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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 80 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 80/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ग्निं विश॑ ईळते॒ मानु॑षी॒र्या अ॒ग्निं मनु॑षो॒ नहु॑षो॒ वि जा॒ताः । अ॒ग्निर्गान्ध॑र्वीं प॒थ्या॑मृ॒तस्या॒ग्नेर्गव्यू॑तिर्घृ॒त आ निष॑त्ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । विशः॑ । ई॒ळ॒ते॒ । मानु॑षीः । याः । अ॒ग्निम् । मनु॑षः । नहु॑षः । वि । जा॒ताः । अ॒ग्निः । गान्ध॑र्वीम् । प॒थ्या॑म् । ऋ॒तस्य॑ । अ॒ग्नेः । गव्यू॑तिः । घृ॒ते । आ । निऽस॑त्ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं विश ईळते मानुषीर्या अग्निं मनुषो नहुषो वि जाताः । अग्निर्गान्धर्वीं पथ्यामृतस्याग्नेर्गव्यूतिर्घृत आ निषत्ता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम् । विशः । ईळते । मानुषीः । याः । अग्निम् । मनुषः । नहुषः । वि । जाताः । अग्निः । गान्धर्वीम् । पथ्याम् । ऋतस्य । अग्नेः । गव्यूतिः । घृते । आ । निऽसत्ता ॥ १०.८०.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 80; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मानुषीः) मनुष्यसम्बन्धी (याः) जो (विशः) प्रजाएँ हैं, वे (अग्निम्) परमात्मा की (ईडते) स्तुति करती हैं (नहुषः-मनुषः-विजाताः) बन्धन दग्ध करनेवाले परम मननशील ऋषि के विशिष्ट उपदेश से प्रसिद्धि को प्राप्त (प्रजाः) प्रजाएँ (अग्निम्) परमात्मा को आश्रित करती हैं (अग्निः) परमात्मा (ऋतस्य पथ्याम्) ज्ञानमय वेद की हितकारी (गान्धर्वीम्) वाणी का उपदेश करता है (अग्नेः) परमात्मा के (गव्यूतिः) जीवनमार्ग की पद्धति (घृते-आनिषत्ता) उसके तेज में भलीभाँति नियत है ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्यप्रजाएँ परमात्मा की स्तुति करें, बन्धन के छुड़ानेवाले ऋषि के उपदेश से उत्तम प्रजाएँ बनकर परमात्मा को प्राप्त होती हैं तथा उसकी कल्याणकारी वेदवाणी जीवनमार्ग दर्शाती है ॥६॥

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    विषय

    सर्वोपास्य प्रभु, वेदवाणी का उपदेष्टा। पक्षान्तर में अग्नि वा तेज की सर्वत्र उपासना, सर्वत्र अग्नि का साक्ष्य। वेदरूप सर्वश्रेष्ठ मार्ग। विद्वान् सत्कार योग्य है।

    भावार्थ

    (या मानुषीः विशः) जो मननशील प्रजाएं हैं वे (अग्निम् ईडते) अग्नि, ज्ञानप्रकाशक, तेजः स्वरूप, सब के आगे विद्यमान, सब सूर्यादि के प्रकाशक परमेश्वर की स्तुति करते, उसे ही चाहते हैं। (मनुषः) मननशील (नहुषः) परस्पर के नाना सम्बन्धों से बंधे हुए, (जाताः) उत्पन्न होकर (अग्निम्) उसी ज्ञानवान् प्रभु को अपने अग्रणी, नायक, वा गुरु के तुल्य विशेष रूप से चाहते और उसकी स्तुति करते हैं। (अग्निः) वही सर्वप्रकाशक ज्ञानी प्रभु (ऋतस्य) सत्यज्ञान की (पथ्याम्) अति हितकारक (गान्धर्वीम्) वेदमयी वाणी को विशेष रूप से प्रेरित करता है, उपदेश करता है। (अग्नेः) उस ज्ञानमय प्रभु की (गव्यूतिः) समस्त वाणियों का एकीभाव और पृथग्भाव, संकलन विशकलन, (घृते) उस तेजोमय रूप में ही (आनिषत्ता) आश्रित हैं। पक्षान्तरों में—(२) ज्ञानी पुरुष को वा अग्निरूप को ही दिव्य जानकर सब उसकी उपासना करते हैं, यज्ञ में, देवमन्दिरों में सर्वत्र अग्नि को कुण्ड वा दीपकरूप से सब रखते हैं। (नहुषः) सम्बन्धों में बंधने वाले स्त्री पुरुष भी अग्नि को साक्षी रखते हैं। ‘ऋत्’ अर्थात् यज्ञ की जो वेद-वाणीरूप पथ्या, सरणि या वेदमार्ग है उसको ‘अग्नि’ ही प्रकाशित करता है। अग्नि के आश्रित सब यज्ञ हैं, अग्नि के समस्त किरणों आदि का आविर्भाव भी घृत पर आश्रित है। (३) इसी प्रकार ज्ञानी विद्वान् पक्ष में भी योजना है। उसका सब आदर करते, वही पथ्या रूप वेदवाणी को जानता है, उस विद्वान् की समस्त वाणियों की संगति उसी (घृते) तेजोमय प्रभु में होती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    'सत्य ज्ञान प्रकाशिका' वेदवाणी

    पदार्थ

    [१] (या:) = जो (मानुषीः विशः) = विचारशील प्रजाएँ हैं वे अग्निं ईडते उस प्रभु का उपासन करती हैं। इन्हें सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में, प्रत्येक घटनाचक्र में प्रभु की महिमा दिखती है । हिमाच्छादित पर्वत, समुद्र वा यह पृथिवी सब इन्हें प्रभु का स्तवन करते प्रतीत होते हैं । [२] उस (नहुषः) = सबको एक सूत्र में बाँधनेवाले [नह बन्धने] प्रभु से (विजाता:) = विविधरूपों को लेकर उत्पन्न हुए हुए (मनुषा:) = विचारशील पुरुष (अग्निम्) = उस परमात्मा को ही उपासित करते हैं। उन्हें उस प्रभु का पितृत्व स्मरण होता है। इससे जहाँ वे परस्पर भ्रातृत्व को अनुभव करते हुए प्रेम से चलते हैं, वहाँ विविध रूपों के निर्माण करनेवाले प्रभु के रचना वैचित्र्य को देखकर उसके प्रति नतमस्तक होते हैं। प्रभु को पिता जानकर सब आवश्यक चीजों को उसी से माँगते हैं । [३] (अग्निः) = वे अग्रेणी प्रभु भी (गान्धर्वीम्) = सब ज्ञानवाणियों का धारण करनेवाली (ऋतस्य) = सत्य के (पथ्याम्) = मार्ग में हितकर वेदवाणी को देते हैं । इस वेदवाणी से हमें ज्ञान प्राप्त होता है इसका अध्ययन हमें ऋत के मार्ग में ले चलता है । यह (अग्नेः) = उस अग्रेणी प्रभु का (गव्यूतिः) = मार्ग (घृते) = ज्ञानदीप्ति में (आनिषत्ता) = सर्वथा स्थापित है। प्रभु के मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति अधिकाधिक प्रकाश में पहुँचता जाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सब विचारशील व्यक्ति प्रभु का उपासन करते हैं। प्रभु उन्हें ज्ञान देते हैं। ज्ञान ही प्रभु प्राप्ति का मार्ग है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मानुषीः-याः-विशः-अग्निम्-ईडते) मनुष्यसम्बन्धिन्यो याः प्रजाः सन्ति ताः परमात्मानं स्तुवन्ति (नहुषः-मनुषः-विजाताः) बन्धनदग्धुः परममननशीलादृषेर्विशिष्टोपदेशात् प्रसिद्धिं प्राप्ता या प्रजाः (अग्निम्) परमात्मानमाश्रयन्ति (अग्निः) परमात्मा (ऋतस्य पथ्यां गान्धर्वीम्) ज्ञानमयस्य वेदस्य हितकरीं वाचमुपदिशति (अग्नेः-गव्यूतिः-घृते-आनिषत्ता) परमात्मन-स्तेजसि जीवनमार्गपद्धतिः समन्तात् तत्र नियता भवति ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Communities of humanity conscious of their humanity and social responsibility worship Agni for guidance. People who rise above their earthly bonds thank and adore Agni. Agni holds and proclaims the holy voice of eternal truth which guides humanity on the paths of rectitude. The path that leads to Agni exists in and radiates from the lustre of Agni itself.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी परमेश्वराची स्तुती करावी. बंधनातून मुक्त करविणाऱ्या ऋषींच्या उपदेशाने प्रजा उत्तम बनून परमेश्वराचा आश्रय घेते व त्याची कल्याणकारी वेदवाणी जीवनाचा मार्ग दर्शविते. ॥६॥

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