ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 79/ मन्त्र 5
ऋषिः - अग्निः सौचीको, वैश्वानरो वा, सप्तिर्वा वाजम्भरः
देवता - अग्निः
छन्दः - आर्चीस्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यो अ॑स्मा॒ अन्नं॑ तृ॒ष्वा॒३॒॑दधा॒त्याज्यै॑र्घृ॒तैर्जु॒होति॒ पुष्य॑ति । तस्मै॑ स॒हस्र॑म॒क्षभि॒र्वि च॒क्षेऽग्ने॑ वि॒श्वत॑: प्र॒त्यङ्ङ॑सि॒ त्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठयः । अ॒स्मै॒ । अन्न॑म् । तृ॒षु । आ॒ऽदधा॑ति । आज्यैः॑ । घृ॒तैः । जु॒होति॑ । पुष्य॑ति । तस्मै॑ । स॒हस्र॑म् । अ॒क्षऽभिः॑ । वि । च॒क्षे॒ । अग्ने॑ । वि॒श्वतः॑ । प्र॒त्यङ् । अ॒सि॒ । त्वम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अस्मा अन्नं तृष्वा३दधात्याज्यैर्घृतैर्जुहोति पुष्यति । तस्मै सहस्रमक्षभिर्वि चक्षेऽग्ने विश्वत: प्रत्यङ्ङसि त्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठयः । अस्मै । अन्नम् । तृषु । आऽदधाति । आज्यैः । घृतैः । जुहोति । पुष्यति । तस्मै । सहस्रम् । अक्षऽभिः । वि । चक्षे । अग्ने । विश्वतः । प्रत्यङ् । असि । त्वम् ॥ १०.७९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 79; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जो परमात्मा (अस्मै) इस जीवात्मा के लिए (तृषु) शीघ्र-तत्काल-जन्मसमय ही (अन्नम्) दुग्धरूप आहार को (आदधाते) माता के स्तनों में स्थापित करता है तथा वनस्पतियों में रखता है (आज्यैः-घृतैः) प्राणों से और भिन्न-भिन्न तेजों से (तस्य) तम् (जुहोति-पुष्यति) अपनी शरण देता है और पोषण करता है। (अग्ने) हे परमात्मन् ! (सहस्रम्-अक्षभिः) अनन्त व्याप्त दर्शनशक्तियों से (विचक्षे) विशिष्टरूप से देखता जानता है (त्वं विश्वतः प्रत्यङ्-असि) तू सर्वत्र साक्षात् विराजमान है ॥५॥
भावार्थ
जैसे जीवात्मा संसार में जन्म लेता है, उसी समय से तुरन्त ही परमात्मा उसके आहार की व्यवस्था करता है। माता के स्तनों में दूध देता है, वनस्पतियों में रस देता है तथा प्राणों और जीवनप्रद तेज प्रभावों से बढ़ाता है और पुष्ट करता है तथा अपनी अनन्त ज्ञानदृष्टियों से सब कुछ जानता है और सर्वत्र विराजमान है ॥५॥
विषय
कृपालु, परमेश्वर की जीवों के प्रति अद्भुत दया-युक्त व्यवस्था। परमेश्वर का सहस्त्र रूप। पुरुषसूक्तोक्त वा गीतोक्त विराट् का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो परमेश्वर (अस्मै) इस जीव के उपकारार्थ (तृषु) अति शीघ्र, तुरन्त, चाहते ही, (अन्नम्) खाने योग्य माता के स्तनों में दूध आदि रूप से खाद्य पदार्थ को (आज्यैः घृतैः) चिकनाई और द्रव-तत्वों के सहित (आ दधाति) प्रदान करता है और जो भूमि पर अन्न को (आज्यैः घृतैः) तैल, मक्खन आदि चिकने पदार्थों को और नाना जलों सहित भूमि पर देता है, (जुहोति) आकाश से और भूमि से प्रदान करता है, माता के स्तन-ग्रन्थियों से आहुतिवत् देता है, और (पुष्यति) समस्त जीवों को पुष्ट करता और बढ़ाता है। (तस्मै) उसके (सहस्रम्) सहस्रों, विश्वरूप रूप को मैं (अक्षभिः) अपने अनेक इन्द्रियों से (विचक्षे) देखता हूं। हे (अग्ने) अग्निवत् सर्वप्रकाशक ! प्रभो ! (त्वम् प्रत्यङ् असि) तू साक्षात् तेजोमय, समस्त विश्व के प्रत्येक पदार्थ, प्रत्येक आत्मा में व्यापक अन्तर्यामी, प्रत्यक् (असि) है।
टिप्पणी
परमेश्वर का ‘सहस्र’ अर्थात् सहस्रों का सा रूप वा सब से अधिक बलशाली रूप विराट् ही है जिसको वेद ने कहा है “सहस्रशीर्षाः पुरुषःसहस्राक्षः सहस्रपात्।” अथवा - रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम् । बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥ गी० ११।२३॥ सर्वं वै सहस्रम्। शत०। यह सर्व, विश्वरूप प्रभु का है, जैसे— नमः पुरस्तादथपृष्ठतस्ते नमोस्तु ते सर्वत एव सर्व। अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोसि सर्वः॥ गी० ११। ४० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा सप्तिर्वा वाजम्भरः। अग्निर्देवता॥ छन्द:-१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ४, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ आर्ची- स्वराट् त्रिष्टुप्। ७ त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
परस्पर भावन
पदार्थ
[१] प्रभु ने यह भी एक विचित्र व्यवस्था की है मनुष्य अग्नि के लिये अन्न व घृत आदि की आहुति देता है और अग्नि पर्जन्य [= बादल] आदि के द्वारा वृष्टि कराता हुआ फिर से मनुष्य को अन्न प्राप्त कराता है और उसका पोषण करता है । इस प्रकार यह देवों व मनुष्यों का परस्पर भावन चलता है। (यः) = जो (अस्मै) इस अग्नि के लिये (अन्नम्) = अन्न को (तृषु) = शीघ्र (आदधाति) = स्थापित करता है और (घृतैः आज्यैः) = [घृ दीप्तौ ] दीप्त घृतों से (जुहोति) = आहुत करता है अग्रि उसका (पुष्यति) = पोषण करता है, (तस्मै) = उसके लिये (सहस्त्रं अक्षभिः) = हजारों आँखों से (विचक्षे) = [विपश्यति looks after] ध्यान करता है, अर्थात् उसके रक्षण के लिये सदा अप्रमत्त रहता है। [२] इस प्रकार उस प्रभु ने मनुष्य के पालन के लिये यह अद्भुत ही व्यवस्था की है। यही क्या, वास्तव में जिधर ही देखें उसी तरफ प्रभु की इस प्रकार की व्यवस्थाएँ दृष्टिगोचर होती हैं कि सर्वत्र उसकी महिमा दिखने लगती है। हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (त्वम्) = आप (विश्वतः) = सब ओर (प्रत्यङ्) = [प्रत्यगचनः ] अभिमुख गति करते हुए (असि) = हैं, सब ओर हमारी अनुकूलता से आप प्रवर्तमान हो रहे हैं। जिधर दृष्टि जाती है उधर ही आपकी महिमा दिखती है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ने यह भी विचित्र व्यवस्था की है कि मनुष्य यज्ञादि में अग्नि में अन्न व घृत को आहुत करता है और अग्नि, बादल वृष्टि व अन्नादि की उत्पत्ति के क्रम से मनुष्य का पोषण करता है।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यः) यः परमात्मा (अस्मै) एतस्मै जीवात्मने (तृषु-अन्नम्-आदधाति) क्षिप्रं सद्यः “तृषु क्षिप्रनाम” [निघ० ३।१५] अदनीयं पानीयमाहारं दुग्धरूपं मातृस्तने रसं वनस्पतिषु स्थापयति (आज्यैः-घृतैः-तस्मै जुहोति पुष्यति) प्राणैः “प्राणो वा आज्यम्” [तै० ३।८।१५।२३] भिन्न-भिन्नतेजोभिश्च तं विभक्तिव्यत्ययेन चटुकीं स्वीकरोति वर्धयति पोषयति (अग्ने) हे परमात्मन् ! (सहस्रम्-अक्षभिः) बहुभिरनन्तव्याप्तदर्शनशक्तिभिः (विचक्षे) विशिष्टं पश्यसि जानासि (त्वं विश्वतः प्रत्यङ्-असि) सर्वत्र साक्षाद्भूतोऽसि ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Whoever the person that readily and enthusiastically brings and offers food to this Agni, feeds the fire and raises the flames with ghrta and intensive oblations of havi, Agni watches and enlightens him with a thousand eyes and visions. O lord of light and life, Agni, you are always with us, all time, all round, with and within at the closest.
मराठी (1)
भावार्थ
जसा जीवात्मा या जगात जन्म घेतो त्याच वेळी ताबडतोब परमात्मा त्याच्या आहाराची व्यवस्था करतो. मातेच्या स्तनात दूध देतो. वनस्पतीमध्ये रस निर्माण करतो व प्राण आणि जीवनप्रद तेज प्रभावाने वाढवितो व पुष्ट करतो. आपल्या अनंत ज्ञानदृष्टीने सर्व काही जाणतो. तो सर्वत्र विराजमान असतो. ॥५॥
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