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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 71/ मन्त्र 8
    ऋषिः - बृहस्पतिः देवता - ज्ञानम् छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    हृ॒दा त॒ष्टेषु॒ मन॑सो ज॒वेषु॒ यद्ब्रा॑ह्म॒णाः सं॒यज॑न्ते॒ सखा॑यः । अत्राह॑ त्वं॒ वि ज॑हुर्वे॒द्याभि॒रोह॑ब्रह्माणो॒ वि च॑रन्त्यु त्वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हृ॒दा । त॒ष्टेषु॑ । मन॑सः । ज॒वेषु॑ । यत् । ब्रा॒ह्म॒णाः । स॒म्ऽयज॑न्ते । सखा॑यः । अत्र॑ । अह॑ । त्व॒म् । वि । ज॒हुः॒ । वे॒द्याभिः॑ । ओह॑ऽब्रह्माणः । वि । च॒र॒न्ति॒ । ऊँ॒ इति॑ । त्वे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हृदा तष्टेषु मनसो जवेषु यद्ब्राह्मणाः संयजन्ते सखायः । अत्राह त्वं वि जहुर्वेद्याभिरोहब्रह्माणो वि चरन्त्यु त्वे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हृदा । तष्टेषु । मनसः । जवेषु । यत् । ब्राह्मणाः । सम्ऽयजन्ते । सखायः । अत्र । अह । त्वम् । वि । जहुः । वेद्याभिः । ओहऽब्रह्माणः । वि । चरन्ति । ऊँ इति । त्वे ॥ १०.७१.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 71; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मनसः-जवेषु) मन के वेगों में (हृदा तष्टेषु) हृदयस्थ बुद्धि से निष्पादित निश्चित किये हुए वेदार्थों में (सखायः-ब्राह्मणाः) समान ज्ञानवाले विद्वान् (संयजन्ते) सङ्गति को प्राप्त होते हैं (अत्र-अह-त्वं विजहुः) इस ज्ञानप्रसङ्ग में उस असखा-अब्राह्मण-अज्ञानी को विद्वान् लोग सर्वथा त्याग देते हैं, उसे आदर नहीं देते हैं, क्योंकि (वेद्याभिः) वेदितव्य-प्रवृत्तियों द्वारा (त्वे-ओहब्रह्माणः) कुछ एक ऊहनीय तर्कणीय वेदज्ञान जिनका है, वे ऐसे (विचरन्ति-उ) वेदार्थज्ञान में विचरते हैं-प्रवेश करते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    वेद का ज्ञान पवित्र मन और तीक्ष्ण बुद्धि द्वारा साक्षात् होता है। जो ऊहा करनेवाले विद्वान् हैं, वे उसमें प्रवेश करते हैं, अन्य अज्ञानी नहीं ॥८॥

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    विषय

    विद्यार्थियों को ज्ञान-वृद्धव्यर्थ परस्पर वाद-प्रतिवाद करने का उपदेश।

    भावार्थ

    (यत्) जब (ब्राह्मणाः) ब्रह्म अर्थात् वेद के विद्वान् जन (हृदा तष्टेषु) हृदय से अच्छी प्रकार तर्क-वितर्क द्वारा विनिश्चित, (मनसः जवेषु) ज्ञान के वेगों या ज्ञातव्य पदार्थों में (सखायः) समान कोटि के ज्ञान, गुरु-उपदेश और समान-दर्शन शक्ति से युक्त होकर (सं-यजन्ते) एकत्र संगत होते और परस्पर ज्ञान-विचारों का दान प्रतिदान करते हैं। (अत्र ह) इस अवसर में भी (त्वं) किसी को तो (वि जहुः) विशेष रूप से अज्ञ सा जानकर छोड़ देते हैं। और (ओह-ब्रह्माण: उ त्वे) और कुछ एक विद्वान् वेद के मन्त्रों पर अनेक ऊहा, तर्कवितर्क करते हुए (वेद्याभिः) अनेक जानने योग्य विद्याओं द्वारा (वि चरन्ति) विचार करते हैं और निश्चित अर्थ को प्राप्त करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहस्पतिः॥ देवता—ज्ञानम्॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप्। २ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, ८, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप्। ९ विराड् जगती॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    वेदज्ञ व अवेदज

    पदार्थ

    [१] (यद्) = जब (हृदा) = हृदय की श्रद्धा से (तष्टेषु) = तीव्र किये हुए [तक्ष= तनूकरणे] (मनसः जवेषु) = मन के वेगों में, मन से प्राप्त करने योग्य ज्ञानों के निमित्त (ब्राह्मणाः) = ब्रह्म के विचारक पुरुष (सखायः) = परस्पर ज्ञान की मैत्रीवाले होकर (संयजन्ते) = एकत्रित होते हैं। एकत्रित होकर जब ये ज्ञानी पुरुष ज्ञानयज्ञ को प्रारम्भ करते हैं तो (अत्र) = यहाँ ज्ञानयज्ञों में (अह) = निश्चय से (त्वम्) = किसी एक को (वेद्याभिः) = वेद्य वस्तुओं से (विजहुः) = छोड़ देते हैं । अर्थात् समझ की कमी के कारण उसे शास्त्रीय चर्चाओं में सम्मिलित नहीं करते । उ त्वे और कई इन नासमझ पुरुषों से भिन्न (ओहव्रस्त्राणः) = ऊह्य है ब्रह्म जिनके लिये, अर्थात् तर्क-वितर्क द्वारा ब्रह्म के अस्तित्व का स्थापन करनेवाले व्यक्ति उन ज्ञानयज्ञों में (विचरन्ति) = विशिष्ट शोभा के साथ विचरण करते हैं। ज्ञान उनकी शोभा वृद्धि का कारण बनता है । [२] ज्ञान यज्ञों में कई हृदय व मन के विकास के कारण ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करनेवाले होते हैं तो दूसरे अविकसित हृदय व मनवाले अलग ही बैठे रह जाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हृदय व मन की पवित्रता ब्रह्मज्ञान के लिये आवश्यक है। इसके बिना हम 'ओहब्रह्म' नहीं बन पाते ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मनसः-जवेषु) मनसां प्रजवेषु मनांसि प्रजवन्ति मननं कुर्वन्ति येषां तेषु वेदार्थेषु, तदा (हृदा तष्टेषु) हृदयस्थबुद्ध्या निष्पादितेषु निदिध्यासितेषु वेदार्थेषु (सखायः-ब्राह्मणाः) समानख्यानाः समानज्ञानवन्तो ब्राह्मणाः (संयजन्ते) वेदार्थेषु सङ्गच्छन्ते वेदार्थेषु साङ्गत्यं भजन्ते (अत्र-अह-त्वं विजहुः) अत्र वेदार्थज्ञानप्रसङ्गेऽसखायमब्राह्मणमज्ञातारं खलु ते विद्वांसः सङ्गताः सर्वथा त्यजन्ति तं नाद्रियन्ते, यतः (वेद्याभिः-त्वे-ओहब्रह्माणः-विचरन्ति-उ) वेदितव्याभिः प्रवृत्तिभिरेके येषामूहमूहनीयं ब्रह्म वेदज्ञानं ते वेदार्थज्ञानेषु नितान्तं विचरन्ति-प्रविशन्ति। अर्थोऽयं निरुक्तानुसारी [निरु० १३।१३] ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When scholars in close friendly association join in intellectual meets organised with careful thought and heartfelt good intentions, even there, some they leave aside as ignorant while others, scholars of valuable subjects, actively move on with discussions of latest knowledge worth attaining.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पवित्र मन व तीक्ष्ण बुद्धीद्वारे वेदाचे ज्ञान साक्षात् होते. जे तर्क व अनुमान करणारे विद्वान असतात ते त्यात प्रवेश करू शकतात, इतर अज्ञानी नव्हे. ॥८॥

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    Intellectual keep their company

    Word Meaning

    (सखाय: ब्राह्मणा: हृदा तष्टेषु) समान योग्यता वाले विद्वत् गण हृदय से एक साथ होने की चेष्टा करते हैं (मनस: जवेषु यत् संयजन्ते) वेदों के विद्या ज्ञान के निरूपण परीक्षणके लिए एकत्र होते हैं.(अत्र त्वं वेद्याभि: वि जुहु: ) तब कुछ व्यक्तियो की अरुचि के कारण उन का सम्पर्क छोड देते हैं (अह ओह्ब्रह्माण: उ त्वे विचरन्ति) और कुछ विद्या वेदादि से ज्ञान की प्रगति मे लगे रहते हैं.

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