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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 79 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 79/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अग्निः सौचीको, वैश्वानरो वा, सप्तिर्वा वाजम्भरः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    किं दे॒वेषु॒ त्यज॒ एन॑श्चक॒र्थाग्ने॑ पृ॒च्छामि॒ नु त्वामवि॑द्वान् । अक्री॑ळ॒न्क्रीळ॒न्हरि॒रत्त॑वे॒ऽदन्वि प॑र्व॒शश्च॑कर्त॒ गामि॑वा॒सिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    किम् । दे॒वेषु॑ । त्यजः॑ । एनः॑ । च॒क॒र्थ॒ । अग्ने॑ । पृ॒च्छामि॑ । नु । त्वाम् । अवि॑द्वान् । अक्री॑ळन् । क्रीळ॑न् । हरिः॑ । अत्त॑वे । अ॒दन् । वि । प॒र्व॒ऽशः । च॒क॒र्त॒ । गाम्ऽइ॑व । अ॒सिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    किं देवेषु त्यज एनश्चकर्थाग्ने पृच्छामि नु त्वामविद्वान् । अक्रीळन्क्रीळन्हरिरत्तवेऽदन्वि पर्वशश्चकर्त गामिवासिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    किम् । देवेषु । त्यजः । एनः । चकर्थ । अग्ने । पृच्छामि । नु । त्वाम् । अविद्वान् । अक्रीळन् । क्रीळन् । हरिः । अत्तवे । अदन् । वि । पर्वऽशः । चकर्त । गाम्ऽइव । असिः ॥ १०.७९.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 79; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! तू (देवेषु) जीवन्मुक्त विद्वानों में (त्यजः-एनः) क्रोध तथा पाप (किं चकर्थ) क्या करता है? अर्थात् नहीं करता है (नु-अविद्वान् त्वां पृच्छामि) अविद्वान् होता हुआ तुझ से पूछता हूँ (अक्रीडन् क्रीडन् हरिः) न जानता हुआ या जानता हुआ तू संहर्ता (अत्तवे-अदन्) अपने में ग्रहण करने के लिए ग्रहण करता हुआ (असिः) द्राँती (पर्वशः) टुकड़े-टुकड़े कर (गाम्-इव) अन्न के पौधे को जैसे (विचकर्त) छिन्न-भिन्न कर देती है ॥६॥

    भावार्थ

    परमात्मा जीवन्मुक्त विद्वानों के निमित्त कोई क्रोध या अहित कार्य नहीं करता है। इस बात को अविद्वान् नहीं जान सकता, किन्तु वह जो संसार में जन्मा है, लीलया उसका संहार करके अपने में ले लेता है प्रत्येक अङ्ग का विभाग करके ॥६॥

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने देवेषु किं त्यजः-एनः-चकर्थ) हे अग्रणायक परमात्मन् ! देवेषु विद्वत्सु जीवन्मुक्तेषु कथं क्रोधः “त्यजः क्रोधनाम” निघं० (२।१३) तथा पापं न करोषि न कथमपीत्यर्थः (नु-अविद्वान् त्वां पृच्छामि) पुनस्त्वामहमविद्वान् पृच्छामि (अक्रीडन् क्रीडन् हरिः-अत्तवे-अदन्) अजानन्, जानन् संहर्ता स्वस्मिन् ग्रहणाय गृह्णन् सन् (असिः पर्वशः-गाम्-इव विचकर्त) यथा दात्रमन्नतरुम् “अन्नं वै गौः” [श० ४।३।४।२५] प्रतिपर्व छिनत्ति ॥६॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    An ignorant man, I ask you, Agni, whether among the divinities, in sport or not in sport, you subject men to sin, anger and aversion, since the omnipotent power, creator and destroyer, to swallow what is to be swallowed at the end, cuts things into particles like a knife cutting leather into pieces.

    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा जीवनमुक्त विद्वानांच्या निमित्त क्रोध किंवा अहित करत नाही. ही गोष्ट अविद्वान लोक जाणत नाहीत; परंतु जो जगात जन्माला आलेला आहे परमात्मा त्याचा लीलया संहार करतो व प्रत्येक अंगाचा सूक्ष्म भाग करून आपल्यात सामावून घेतो. ॥६॥

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