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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 79 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 79/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अग्निः सौचीको, वैश्वानरो वा, सप्तिर्वा वाजम्भरः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    विषू॑चो॒ अश्वा॑न्युयुजे वने॒जा ऋजी॑तिभी रश॒नाभि॑र्गृभी॒तान् । च॒क्ष॒दे मि॒त्रो वसु॑भि॒: सुजा॑त॒: समा॑नृधे॒ पर्व॑भिर्वावृधा॒नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विषू॑चः । अश्वा॑न् । यु॒यु॒जे॒ । व॒ने॒ऽजाः । ऋजी॑तिऽभिः । र॒श॒नाभिः॑ । गृ॒भी॒तान् । च॒क्ष॒दे । मि॒त्रः । वसु॑ऽभिः । सुऽजा॑तः । सम् । आ॒नृ॒धे॒ । पर्व॑ऽभिः । व॒वृ॒धा॒नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विषूचो अश्वान्युयुजे वनेजा ऋजीतिभी रशनाभिर्गृभीतान् । चक्षदे मित्रो वसुभि: सुजात: समानृधे पर्वभिर्वावृधानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विषूचः । अश्वान् । युयुजे । वनेऽजाः । ऋजीतिऽभिः । रशनाभिः । गृभीतान् । चक्षदे । मित्रः । वसुऽभिः । सुऽजातः । सम् । आनृधे । पर्वऽभिः । ववृधानः ॥ १०.७९.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 79; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वनेजाः) सम्भजनीय शरीर में उत्पन्न यह आत्मा (ऋजीतिभिः) सरल (रशनाभिः) अशनयोग्य प्रवृत्तियों द्वारा (गृभीतान्) गृहीत (विषूचः-अश्वान्) भिन्न-भिन्न विषयवाले इन्द्रियघोड़ों को (युयुजे) युक्त करता है-जोड़ता है (मित्रः) वह स्नेहकर्ता-रागी (वसुभिः) प्राणों के साथ (सुजातः) सुप्रसिद्ध हुआ (चक्षदे) ज्ञानवान् होता है-चेतन होता है (पर्वभिः) कालपर्वों से तथा स्वाङ्गपर्वों से तथा-अपने शरीरजोड़ों से (वावृधानः) बढ़ता हुआ (समावृधे) समृद्ध होता है-यौवन को प्राप्त होता है ॥७॥

    भावार्थ

    आत्मा शरीर के अन्दर प्राणों के साथ प्रसिद्ध हो जन्म लेता है और भोगप्रवृत्तियों में इन्द्रियों को लगाता है, धीरे-धीरे समय पाकर तथा अपने अङ्गों से पूर्ण आयु को प्राप्त होता है ॥७॥

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    विषय

    सूर्य के समान आत्मा का वर्णन। पक्षान्तर में अग्नि और वीर तेजस्वी का चन्द्र के तुल्य वर्णन।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (वनेजाः) तेजोमय प्रकाश में प्रकट होनेवाला सूर्य (ऋजीतिभिः) ऋजु-सरल मार्ग से जाने वाले (रशनाभिः) व्यापक शक्तियों सहित वा (ऋजीतिभिः) संतापदायक (रशनाभिः) व्यापक किरणों से (गृभीतान्) पकड़े हुए (वि-षूचः) सर्वत्र सब ओर पहुंचने वाले (अश्वान् युयुजे) व्यापक अन्धकार-नाशक प्रकाशमय किरणों को प्रेरित करता है और वह (सु-जातः) उत्तम रूप में प्रकट होकर (वसुभिः) आच्छादक किरणों वा पृथिव्यादि लोकों सहित (चक्षदे) आकाश में गति करता है, और (वावृधानः) बढ़ता हुआ (पर्वभिः) पर्वों से राशि चक्र के राशि २ पर वा जगत् के पालक किरणों से (समानृधे) समृद्ध होता है। इसी प्रकार (वने-जा:) यह आत्मा मातृगर्भ में जलों में, शुक्रों में उत्पन्न वा प्रकट होकर (ऋजीतिभिः) तापदायक (रशनाभिः) खाने वा भोगने की इच्छाओं वा कामनाओं से (गृभीतान्) वशीभूत (अश्वान्) भोग-साधन अश्ववत् इन्द्रियों को (युयुजे) देह में युक्त करता और प्रेरित करता है। वह (मित्रः) देह को मरने वा मृत्यु से बचाता हुआ (सुजातः) सुख से उत्पन्न होकर (वसुभिः) देह में वसे आठों प्राणों से (चक्षदे) गर्भ से बाहर स्खलित होता है, वह अनायास फिसल आता है। वह अनन्तर (ववृधानः) निरन्तर पोषण पाता हुआ (पर्वभिः) दिनों, पक्षों और मासों भौर वर्षों रूप काल के अवयवों से (समानृधे) सम्पन्न होता है। वा (पर्वभिः) पर्वों से दिनों दिन चन्द्र के तुल्य बढ़ता है। (३) अग्निपक्ष में अग्नि काष्ठों या वन में उत्पन्न होकर (अश्वान्) फैले २ हुए बड़े २ वृक्षों को लग जाता है, जो वृक्ष (ऋजीतिभिः रशनाभिः गृहीतान्) सीधी २ फैलती लताओं से आश्रित होते हैं। वह (वसुभिः) वायुओं से खूब बढ़ कर उनको (चक्षदे) खण्ड २ करता और पौरु २ पर बढ़ता है। (४) इसी प्रकार वीर अग्नि तुल्य तेजस्वी पुरुष अश्वों को रथ में जो सीधी रासों से बन्धे अश्वों को जोड़ता है, वह मित्रवत् सर्वस्नेही रक्षक होकर वसु अर्थात् प्रजाजनों और अध्यक्षों से आगे बढ़ता और (पर्वभिः) पर्वों से चन्द्र के तुल्य पालक जनों, अध्यक्षों से वा पालनकारी साधनों, सैन्यों से, वज्रादि शस्त्रास्त्रों से (वावर्धमानः) शत्रु सैन्यों को काटता हुआ, वा स्वयं बढ़ता हुआ (समा नृधे) सबके साथ समृद्ध होता है। इति चतुर्दशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा सप्तिर्वा वाजम्भरः। अग्निर्देवता॥ छन्द:-१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ४, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ आर्ची- स्वराट् त्रिष्टुप्। ७ त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अद्भुत इन्द्रियाश्व

    पदार्थ

    [१] (वनेजा) = [वने संभजने जातः] उपासना में ही निवास करनेवाला उपासक (ऋजीतिभिः) = [ऋजु+अत्] सरल मार्ग से गतिरूप (रशनाभिः) = लगामों के द्वारा (गृभीतान्) = ग्रहण किये हुए, वश में किये हुए (विषूचः) = [वि सु अच्] विविध दिशाओं में जानेवाले (अश्वान्) = इन्द्रिय रूप अश्वों को (युयुजे) = अपने इस शरीर रूप रथ में जोतता है । जब हम अपने जीवन का सूत्र 'ऋजुता' को बना लेते हैं तभी इन्द्रियों को वश में कर पाते हैं। (ऋजुता) = सरलता ही ब्रह्म प्राप्ति का मार्ग है, कुटिलता मृत्यु का मार्ग है। [२] इस ऋजुता के मार्ग से चलता हुआ, इन्द्रियों को वश में करनेवाला पुरुष (वसुभिः) = निवास के लिये आवश्यक तत्त्वों से (सुजातः) = उत्तम प्रादुर्भाववाला और अतएव (मित्र:) = [प्रमीतेः त्रायते] अपने को रोगों व मृत्यु से बचानेवाला (चक्षदे) = [ शकली करोति] वासनाओं को टुकड़े-टुकड़े कर देता है । वासनाओं को विनष्ट करके, (पर्वभिः) = अपने में सद्गुणों पूरण से [पर्व पूरणे] (वावृधान:) = खूब वृद्धि को प्राप्त होता हुआ (समावृधे) = सम्यक् जीवनयात्रा को पूर्ण करता है [ऋष् = to accomplish] । [३] वस्तुतः उस प्रभु ने ये इन्द्रियरूप अश्व भी अद्भुत ही प्राप्त कराये हैं । अवशीभूत होने पर ये हमारे महान् पतन का कारण बनते हैं [इन्द्रियाणां प्रसंगेन दोषमृच्छत्यसंशयम्] । इन्हीं को वश में कर लेने पर ये हमें सिद्धि व सफलता तक ले चलनेवाले होते हैं। के

    भावार्थ

    भावार्थ - जीवन का सूत्र 'सरलता' को बनाकर हम इन्द्रियाश्वों को वश में करते हैं। वशीभूत इन्द्रियाँ हमें जीवनयात्रा को सफलता से पूर्ण करने में समर्थ करती हैं। सूक्त के प्रारम्भ में कहते हैं कि शरीर में जबड़ों का कार्य प्रभु की महिमा को प्रकट कर रहा है । [१] मस्तिष्क, आँखें व जिह्वा भी उसकी महिमा को व्यक्त करती हैं, [२] जिह्वा जिन 'कन्द, शाक, अन्न व फलों' को खाती है उन सब में अद्भुत रचना चातुरी का दर्शन होता है, [३] यह भी एक विचित्र व्यवस्था है कि आनेवाला सन्तान माता-पिता की क्षीणता का कारण होता है, [४] 'मनुष्य अग्नि को खिलाता है, अग्नि मनुष्य को' इस प्रकार यह व्यवस्था भी अद्भुत है, [५] प्रकृति के विषय में जरा-सी गलती होती है और कष्ट आता है, [६] इन गलतियों से अपने को बचाकर ही हम जीवनयात्रा को पूर्ण कर पाते हैं, [७] इस लोक में भी हम उत्तम बनते हैं-

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वनेजाः) सम्भजनीये शरीरे जातोऽयमात्मा (ऋजीतिभिः-रशनाभिः-गृभीतान्) सरलाभिरशनयोग्याभिर्भोगप्रवृत्तिभिर्गृहीतान् (विषूचः-अश्वान् युयुजे) भिन्न-भिन्नविषयकान्-इन्द्रियाश्वान् योजयति (मित्रः-वसुभिः सुजातः-चक्षदे) स स्नेहकर्ता रागी प्राणैः सह प्रसिद्धो ज्ञानी भवति (पर्वभिः-वावृधानः समावृधे) कालपर्वभिर्वर्धमानः स्वाङ्गैरपि सम्यगृद्धिमाप्नोति ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Fortunately born in a beautiful body, the soul uses various and versatile senses controlled by simple and natural operations of the will and intelligence and, loving and enlightened by Agni, cosmic lord omniscient, grows stage by stage with pranic energies and prospers.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आत्मा शरीरात प्राणांसह जन्म घेतो व इंद्रियांना भोग प्रवृत्तीमध्ये लावतो व हळूहळू आपले आयुष्य पूर्णपणे जगतो. ॥७॥

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