ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 83/ मन्त्र 6
अ॒यं ते॑ अ॒स्म्युप॒ मेह्य॒र्वाङ्प्र॑तीची॒नः स॑हुरे विश्वधायः । मन्यो॑ वज्रिन्न॒भि मामा व॑वृत्स्व॒ हना॑व॒ दस्यूँ॑रु॒त बो॑ध्या॒पेः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ते॒ । अ॒स्मि॒ । उप॑ । मा॒ । आ । इ॒हि॒ । अ॒र्वाङ् । प्र॒ती॒ची॒नः । स॒हु॒रे॒ । वि॒श्व॒ऽधा॒यः॒ । मन्यो॒ इति॑ । व॒ज्रि॒न् । अ॒भि । माम् । आ । व॒वृ॒त्स्व॒ । हना॑व । दस्यू॑न् । उ॒त । बो॒धि॒ । आ॒पेः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं ते अस्म्युप मेह्यर्वाङ्प्रतीचीनः सहुरे विश्वधायः । मन्यो वज्रिन्नभि मामा ववृत्स्व हनाव दस्यूँरुत बोध्यापेः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । ते । अस्मि । उप । मा । आ । इहि । अर्वाङ् । प्रतीचीनः । सहुरे । विश्वऽधायः । मन्यो इति । वज्रिन् । अभि । माम् । आ । ववृत्स्व । हनाव । दस्यून् । उत । बोधि । आपेः ॥ १०.८३.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 83; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सहुरे वज्रिन्) हे सहनशील ओजस्वी ! (विश्वधायः-मन्यो) विश्वकर्म के धारक आत्मप्रभाव या स्वाभिमान ! (अयं ते-अस्मि) यह मैं तेरा उपयोग करनेवाला हूँ (प्रतीचीनः) तू प्रतिगन्ता प्राप्त होनेवाला (अर्वाङ्) इधर (मा-उप-इहि) मेरे प्रति प्राप्त हो-मेरे में स्थिर हो (माम्-अभि) मेरी ओर (आ ववृत्स्व) भलीभाँति वर्तमान रह (दस्यून् हनाव) क्षय करनेवालों को हम दोनों नष्ट करें (उत) और (आपेः-बोधि) मुझ स्वसम्बन्धी को चेता ॥६॥
भावार्थ
आत्मप्रभाव या स्वाभिमान शक्तिशाली पदार्थ है, सब कर्मों के करने में समर्थ है, इसका ठीक-ठीक उपयोग करके मनुष्य बहुत कार्य सिद्ध कर सकता है ॥६॥
विषय
सर्वदण्डक, सर्वपोषक, सर्वपालक प्रभु के प्रति भक्त का ममत्व।
भावार्थ
हे (मन्यो) ज्ञानवन् ! हे विश्व के जानने हारे ! हे (सहुरे) सब के अपराधों को क्षमा अर्थात् सहन करने हारे ! हे (विश्व-धायः) समस्त विश्व को धारण करने, दुग्ध पिलाकर सब को पुष्ट करने वाले ! हे (वज्रिन्) बल-वीर्य शालिन् ! प्रभो ! (अयम् ते अस्मि) मैं यह तेरा ही हूं। (अर्वाक् मा इहि) तू मेरे सन्मुख आ, मुझे प्राप्त हो। तू (प्रतीचीनः) मुझ से पराङ्मुख होगया है, प्रभो ! (माम् अभि आववृत्स्व) मेरे प्रति और मेरे समक्ष, तू ही तू विद्यमान हो। हम दोनों मिलकर (दस्यून् हनाव) दुष्ट, नाशकारी बाह्य और भीतरी शत्रुओं का नाश करें। (उत) और तू (आपेः बोधि) अपने इस बन्धू का भी कुछ ध्यान रख।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मन्युस्तापसः॥ मन्युर्देवता। छन्दः- १ विराड् जगती। २ त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
सौभाग्य
पदार्थ
[१] ज्ञान में रुचिवाला बनकर 'मन्यु तापस' कहता है कि (अयं ते अस्मि) = यह मैं तेरा हूँ । अर्थात् अब मैं ज्ञान का भक्त बन गया हूँ । हे ज्ञान ! (उप मा अर्वाङ् हि) = समीपता से मुझे अभिमुख होता हुआ प्राप्त हो। (प्रतीचीनः) = मेरे शत्रुओं के प्रति गति करता हुआ, उन पर आक्रमण करता हुआ, तू मुझे प्राप्त हो। मेरे अनुकूल [अर्वाङ्] होता हुआ तू मेरे शत्रुओं के प्रतिकूल हो [ प्रतीचीनः ] (सहुरे) = हे शत्रुओं का पराभव करनेवाले ज्ञान (विश्वधायः) = तू सबका धारण करनेवाला है । [२] हे (वज्रिन्) = क्रियाशील (मन्यो) = ज्ञान ! तू (मां अभि आववृत्स्व) = मेरी ओर आनेवाला हो । मुझे तू सदा प्राप्त हो । (दस्यून् हनाव) = तू और मैं मिलकर काम क्रोधादि दास्यव वृत्तियों का हनन करें। (उत) = और हे ज्ञान ! तू (आपे:) = अपने मित्र मेरा (बोधि) = [बुध्यस्व ] ध्यान करना, मेरी भी सुधबुध लेना, मेरा पूरा ध्यान करना । तूने ही तो शत्रुओं के संहार के द्वारा मेरा रक्षण करना है।
भावार्थ
भावार्थ - जिस दिन हम ज्ञान के आराधक बनते हैं वह दिन हमारे सौभाग्यवाला होता है। इस ज्ञान के साथ मिलकर हम दास्यव वृत्तियों का संहार करनेवाले बनें ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सहुरे वज्रिन् विश्वधायः-मन्यो) हे सहनशील ओजस्विन् विश्वस्य कर्मणो धर्तः आत्मप्रभाव ! (अयं ते-अस्मि) एषोऽहं तवोपयोक्तास्मि (प्रतीचीनः-अर्वाङ् मा-उप-इहि) त्वं प्रतिगन्ता-अवरे माम्प्रत्युपगच्छ-मयि स्थिरो भव (माम्-अभि आ ववृत्स्व) माम्प्रति समन्ताद् वर्तस्व (दस्यून् हनाव) क्षयकर्तॄन् नाशयाव (उत) अपि (आपेः-बोधि) आपिम् “व्यत्ययेन द्वितीयास्थाने षष्ठी” स्वसम्बन्धिनं मां बोधय-चेतय ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Here I am all for you, O spirit of courage and self assertion, challenging sustainer of all the world, come turn to me universal spirit. O spirit of awesome passion and undaunted self-identity, wielder of the thunderbolt, come constantly, let us together dispel darkness and destroy evil. Pray inspire and awaken me, your own self.
मराठी (1)
भावार्थ
आत्मप्रभाव किंवा स्वाभिमान शक्तियुक्त पदार्थ आहे. सर्व कर्मांना करण्यास समर्थ आहे. याचा ठीक-ठीक उपयोग करून माणूस खूप कार्य सिद्ध करू शकतो. ॥६॥
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