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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 19
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - चन्द्रमाः छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नवो॑नवो भवति॒ जाय॑मा॒नोऽह्नां॑ के॒तुरु॒षसा॑मे॒त्यग्र॑म् । भा॒गं दे॒वेभ्यो॒ वि द॑धात्या॒यन्प्र च॒न्द्रमा॑स्तिरते दी॒र्घमायु॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नवः॑ऽनवः । भ॒व॒ति॒ । जाय॑मानः । अह्ना॑म् । के॒तुः । उ॒षसा॑म् । ए॒ति॒ । अग्र॑म् । भा॒गम् । दे॒वेभ्यः॑ । वि । द॒धा॒ति॒ । आ॒ऽयन् । प्र । च॒न्द्रमाः॑ । ति॒र॒ते॒ । दी॒र्घम् । आयुः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नवोनवो भवति जायमानोऽह्नां केतुरुषसामेत्यग्रम् । भागं देवेभ्यो वि दधात्यायन्प्र चन्द्रमास्तिरते दीर्घमायु: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नवःऽनवः । भवति । जायमानः । अह्नाम् । केतुः । उषसाम् । एति । अग्रम् । भागम् । देवेभ्यः । वि । दधाति । आऽयन् । प्र । चन्द्रमाः । तिरते । दीर्घम् । आयुः ॥ १०.८५.१९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 19
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (चन्द्रमाः) (नवः-नवः-जायमानः-भवति) प्रतिरात्रि नया-नया कलाओं से उदय होता है (अह्नाम्-उषसां केतुः) दिनों और उषाओं का प्रज्ञानभूत (अग्रम्-एति) कृष्णपक्ष में आगे चलता है (देवेभ्यः) देवों के लिए (भागं वि दधाति) हविर्भाग नियत करता है कालसूचना से, (दीर्घम्-आयुः-प्र तिरते) सदुपयोग से दीर्घ आयु को देता है। यह चन्द्र के पक्ष में निरुक्त के अनुसार आधिदैविक अर्थ है॥ प्रस्तुत गृहस्थपक्ष में तो−(जायमानः) पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ (नवः नवः भवति) नया-नया होता है (अह्नाम्-उषसां केतुः) प्रतिदिन और प्रति उषा वेला में साक्षात् हुआ (अग्रम्-एति) आगे जाता है (आयन्) गृहस्थाश्रम में आते हुए (देवेभ्यः) विद्वानों के लिए और अग्नि आदि के लिए (भागं विदधाति) भोजनभाग तथा हविर्भाग नियत करता है (चन्द्रमाः) स्वजीवन में आह्लादकारी होता हुआ (दीर्घम्-आयुः) दीर्घ आयु का (प्र तिरते) विस्तार करता है ॥१९॥

    भावार्थ

    चन्द्रमा प्रतिरात्रि कृष्णपक्ष में दिनों और उषावेलाओं से प्रथम आकाश में दृष्टिगोचर होता है, उसे देखकर यागों का निर्णय करते हैं देवताओं के प्रति हवि देने के लिए, चन्द्रमा के सदुपयोग से आयु बढ़ता है एवं गृहस्थाश्रम में वर पुत्ररूप से पुन:-पुन: जन्म पाता है। प्रतिदिन प्रति उषावेला में साक्षात् जागृत हो विद्वानों के लिए भोजन-भाग और अग्नि आदि के लिए हविर्भाग उसे देना चाहिए, ऐसा करते रहने से अपने जीवन में प्रसन्न रहते हुए आयु का विस्तार करे ॥१९॥

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    विषय

    चन्द्र के समान वर तथा आत्मा का वर्णन। पक्षान्तर में राजा और बालक का वर्णन।

    भावार्थ

    जिस प्रकार चन्द्र (जायमानः) प्रत्येक प्रतिपदा को पुनःप्रकट होता हुआ (नवः-नवः भवति) नया ही नया होता है। वह (अह्नां केतुः) दिनों का संकेत करने वाला, (उषसाम् अग्रम् एति) कृष्णपक्ष की रातों में प्रभातों के आगे ही आता है, (देवेभ्यः भागं विदधत्) प्रकाशमान दिनों का तिथि रूप से विभाग करता हुआ (चन्द्रमाः) चन्द्र (दीर्घं आयुः तिरते) दीर्घ आयु की वृद्धि करता है। और जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश (जायमानः) प्रकट होता है (नवः-नवः भवति) सदा नवीन ही होता है वह (अह्नां केतुः उषसाम् अग्रम् एति) दिनों का ज्ञापक होकर उषाओं के अग्र अर्थात् पूर्व में आगे २ ही आता दिखाई देता है। वह (देवेभ्यः) आकाशस्थ ग्रहों को भी अपना अंश देता है, वह (आयन्) आता हुआ (चन्द्रमाः) आह्लाददायक होता है और (दीर्घम् आयुः तिरते) रोगनाशक होने से दीर्घायु करता है। (२) उसी प्रकार (चन्द्रमाः) अति आह्लाददायक आत्मा, बालक रूप से (जायमानः) उत्पन्न होता हुआ (नवः-नवः भवति) जब २ उत्पन्न होता है तो वह नया जीव रूप से ही उत्पन्न होता है। वह (अह्नां केतुः) न नाश होने वाले आत्मतत्वों का ज्ञापक है, वह (उषसाम्) कामना करने वाली मनःप्रवृत्तियों, इच्छाओं और विशेष वासनाओं के (अग्रम्) उदयकाल से भी पूर्व (एति) देह में प्राप्त होता है, वह देह में (देवेभ्यः) नाना शक्तियों के चमकाने और अनेक विषयों की कामना करने वाले चक्षुः, नाक, कान, रसना त्वचा और चित्त आदि देवों, इन्द्रियों को (भागं) सेवन करने योग्य अपने ज्ञान, बल, आदि का अंश (वि दधाति) प्रदान करता है, और वह (चन्द्रमाः) सबका आह्लादक होकर देह की (दीर्घम् आयुः प्र तिरते) दीर्घ आयु बढ़ाता है। यदि आत्मा नाम स्थिर तत्त्व देह का धारक न हो तो ये इन्द्रियां तो आत स्वल्प काल में थक कर शिथिल एवं मृतवत् होजातीं, फिर मुर्दे के तुल्य पड़े देह में चेतना और पुनः जागृति, बल, शक्ति आदि कौन दे। इस देह का एक दिन-रात जीना भी कठिन है। (३) इसी प्रकार राजा चन्द्रमा है वह प्रजा को प्रसन्न, सुखी, हर्षित करता है। वह नया २ होता है वह (उषसाम्) कामनाओं वाली, अनेक आशाओं से भरी प्रजाओं के बीच अग्रासन पर आता है, विद्वानों और तेजस्वियों को अन्न, वेतन और पदादि प्रदान करता है, और दीर्घायु, राष्ट्र का लम्बा जीवन बनाता है। उसको चिरस्थायी करता है, अन्यथा बलवान् निर्बलों को खा जावें और सब सेतु, मर्यादाएं भंग हो जावें। इसी प्रकार विवाह योग्य वर वधू और गुरु तथा विद्या के गर्भ में नव शिष्य के पक्ष में भी जानना चाहिये पूर्व प्रसंग से यहां विवाह का प्रकरण है इसलिये उसका भी व्याख्यान करते हैं। (४) (जायमानः) प्रकट होता हुआ (चन्द्रमाः) सबको आह्लाद देने वाला वर (नवः-नवः भवति) नये ही के तुल्य अति स्तुत्य होता है। वह (उषसाम्) कामनाओं, अनेक आशाओं अर्थात् कन्या की अनेक इच्छाओं का (अग्रम् एति) लक्ष्य होता है, वह (देवेभ्यः) उत्तम देवों को यज्ञादि से और दानादि से अनेक विद्वानों को (भागं) हवि, अन्न, द्रव्यादि का अंश देता है, और (दीर्घम आयुः प्रतिरते) जीवन को दीर्घ बढ़ाता है, अर्थात् गृहस्थ करके वंश को चिरस्थायी करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    पति

    पदार्थ

    [१] मानव स्वभाव कुछ इस प्रकार का है कि वह एक चीज से कुछ देर बाद ऊब जाता है । 'गृहस्थ में पति-पत्नी परस्पर ऊब न जाएँ' इस दृष्टिकोण से (जायमानः) = अपनी शक्तियों का विकास करता हुआ पति (नवः नवः भवति) = सदा नवीन बना रहता है, उसका जीवन पुराणा- सा हुआ नहीं प्रतीत होता । उसका ज्ञान प्रतिदिन बढ़ता चलता है, स्वभाव को वह अधिकाधिक परिष्कृत बनाता है। कार्यक्षेत्र को कुछ व्यापक बनाने का प्रयत्न करता है। [२] यह (अह्नां केतुः) = दिनों का प्रकाशक होता है। अर्थात् दिनों को प्रकाशमय बनाता है। अधिक से अधिक स्वाध्याय के द्वारा प्रकाशमय जीवनवाला होता है। [३] (उषसां अग्रं एति) = उषाओं के अग्रभाग में आता है, अर्थात् बहुत सवेरे उठकर क्रियामय जीवनवाला बनता है। और (आयन्) = गतिशील होता हुआ (देवेभ्यः) = देवों के लिये (भागम्) = हिस्से को विदधाति विशेषरूप से धारण करनेवाला होता है । अर्थात् यज्ञों को करके यज्ञशेष का सेवन करनेवाला होता है। [५] (चन्द्रमा:) = आह्लादमय मनोवृत्तिवाला होता हुआ (दीर्घं आयुः) = दीर्घ जीवन को प्रतिरते खूब विस्तृत करता है । मन की प्रसन्नता उसे दीर्घ जीवनवाला बनाती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्व- शक्तियों का विकास करता हुआ अपनी नवीनता बनाए रखता है, [ख] स्वाध्याय द्वारा अपने दिनों का प्रकाशमय बनाता है, [ग] बहुत सवेरे उठकर क्रियाओं में प्रवृत्त हो जाता है, [घ] यज्ञों को करके यज्ञशेष का ही सेवन करता है, [ङ] प्रसन्न मनोवृत्तिवाला होता हुआ दीर्घजीवनवाला होता है।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (चन्द्रमाः-नवः-नवः-जायमानः-भवति) चन्द्रमाः खलु प्रतिरात्रि नवो नवः कलाश उद्यन् भवति (अह्नां केतुः-उषसाम्-अग्रम्-एति) दिवसानामुषसां च प्रज्ञानभूतोऽग्रमेति कृष्णपक्षे (देवेभ्यः-भागं विदधाति) उद्यन् देवेभ्यो यागकालसूचनया हविर्भागं समर्पयति (दीर्घम्-आयुः प्रतिरते) एवमुपयोगेन दीर्घमायुर्वर्धयति इति चन्द्रपक्षे निरुक्तमनुसृत्याधिदैविकोऽर्थः॥ प्रस्तुतगृहस्थपक्षे तु−(जायमानः) पुत्ररूपेणोत्पद्यमानः (नवः-नवः-भवति) नवो नवः पुत्ररूपो भवति (अह्नाम्-उषसां-केतुः-अग्रम्-एति) प्रतिदिनं प्रत्युषोवेलं च साक्षाद्भूतोऽग्रमेव गच्छति (आयन्) गृहाश्रममागच्छन्नेव (देवेभ्यः-भागं विदधाति) विद्वद्भ्योऽग्निप्रभृतिभ्यश्च भोजनभागं हविर्भागं च नियतं करोति (चन्द्रमाः-दीर्घम्-आयुः प्रतिरते) स्वजीवने खल्वाह्लादकारी सन् दीर्घमायुर्वर्धयति ॥१९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The moon rising again and again ever anew, proclaiming days and lunar dates, comes ahead of the dawn in the dark fortnight. While coming it brings its share of the havi for divinities and gives long life to biological and human life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    चंद्र प्रत्येक रात्री व उष:काली आकाशात दृष्टिगोचर होतो. त्याला पाहून याग इत्यादींचा निर्णय घेतात. देवतांना हवी देण्यासाठी चंद्राचा उपयोग केल्याने आयुष्य वाढते व गृहस्थाश्रमात पुत्ररूपाने पुन्हा पुन्हा जन्म प्राप्त होतो. प्रत्येक दिवशी उष:काली जागृत व्हावे. विद्वानांसाठी भोजन भाग व अग्नी इत्यादीसाठी हविर्भाग द्यावा व जीवनात प्रसन्न राहून आयुष्य वाढवावे. ॥१९॥

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