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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 81 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 81/ मन्त्र 6
    ऋषिः - विश्वकर्मा भौवनः देवता - विश्वकर्मा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    विश्व॑कर्मन्ह॒विषा॑ वावृधा॒नः स्व॒यं य॑जस्व पृथि॒वीमु॒त द्याम् । मुह्य॑न्त्व॒न्ये अ॒भितो॒ जना॑स इ॒हास्माकं॑ म॒घवा॑ सू॒रिर॑स्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्व॑ऽकर्मन् । ह॒विषा॑ । व॒वृ॒धा॒नः । स्व॒यम् । य॒ज॒स्व॒ । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । मुह्य॑न्तु । अ॒न्ये । अ॒भितः॑ । जना॑सः । इ॒ह । अ॒स्माक॑म् । म॒घऽवा॑ । सू॒रिः । अ॒स्तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वकर्मन्हविषा वावृधानः स्वयं यजस्व पृथिवीमुत द्याम् । मुह्यन्त्वन्ये अभितो जनास इहास्माकं मघवा सूरिरस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वऽकर्मन् । हविषा । ववृधानः । स्वयम् । यजस्व । पृथिवीम् । उत । द्याम् । मुह्यन्तु । अन्ये । अभितः । जनासः । इह । अस्माकम् । मघऽवा । सूरिः । अस्तु ॥ १०.८१.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 81; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (विश्वकर्मन्) हे विश्व के रचनेवाले परमेश्वर ! (हविषा वावृधानः) अपनी ग्रहणशक्ति से विशेष वर्धन के हेतु (पृथिवीम्-उत द्याम्) पृथिवी और द्युलोक को (स्वयं) अपने में संगत करता है-ले लेता है प्रलयकाल में, (अन्ये जनासः) अन्य उत्पन्न होनेवाले जीव (अभितः-मुह्यन्तु) नितान्त मुग्ध हो जाते हैं (इह) इस स्थिति में (अस्माकं मघवा) हमारा मोक्षदाता परमात्मा (सूरिः-अस्तु) प्रेरक होवे-होता है ॥६॥

    भावार्थ

    प्रलयकाल में द्युलोक पृथिवीलोकमय जगत् को सूक्ष्म करके परमात्मा अपनी ग्रहणशक्ति से अपने अन्दर ले लेता है-लीन कर लेता है और जीव मनुष्य आदि प्राणी मूर्छितरूप में रहते हैं। उसके उपासक जीवन्मुक्त उसकी प्रेरणा से मोक्ष का आनन्द लेते रहते हैं ॥६॥ 

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    विषय

    संसार तुझपर मोहित हो जाए

    शब्दार्थ

    (विश्वकर्मन्) हे सर्वकर्मकुशल ! (हविषा) अपने साधनों से, ज्ञान, मेधा, साधना आदि उपायों से (वावृधान:) बढ़ता हुआ, उन्नति करता हुआ (पृथिवीम्) शरीर को (उत) और (द्याम्) मस्तिष्क को (स्वयं यजस्व) स्वयं संगत कर । तुझपर (अन्ये जनास:) अन्य लोग (अभितः) सब ओर से (मुह्यन्तु) मोहित हो जाएँ (इह) इस संसार में (मघवा) परमपूज्य परमात्मा (अस्माकम्) हमारा (सूरि:) ज्ञानदाता प्रेरक (अस्तु) हो ।

    भावार्थ

    प्रत्येक व्यक्ति की यह कामना होती है कि लोग मुझे जानें । वेद माता अपने पुत्रों को लोरी देते हुए कहती है - हे पुत्र ! यदि तू चाहता है कि संसार के लोग तेरे ऊपर मोहित हो जाएँ तो - १. कर्मकुशल बन । तुझे जो कार्य सौंपा गया है, उसे पूरी मेहनत, ईमानदारी और लग्न से कर । कर्म को कुशलतापूर्वक करना भी योग है। यही ईश्वर की सच्ची उपासना है । ‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः ।’ गीता १८ । ४६ २. अपनी हवि से समृद्ध होकर अपने ज्ञान, विज्ञान, साधना, मेधा को बढ़ाकर तू आत्मिक उन्नति कर । व्यायाम, ब्रह्मचर्य आदि के द्वारा तू शारीरिक उन्नति कर । शरीर से बलिष्ठ बन । आत्मा से निर्मल, पवित्र और निष्पाप बन । संसार तुझपर मोहित हो जाएगा । ३. अपने अभिमान को त्याग दे और अपने जीवन की डोर को परमात्मा के हाथ में सौंप दे। ब्रह्मार्पण होकर उसे अपना प्रेरक बना ले । संसार तुझपर मोहित हो जाएगा ।

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    विषय

    परमेश्वर की जगत् रूप अद्भुत आत्माहुति।

    भावार्थ

    हे (विश्व-कर्मन्) समस्त जगत् को बनाने वाले प्रभो ! तू (हविषा) सबको देने योग्य अन्नादि से (वावृधानः) बढ़ाता हुआ और (हविषा) सबको अपने में ले लेने के सामर्थ्य से स्वयं (वावृधानः) बढ़ता हुआ,महान् होकर (पृथिवीम् उत द्याम् यजस्व) पृथिवी और द्यौ अर्थात् महान् आकाश को भी यज्ञ करता है, उनको सुसंगत करता वा उन्हें समस्त प्राणियों को प्रदान करता है, अपने ही भीतर उनकी आहुति देता है, अपने में उनको लेता, और उनको धारण करता है। (अभितः अन्ये जनासः) सब परमात्मा से पृथक हुए पैदा होने वाले जीव (मुह्यन्तु) मोहित होते हैं, मूढ़ता और अज्ञान के कारण मोह में पड़ जाते हैं, दे यथार्थ ज्ञान को प्राप्त नहीं करते हैं। (मघवा) समस्त ऐश्वर्यों का स्वामी, परमेश्वर (अस्माकं सूरिः अस्तु) हमारे बीच ज्ञान का देने वाला हो। हम प्रभु के दिये ज्ञान से उस प्रभु के महान यज्ञ का ज्ञान करें और मह मैं न पड़े। साधना-पक्ष में—जो पुरुष प्रभु के सर्वात्मक रूप का उपासक होकर उसके महान यज्ञ के अनुकरण में सर्वमेध यज्ञ करना चाहता है वह भी ‘विश्वकर्मा’ है वह भी (हविषा वावृधानाः) साधनों से अपने को बढ़ाता हुआ पृथिवी और द्यौ रूप से अपने को यज्ञ करे अर्थात् उन दोनों में भी आत्मा का दर्शन करे। अन्य जो अज्ञानी हैं वे तो मोह में पड़े रहते हैं, वे अल्प पदार्थों में ममता से फंसे हैं, वे इतने विशाल पदार्थों में आत्मा की सत्ता का साक्षात् नहीं कर सकते इसलिये वह साधक (मघवा) आत्मिक ऐश्वर्य का वशीकार करने वाला, आत्मज्ञानी ही हमारा ज्ञानदाता हो। सर्वत्र आत्मभावना के स्पष्टीकरण के लिये प्रथम मन्त्र पर उद्धृत उपनिषद् और गीता के वचनों को मनन करना चाहिये।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वकर्मा भौवनः॥ विश्वकर्मा देवता॥ छन्द:– १, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। २ ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    मघवा - सूरि

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र में जीव ने त्रिलोकी की शक्तियों के लिये आराधना की थी । प्रभु उसे प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि हे (विश्वकर्मन्) = अपने सब कर्त्तव्यों का पालन करनेवाले जीव ! तू (हविषा) = त्यागपूर्वक अदन से (वावृधानः) = खूब ही वृद्धि को प्राप्त होता हुआ (स्वयम्) = अपने आप (पृथिवीं उत द्याम्) = पृथिवीलोक और द्युलोक को शरीर की शक्ति को व मस्तिष्क की दीप्ति को (यजस्व) = अपने साथ संगत कर। इनके प्राप्त करने के लिये तू यत्नशील होगा तो तुझे ये 'शक्ति व दीप्ति' क्यों न मिलेंगी? ये तुझे अवश्य प्राप्त होंगी ही । [२] प्रभु कहते हैं कि (अभितः) = चारों ओर होनेवाले (अन्वे जनासः) = अन्य लोग, अर्थात् सामान्य पुरुष (मुह्यन्तु) = चाहे मूढ़ बनें। वे हवि का सेवन करनेवाले न बनकर, अत्यन्त स्वार्थमय जीवन बिताते हुए, आसुरवृत्तिवाले बन जाएँ, पर (इह) = इस जीवन में (अस्माकम्) = हमारा यह भक्त तो (मघवा) = [मघ-मख] यज्ञशील व (सूरि:) = विद्वान्- समझदार (अस्तु) = हो । 'प्रभु का भक्त हो और अयज्ञिय व मूर्ख हो' ये तो परस्पर विरोधी बातें हैं । यज्ञशील व सूरि बनकर यह प्रभु-भक्त अपने शरीर को पृथिवी की तरह दृढ़ बनाता है और मस्तिष्क को द्युलोक के समान ज्ञान - ज्योति से चमकता हुआ बनाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु की प्रेरणा के अनुसार यज्ञशील व ज्ञानी बनते हुए शरीर व मस्तिष्क को बड़ा सुन्दर बनाएँ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विश्वकर्मन्) हे विश्वरचयितः परमेश्वर ! (हविषा वावृधानः) आदानशक्त्या विशिष्ट-वर्धनहेतो: (पृथिवीम्-उत द्याम् स्वयं यजस्व) पृथिवी-लोकं द्युलोकं च स्वस्मिन् सङ्गमयसि (अन्ये जनासः) अन्ये जन्यमाना जीवाः (अभितः-मुह्यन्तु) नितान्तं मुग्धा भवन्ति (इह-अस्माकं मघवा सूरिः-अस्तु) अस्यां स्थितौ खल्वस्माकं प्रेरकः “सुमखस्य सूरिः॥ “सुमखस्य बलस्येरयिता” [निरु० १२।३] परमेश्वरो भवतु ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Vishvakarman, you yourself guide and perform the yajna of heaven and earth with the holy materials from within nature itself, yourself exlating in the expansive universe. Here the other people, unaware of the mystery, feel awe-stricken but, we pray, may you, Lord Almighty and omnificent, be the ultimate giver of enlightenment for us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रलयकाळात द्युलोक पृथिवीलोकमय जगाला सूक्ष्म करून परमात्मा आपल्या ग्रहणशक्तीने आपल्यामध्ये समाविष्ट करून घेतो. लीन करून घेतो व जीव, मनुष्य इत्यादी प्राणी मूर्च्छित रूपात राहतात. त्याचे उपासक जीवनमुक्त त्याच्या प्रेरणेने मोक्षाचा आनंद प्राप्त करत राहतात. ॥६॥

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