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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 80 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 80/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा देवता - अग्निः छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ग्निर्दा॒द्द्रवि॑णं वी॒रपे॑शा अ॒ग्निॠषिं॒ यः स॒हस्रा॑ स॒नोति॑ । अ॒ग्निर्दि॒वि ह॒व्यमा त॑ताना॒ग्नेर्धामा॑नि॒ विभृ॑ता पुरु॒त्रा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । दा॒त् । द्रवि॑णम् । वी॒रऽपे॑शाः । अ॒ग्निः । ऋषि॑म् । यः । स॒हस्रा॑ । स॒नोति॑ । अ॒ग्निः । दि॒वि । ह॒व्यम् । आ । त॒ता॒न॒ । अ॒ग्नेः । धामा॑नि । विऽभृ॑ता । पु॒रु॒ऽत्रा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्दाद्द्रविणं वीरपेशा अग्निॠषिं यः सहस्रा सनोति । अग्निर्दिवि हव्यमा ततानाग्नेर्धामानि विभृता पुरुत्रा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः । दात् । द्रविणम् । वीरऽपेशाः । अग्निः । ऋषिम् । यः । सहस्रा । सनोति । अग्निः । दिवि । हव्यम् । आ । ततान । अग्नेः । धामानि । विऽभृता । पुरुऽत्रा ॥ १०.८०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 80; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (वीरपेशाः-अग्निः-ह) वीरस्वरूप परमात्मा निश्चय (ऋषिं द्रविणं दात्) अपने द्रष्टा के लिए मौक्षैश्वर्य देता है (यः सहस्रा सनोति) जो बहुत स्तुतिवचनों को उसके लिए समर्पित करता है (अग्निः) परमात्मा (दिवि) मोक्षधाम में (हव्यं आततान) स्तुतिवचनों का विस्तार करता है (अग्नेः-धामानि) परमात्मा के व्याप्त धाम (पुरुत्रा विभृता) बहुत नियत हैं ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा अपने द्रष्टा-दर्शन के इच्छुक के लिए मौक्षैश्वर्य देता है, जो उसके लिए बहुत सुखी वचनों को समर्पित करता है, उन स्तुतियों का विस्तृत फल मोक्षप्राप्ति है ॥४॥

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    Bhajan

      वैदिक मन्त्र
    अग्निर्दाद द्रविणं वीरपेशा:,अग्निर्ऋषिं य: सहस्त्रा सनोति। 
    अग्निर्दिवि हव्यमाततान, अग्नेर्धामानि बिभृता पुरुत्रा।। 
                                            ऋ• १०.८०.४
                        वैदिक भजन ११४८ वां
                                राग खमाज
                  गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर
                               ताल अध्धा
    आओ अग्नि की महिमा का कर लें
     कर लें हम गुणगान 
    ज्योतिर्मय अग्नि प्रभु हैं महान(२) 
    वीर स्वरूप है प्रभु वीरपेशा 
    वीरता जिसका प्रमाण 
    प्रभु का हम कर लें गुणगान (२) 
    शत्रु प्रकंपित करने वाला 
    विक्रमशिल प्रथित गुणवाला 
    आंतर बाह्य शत्रुओं का वह 
    करता नहीं परित्राण ।। 
    प्रभु का हम कर ले गुणगान (२) 

     'द्रविण' प्रभु हमें देता रहता 
    धान धनादि सेवित करता 
    शक्तिमान प्रभु देता है बल 
    कर्म करे निष्काम 
    प्रभु का कर लें हम गुणगान(२) 
    धन का उपार्जन बल का उपार्जन
     ना समझी का हम हैं कारण 
    प्रकृति नियमों में ढ़ाली प्रभु ने 
    ना कर तू अभिमान
     प्रभु का कर ले हम गुणगान(२) 
     आओ........ 
                                 भाग २
    आओ अग्नि की महिमा का कर लें
     कर लें हम गुणगान
    ज्योतिर्मय अग्नि प्रभु हैं महान (२) 
    वीर स्वरूप है प्रभु ,वीरपेशा' 
    वीरता जिसका प्रमाण
     प्रभु का हम कर लें गुणगान (२) 

    युग- निर्माता ऋषि हमें देता 
    जो आध्यात्मिक धारा में खेता 
    करते मार्गदर्शन संसार का 
    देते अगणित ज्ञान 
    प्रभु का कर लें हम गुणगान (२) 

    अग्नि प्रभु का है चमत्कार 
    मेघरूप जल नभ है आगार 
    वृष्टि रूप में पुनः बरसाकर 
    सींचता जग का प्राण 
    प्रभु का कर ले हम गुणगान (२) 

    है  प्रभु- लीला अपरम्पार 
    हर वस्तु का प्रभु है आधार 
    सब  धामों में प्रभु का निवास है 
    वश में रखे ब्रह्माण्ड 
    प्रभु का कर ले हम गुणगान (२) 

    करते हैं हम प्रभु से (ये) प्रार्थना 
    और करते हैं विद्रवित वन्दना 
    ना भूलें प्रभु के उपकार 
    रहें कृतज्ञ निकाम 
    प्रभु का कर लें हम गुणगान।। 
    आओ........ 
                              २४.९.२०२३
                               ११.२५ रात्रि
                                शब्दार्थ:-
    वीरपेशा= वीर स्वरूप वाला
    प्रकंपित= कंपायमान करना
    विक्रमशील= वीरतावाला, शक्तिवाला
    प्रथित= विस्तार
    परित्राण= पूरी रक्षा, पूरा बबचाव
    द्रविण= धन, बल आदि
    उपार्जन=कमाना
    खेता= पतवार चलाना
    आगार= रहने का स्थान
    विद्रवित= पूरी तरह जिला
    कृतज्ञ= एहसान मानने वाला
    निकाम= हद से बढ़कर, बहुत अधिक, दिल भरके

      🕉🧘‍♂️द्वितीय श्रृंखला का १४१ वां वैदिक भजन और अब तक का ११४८ वां वैदिक भजन 🙏   

    🕉वैदिक भजन श्रोताओं को हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएं ! 🎧🙏
     

    Vyakhya

    ईश- महिमा
    आओ,भाइयों! अग्नि का महिमा- गान करें अग्नि तुल्य ज्योतिर्मय प्रभु के महिमामय गुणों एवं कार्यों का वर्णन करें। वह प्रभु 'वीरपेशा' है,वीर रूपवाला है। वीर उसे कहते हैं जो विशेष रूप से शत्रुओं को प्रकंपित  करने वाला एवं विक्रमशील  हो। प्रभु हमारे समस्त बाह्य एवं आंतरिक शत्रुओं को प्रकंपित करता है अतएव महान विक्रमी है। वह हमें द्रविण देता है, सर्वविध धन-धान्य आदि ऐश्वर्य एवं बल प्रदान करता है। यह अभिमान मत करो कि कृषि, व्यापार आदि से धन का उपार्जन तथा व्यायाम, पौष्टिक भोजन आदि से बल का उपार्जन तो हम स्वयं करते हैं। जिस धन का अर्जयिता तुम स्वयं को समझ रहे हो उसे प्रभु ने पहले ही प्रकृति में बखेरा हुआ है और जिस बल का संचयकर्ता तुम स्वयं को मान रहे हो वह बल संकट के समय निस्तेज हो जाता है ,यदि प्रभु मनों में बल का संचार न करे तो।
    अग्नि प्रभु हमें ऐसे युग- निर्माता ऋषि प्रदान करता है ,जो अपनी आध्यात्मिक धाराओं से समस्त विश्व को आप्लावित कर देते हैं, जो अपनी सूक्ष्म दृष्टि से सब कुछ हस्तामलकवत् साक्षात् कर लेते हैं और  संसार का मार्गदर्शन करते हैं और शास्त्रों ज्ञान प्रदान करते हैं। अग्नि प्रभु का यह चमत्कार भी देखा कि वह आकाश में मेघ रूप जल को विस्तीर्ण करता है। नियमित रूप से सागर नदी- सरोवर आदि का जल सूर्य के ताप से वाष्प बनकर ऊपर पहुंच मेघाकार हो जाता है,और वह वृष्टि के रूप में पुनः हमें प्राप्त हो जाता है, यह सब उस प्रभु की लीला सचमुच अपरम्पार है। साथियो देखो, अग्नि प्रभु के धाम सर्वत्र स्थित हैं। वह किसी एक धाम में नहीं रहता किन्तु ब्रह्माण्ड के सभी धामों में उसका निवास है। उसके तेजस्वी धाम भी सर्वत्र विद्यमान हैं। आओ ! उसे प्रभु से हम प्रार्थना करें,उसकी वन्दना करें और उसके उपकारों का स्मरण करते हुए उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करें। 

     

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    विषय

    तेजस्वी अग्रणी प्रधान पुरुष के कर्त्तव्य। और देहस्थ वीर्याग्नि का वर्णन।

    भावार्थ

    (अग्निः) वह तेजस्वी अग्रणी नायक प्रधान पुरुष वा प्रभु ही (द्रविणं दात्) नाना धन और ऐश्वर्य प्रदान करता है। वह (अग्निः) तेजस्वी पुरुष ही (वीर-पेशाः) वीर के समान सर्वप्रेरक रूप (यः) जो (ऋषिम्) ज्ञानद्रष्टा जन को (सहस्रा सनोति) सहस्रों वेदवाणियां प्रदान करता है वही (अग्निः) सर्व प्रथम नेता, सर्व प्रथम नेता, तेजोमय पुरुष, प्रभु (दिवि) आकाश वा सूर्य में (हव्यम्) अग्नि में चरु, और जाठर में अन्न के समान आदान योग्य जल वा तेज को द्रवरूप में विस्तृत कर रहा है। वा वही विशाल आकाश में उपादेय प्रकृति-तत्व को विस्तृत करता है। (अग्ने पुरुत्रा धामानि) अग्नि के अनेकधाम, तेज और लोक (विभृता) विशेष रूप से धारण किये जाते हैं। (२) अध्यात्म में—(वीर-पेशाः) विविध शक्तियों का प्रेरक वीर्यरूप अग्नि (द्रविणं) द्रुत होकर बहने वाले वीर्यांश तेज को प्रदान करता है, वही (ऋषिम्) तत्वज्ञानी को (सहस्रा) अनेक बल, अनेक ज्ञान और सहस्रों वर्षों वा दिनों का दीर्घ जीवन प्रदान करता है। वह अग्नि रूप वीर्य ही (दिवि) मस्तक में (हव्यम्) अन्न के तुल्य भोजन देता है, मस्तक का भोजन वीर्य है। वीर्य के अनेक तेज वा धारक-पोषक बल शरीर में धारण किये जाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    'वीरपेशा अग्नि'

    पदार्थ

    [१] (वीरपेशा:) = उपासकों को वीर बनानेवाला [पेशस् = form] (अग्निः) = अग्रेणी प्रभु (द्रविणं दात्) = उपासकों के लिये जीवनयात्रा के लिये आवश्यक धन को देता है और (यः) = जो (सहस्रा सनोति) = इन सहस्र संख्याक धनों का दान करता है उसे (अग्निः) = वे प्रभु (ऋषिम्) = ऋषि व तत्त्वद्रष्टा बनाते हैं । प्रभु धन देते हैं, देते वे इसलिए हैं कि इस धन से हम लोकहित के कार्य कर सकें । इन धनों का विनियोग हमें अपने महलों को खड़ा करने में नहीं करना है। इस धन को न देकर जो इसे स्वयं लादे रखता है वह अल्पज्ञ है। धन पर हम आरूढ़ हों, यह हमारे पर आरूढ़ न हो जाए। [२] (अग्निः) = वे प्रभु (हव्यम्) = हमारे से दिये गये हव्य पदार्थों को (दिवि) = सम्पूर्ण द्युलोक में (अततान) = विस्तृत कर देते हैं। यह भी प्रभु की अद्भुत महिमा है कि उन्होंने इस भौतिक अग्नि में वह छेदक-भेदक शक्ति रखी है कि इसमें डाले गये हव्य पदार्थों को वह अत्यन्त सूक्ष्म अदृश्य से कणों में विभक्त करके सारे वायुमण्डल में फैला देता है। [३] (अग्नेः) = उस अग्रेणी प्रभु के (धामानि) = तेज (पुरुत्रा) = बहुत स्थानों में (विभृता) = विविधरूपों में भृत हुए हैं। सूर्य-चन्द्रमा में ये 'प्रभा' के रूप से हैं, अग्नि में ज्योति के रूप में हैं। वायु में गति रूप में हैं तो पृथिवी में दृढ़ता के रूप में हैं। तेजस्वियों में ये तेजरूप से हैं, बलवानों में बल के रूप में तथा बुद्धिमानों में बुद्धि के रूप में ये विद्यमान हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही सब ऐश्वर्यों को देते हैं। अग्नि आदि में प्रभु ने ही अद्भुत भेदक शक्ति को रखा है और सर्वत्र प्रभु के तेज ही पिण्डों को विभूतिमय बना रहे हैं ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वीरपेशाः-अग्निः-ह) वीरस्वरूपः परमात्मा निश्चयेन (द्रविणं ऋषिं दात्) मोक्षैश्वर्यम्-ऋषये “विभक्तिव्यत्ययेन-चतुर्थीस्थानी द्वितीया” स्वकीये द्रष्ट्रे ददाति (यः सहस्रा सनोति) यो बहूनि स्तुतिवचनानि तस्मै परमात्मने प्रयच्छति (अग्निः) परमात्मा (दिवि हव्यं आततान) ऋषिणा दातव्यं स्तुतिवचनं मोक्षधामनि विस्तारयति (अग्नेः-धामानि पुरुत्रा विभृता) परमात्मनो व्याप्तानि स्थानानि बहुत्र धृतानि सन्ति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, heroic in form and pride of the brave, gives wealth, honour and excellence and all that is valuable in the world. Agni rewards the sage, seer and visionary scholar a thousand ways. Agni raises and diffuses the fragrance of oblations to the heavens. Indeed the presence and pervasions of Agni are boundless, infinitely spread out.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा आपल्या द्रष्ट्यासाठी मोक्षाचे ऐश्वर्य देतो. तो त्याला अत्यंत सुखकारक वाणी देतो. त्या स्तुतीचे फळ मोक्षप्राप्ती आहे. ॥४॥

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