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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 79 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 79/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अग्निः सौचीको, वैश्वानरो वा, सप्तिर्वा वाजम्भरः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र मा॒तुः प्र॑त॒रं गुह्य॑मि॒च्छन्कु॑मा॒रो न वी॒रुध॑: सर्पदु॒र्वीः । स॒सं न प॒क्वम॑विदच्छु॒चन्तं॑ रिरि॒ह्वांसं॑ रि॒प उ॒पस्थे॑ अ॒न्तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । मा॒तुः । प्र॒ऽत॒रम् । गुह्य॑म् । इ॒च्छन् । कु॒मा॒रः । न । वी॒रुधः॑ । स॒र्प॒त् । उ॒र्वीः । स॒मम् । न । प॒क्वम् । अ॒वि॒द॒त् । शु॒चन्त॑म् । रि॒रि॒ह्वांस॑म् । रि॒पः । उ॒पऽस्थे॑ । अ॒न्तरिति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र मातुः प्रतरं गुह्यमिच्छन्कुमारो न वीरुध: सर्पदुर्वीः । ससं न पक्वमविदच्छुचन्तं रिरिह्वांसं रिप उपस्थे अन्तः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । मातुः । प्रऽतरम् । गुह्यम् । इच्छन् । कुमारः । न । वीरुधः । सर्पत् । उर्वीः । समम् । न । पक्वम् । अविदत् । शुचन्तम् । रिरिह्वांसम् । रिपः । उपऽस्थे । अन्तरिति ॥ १०.७९.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 79; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मातुः) उस माता परमात्मा के (प्रतरम्) प्रकृष्टतर-अत्युत्तम (गुह्यम्) गुप्त मोक्ष धाम को (इच्छन्) चाहता हुआ उपासक आत्मा (कुमारः-न) बालक के समान (उर्वीः-वीरुधः) बहुविध रचनविशेष से कार्य-कारण द्रव्यों की विरोहण करने योग्य भूमियों को (प्रसर्पत्) प्राप्त होता है (पक्वं शुचन्तम्) पके हुए शुभ्र (ससं न) अन्न की भाँति कर्मफल को (रिरिह्वांसम्) आस्वादन करते हुए को (रिपः-उपस्थे अन्ते) शरीरस्थान के अन्तर्गत (अविदत्) प्राप्त होता है ॥३॥

    भावार्थ

    उपासक आत्मा माता परमात्मा के आनन्दधाम मोक्ष का आस्वादन करने के लिए ऐसे प्राप्त होता है, जैसे कोई बालक कर्मानुसार युवति माता के आश्रय में सुखों को प्राप्त करता है ॥३॥

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    विषय

    शिशु के तुल्य आत्मा का वर्णन, पक्षान्तर में साधक योगी के आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    (कुमारः नः) क्रीड़ाशील छोटा बालक जिस प्रकार (मातुः गुह्यम्) आंखों से ओझल माता के छुपे रूप को (प्रतरम् इच्छन्) खूब चाहता हुआ (वीरुधः प्र सर्पत्) अनेक लताओं की ओर जाता है और माता को ढूंढता है। और ढूंढ कर (उपस्थे अन्तः) माता की गोद में चढ़ कर (पक्वं ससं न) पके अन्न के समान (शुचन्तं) अति उज्ज्वल दूध को (रिरिह्वासं) पीता हुआ अपने को (अविदत्) पाता है उसी प्रकार यह जीव आत्मा (कुमारः) अर्थात् रूप रस गन्ध आदि विषयों में क्रीड़ा-विहार करता हुआ (मातुः) माता के (प्र-तरम्) सर्वोत्कृष्ट (गुह्यं) गर्भाशय को (इच्छन्) चाहता हुआ और (प्रतरम् इच्छन्) खूब २ चाहता हुआ पहले (ऊर्वीः वीरुधः प्र-सर्पत्) अनेक लताओं को प्राप्त होता है अर्थात भूमि पर विविध रूप से उगने वाले अनेक स्थावर योनियों को प्राप्त होता है। और तब (रिपः उपस्थे अन्तः) वह अपने को भूमि की गोद में, भीतर (पक्वं ससं न) पके अन्न के समान (शुचन्तम्) अति उज्ज्वल शुक्ल रूप जल वा दुग्ध रूप अंश को (रिरिह्वांसं) चाटता वा पीता हुआ (अविदत्) पाता है। स्थावर योनि के अनन्तर जीवों से खाया जाकर फिर प्रथम पुरुष-देह में वीर्य रूप होकर, पुनः माता के गर्भाशय में शुक्रांश रूप से वृद्धि पाकर, माता की गोद में दूध पान करता और भूमि पर अन्न भी खाता और पक्व फलवत् अपने अनेक कर्मों के फलों का उपभोग भी करता है। (२) पक्षान्तर में—अध्यात्मसाधक योगी (कुमारः न) बालक के समान निर्लेप, निष्पाप होकर (मातुः) सब जगत् के निर्माता परमेश्वर के (गुह्यम्) गुहा, हृदय या बुद्धि में स्थित, स्व-बुद्धिमान संवेद्य, (प्र-तरम्) सर्वोत्कृष्ट, इस संसार-सागर से तरा देने वाले रूप को (इच्छन्) चाहता हुआ (ऊर्वीः वीरुधः प्रसर्पत्) अनेक विपरीत रूप से उठने वा उसे मोक्ष मार्ग से रोकने वाली अनेक, बाधाओं को पार करता है और वह (वीरुधः) विविध रूप से उत्पन्न करने वाली (ऊर्वीः) अनेक भोग भूमियों को (प्र सर्पत्) गुज़रता है। बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते गीता० ॥ वह बाद में (रिपः उपस्थे अन्तः) इस पृथिवी वा पार्थिव देह के ही गोद में, भीतर हृदय में (पक्वं ससं न) पके धान्य के सदृश (शुचन्तं) अति देदीप्यमान, शुद्ध, उज्ज्वल, प्रकाशस्वरूप, (रिरिह्वांसं) अनेक भोगों को भोगता हुआ अपने आप को धान्य की तरह से उत्पन्न होता और मरता हुआ (अविदत्) पाता है। सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः॥ काठकोपनि०॥ अथवा बहुत जन्म के बाद इस देह में ही कभी वह साधक अपने को पके धान के समान पाकर शुद्ध प्रभु का दर्शन कर अपने बन्धन को उसी प्रकार काट देता है जैसे कृषक पके धान को काट देता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा सप्तिर्वा वाजम्भरः। अग्निर्देवता॥ छन्द:-१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ४, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ आर्ची- स्वराट् त्रिष्टुप्। ७ त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    कन्द- शाक- अन्न फल

    पदार्थ

    [१] (स) = यह (मातुः) = इस पृथ्वी माता की (गुह्यम्) = गुहा में स्थित कन्द आदि पदार्थों को (प्रतरम्) = प्रकृष्टतया (इच्छन्) = चाहता हुआ (कुमारः न) = सब कुत्सित प्रवृत्तियों को मारते हुए के समान (उर्वी: वीरुधः) = इन फैलनेवाले पौधों की ओर (सर्पत्) = गति करता है, इन पर लगनेवाले शाक फलों को भोज्य पदार्थों के रूप में स्वीकार करता है। [२] सबसे उत्कृष्ट भोज्य पदार्थ तो पृथ्वी माता के गर्भ में उत्पन्न होनेवाले कन्द हैं जो कि मुनियों के मुख्य भोजन बनते हैं। इन के सेवन से राजस व तामस प्रवृत्तियाँ उत्पन्न ही नहीं होती। इनके बाद इन पौधों पर होनेवाले शाकों का क्रम आता है। ये भी हमारी शक्तियों का विस्तार करनेवाले होते हैं। [२] (न) = जैसे यह 'सौचीक अग्नि' (पक्वम्) = पके हुए अतएव (शुचन्तम्) = चमकते हुए (ससम्) = यव आदि सस्यों को (अविदत्) = प्राप्त करता है, उसी प्रकार (रिपः) = पृथिवी की (उपस्थे अन्तः) = गोद के अन्दर (रिरिह्वांसम्) = मूलों से,जड़ों से रस का आस्वादन लेते हुए इन वृक्षों को [अविदत्] प्राप्त करता है । इन वृक्षों के फलों को यह स्वीकार करता है। यहाँ पृथ्वी को 'रिप्' कहा है, इसकी गोद को विदीर्ण करके वृक्ष बाहर आ जाते हैं [rip = रिप्] आकाश में इनकी शाखाएँ शयन करती हैं एवं इनका मूल माता के उत्संग में होता है, शिखर द्युलोक रूप पिता की गोद में। एक प्रभु-भक्त इन वृक्षों के फलों का सेवन करता है और उनके अन्दर प्रभु की रचना के महत्त्व को देखता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु-भक्तों के भोजन 'कन्द, शाक, फल व अन्न' ही होते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मातुः प्रतरं गुह्यम्-इच्छन्) तस्य परमात्मनो मातृभूतस्य प्रकृष्टतरं गुप्तं मोक्षधाम वाञ्छन्-उपासक आत्मा (कुमारः-न उर्वीः-वीरुधः-प्रसर्पत्) बाल इव बहुविधानि रचनाविशेषेण कार्यकारणद्रव्याणां विरोहणी योग्यभूमिः “वीरुत्सु सत्तारचनाविशेशेषु निरुद्धेषु कार्यकारणद्रव्येषु” [ऋ० १।६७।५ दयानन्दः] प्राप्नोति (पक्वं शुचन्तं ससं न) पक्वं शुभमन्नमिव कर्मफलम् (रिरिह्वांसं रिपः-उपस्थे-अन्तः) आस्वादयन्तं पृथिव्याः-उपस्थे-शरीरस्थाने-अन्तर्गते प्राप्नोति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Loving and seeking the ultimate mystery of Agni, mother spirit of life and human evolution, the seeker comes like an innocent child moving up silently by and along the various folds of earthly existence, ultimately reaching the centre core of the mystery and attains the radiant presence deliciously ecstatic like the ripest fruit of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा एखादा बालक कर्मानुसार युवती मातेच्या कुशीत सुख प्राप्त करतो तसे उपासक आत्मा माता परमेश्वराच्या आनंद धाम मोक्षाचे आस्वादन करतो. ॥३॥

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