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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 76 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 76/ मन्त्र 6
    ऋषिः - जरत्कर्ण ऐरावतः सर्पः देवता - ग्रावाणः छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    भु॒रन्तु॑ नो य॒शस॒: सोत्वन्ध॑सो॒ ग्रावा॑णो वा॒चा दि॒विता॑ दि॒वित्म॑ता । नरो॒ यत्र॑ दुह॒ते काम्यं॒ मध्वा॑घो॒षय॑न्तो अ॒भितो॑ मिथ॒स्तुर॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भु॒रन्तु॑ । नः॒ । य॒शसः॑ । सोतु॑ । अन्ध॑सः । ग्रावा॑णः । वा॒चा । दि॒विता॑ । दि॒वित्म॑ता । नरः॑ । यत्र॑ । दु॒ह॒ते । काम्य॑म् । मधु॑ । आ॒ऽघो॒षय॑न्तः । अ॒भितः॑ । मि॒थः॒ऽतुरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भुरन्तु नो यशस: सोत्वन्धसो ग्रावाणो वाचा दिविता दिवित्मता । नरो यत्र दुहते काम्यं मध्वाघोषयन्तो अभितो मिथस्तुर: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भुरन्तु । नः । यशसः । सोतु । अन्धसः । ग्रावाणः । वाचा । दिविता । दिवित्मता । नरः । यत्र । दुहते । काम्यम् । मधु । आऽघोषयन्तः । अभितः । मिथःऽतुरः ॥ १०.७६.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 76; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यशसः-ग्रावाणः) यशस्वी विद्वान् (नः) हमारे लिए (अन्धसः सोतु) आध्यानीय-भलीभाँति ध्यान करने योग्य परमात्मा के उपासनीय स्वरूप को (भुरन्तु) उपदिष्ट करें (दिवित्मता) दीप्तिवाली (दिविता) दिव्य (वाचा) वेदवाणी के द्वारा उपदेश करें (यत्र) जिसमें स्थित (काम्यं मधु) कमनीय ज्ञानमधु को (नरः) जीवन्मुक्त पुरुष (दुहते) दुहते हैं-निकालते हैं (मिथस्तुरः) परस्पर शीघ्रता करते हुए (आघोषयन्तः) सर्वतः घोषित करते हुए, प्रसिद्ध करते हुए वर्तते हैं ॥६॥

    भावार्थ

    जीवन्मुक्त जन ध्यान करने योग्य परमात्मा के स्वरूप को दिव्यवाणी वेद के द्वारा समझाते हैं, जिस वेदवाणी में ज्ञानमधु भरा हुआ है, यह घोषित करते हुए उसे प्रकट करते हैं ॥६॥

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    विषय

    मेघवत् विद्वान् उपदेष्टाओं के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    मेघ जिस प्रकार (अन्धसः सोतु) अन्न के उत्पादक जल को धारण और प्रदान करते हैं उसी प्रकार (यशसः) यशस्वी (ग्रावाणः) उत्तम उपदेष्टा जन (अन्धसः) प्राणधारक अन्न के (सोतु) रस को (भुरन्तु) प्राप्त करें और औरों को भी प्रदान करें (यत्र) जिसमें (नरः) मनुष्य (दिविता) उत्तम कामना से प्रेरित होकर (दिवित्मता वाचा) दीप्तियुक्त, स्फूर्त्तिजनक वाणी से (मिथस्तुरः) परस्पर मिलकर अति वेगवान् होकर (अभितः आघोषयन्तः) सब ओर आघोषित वा ज्ञानोपदेश करते हुए (काम्यम्) कामना करने योग्य (मधु) मधुर ज्ञान (दुहते) प्राप्त करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जरत्कर्ण ऐरावतः सर्प ऋषिः॥ ग्रावाणो देवताः॥ छन्दः- १, ६, ८ पादनिचृज्जगती। २, ३ आर्चीस्वराड् जगती। ४, ७ निचृज्जगती। ५ आसुरीस्वराडार्ची निचृज्जगती॥

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    विषय

    ज्ञान के तीन परिणाम

    पदार्थ

    [१] (यशसः) = यशस्वी (ग्रावाणः) = ज्ञानोपदेष्टा आचार्य [ग्रावाणः विद्वांसः श० ३ । ९ । ३ । १४] (न:) = हमें (अन्धसः) = सोम के (सोतु) = उत्पादन के द्वारा (भरन्तु) = पोषित करनेवाले हों । इनका उपदेश हमें सोमरक्षण के लिये प्रेरित करके इन्हीं की तरह यशस्वी व ज्ञानी बनाये । सोमरक्षण का परिणाम इनके जीवन में ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ज्ञान के पोषण के रूप में हुआ और कर्मेन्द्रियों के द्वारा यशस्वी कार्यों को सिद्ध करने के रूप में। इसी प्रकार हम भी सोमरक्षण से ज्ञान व यश को प्राप्त करनेवाले हों । [२] ये ज्ञानोपदेष्टा आचार्य (दिवित्मता) = दीप्तिमती, ज्ञान की दीप्तिवाली, (वाचा) = वाणी से (दिविता) = दीप्तिमाता में, ज्ञान के प्रकाश में हमारा धारण करें। इनकी वाणियाँ हमें ज्ञान देनेवाली हों। ये हमें उस ज्ञान के प्रकाश में स्थापित करें, [क] (यत्र) = जहाँ कि (नरः) = प्रगतिशील व्यक्ति (काम्यम्) = चाहने योग्य (मधु) = माधुर्य का (दुहते) = अपने में पूरण करते हैं। ज्ञान से मनुष्य का जीवन मधुर बनता है, उनके जीवन में किसी प्रकार की कटुता नहीं रहती । [ख] इस ज्ञान में स्थापित करें, जिसमें कि नर (अभितः) = दिन के दोनों ओर, अर्थात् प्रातः - सायं (आघोषयन्तः) = प्रभु के गुणों का, स्तुति - वचनों का उच्चारण करनेवाले होते हैं। ज्ञान मनुष्य के अन्दर विशिष्ट भक्ति को पैदा करनेवाला होता है 'ज्ञानाद् ध्यानं विशिष्यते ' । [ग] उस ज्ञान में स्थापित करें जिस ज्ञान से (मिथस्तुरः) = परस्पर मिल करके शीघ्रता से कार्य करनेवाले होते हैं [मिथः त्वरमाण्यः सा० ] ज्ञानी लोग मिलकर अपने-अपने कार्यभाग को सुचारुरूपेण करते हुए कार्यों को शीघ्रता से सिद्ध करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से वह ज्ञान प्राप्त होता है जो कि हमारे जीवनों को माधुर्य से पूर्ण बनाता है, हमें प्रभु-प्रवण करता है और मिलकर शीघ्रता से कार्यों को सिद्ध करनेवाला बनाता है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यशसः-ग्रावाणः) यशस्विनः ‘अकारो मत्वर्थीयः’ विद्वांसः “विद्वांसो ग्रावाणः” [श० ३।९।३।१४] (नः-अन्धसः-सोतु-भुरन्तु) अस्मभ्यमाध्यानीयस्य परमात्मनः स्तोतव्यमुपासनीयं स्वरूपं भरन्तु “उकारश्च्छान्दसः” (दिवित्मता दिविता वाचा) दीप्तिमत्या दीव्यया वेदवाचा धारयन्तु-उपदिशन्तु (यत्र) यस्यां स्थितं (काम्यं मधु नरः-दुहते) कमनीयं ज्ञानमधु जीवन्मुक्ता पुरुषाः “नरो ह वै देवविशः” [जै० १।८९] दुहन्ति-निःसारयन्ति (मिथस्तुरः-अभितः-आघोषयन्तः) परस्परं शीघ्रतां कुर्वन्तः सर्वतो घोषयन्तः प्रसिद्धं कुर्वन्तो वर्त्तन्ते ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the yajakas, creators of soma, bear and bring that nectar of honour and energy wherein, inspired by the heavenly voice of divinity rising to the skies, enlightened people together in unison distil the honey sweets of cherished love and fulfilment of life, their ecstasy resounding all round.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवनमुक्त लोक ध्यान करण्यायोग्य परमात्म्याच्या स्वरूपाला दिव्यवाणी वेदाद्वारे समजावितात. ज्या वेदवाणीत ज्ञानमधु भरलेला आहे. तो ते प्रकट करतात. ॥६॥

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