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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 26
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - नृर्णा विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पू॒षा त्वे॒तो न॑यतु हस्त॒गृह्या॒श्विना॑ त्वा॒ प्र व॑हतां॒ रथे॑न । गृ॒हान्ग॑च्छ गृ॒हप॑त्नी॒ यथासो॑ व॒शिनी॒ त्वं वि॒दथ॒मा व॑दासि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पू॒षा । त्वा॒ । इ॒तः । न॒य॒तु॒ । ह॒स्त॒ऽगृह्य॑ । अ॒श्विना॑ । त्वा॒ । प्र । व॒ह॒ता॒म् । रथे॑न । गृ॒हान् । ग॒च्छ॒ । गृ॒हऽप॑त्नी । यथा॑ । असः॑ । व॒शिनी॑ । त्वम् । वि॒दथ॑म् । आ । व॒दा॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूषा त्वेतो नयतु हस्तगृह्याश्विना त्वा प्र वहतां रथेन । गृहान्गच्छ गृहपत्नी यथासो वशिनी त्वं विदथमा वदासि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पूषा । त्वा । इतः । नयतु । हस्तऽगृह्य । अश्विना । त्वा । प्र । वहताम् । रथेन । गृहान् । गच्छ । गृहऽपत्नी । यथा । असः । वशिनी । त्वम् । विदथम् । आ । वदासि ॥ १०.८५.२६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 26
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (त्वा-इतः) हे वधू ! तुझे इस पितृगृह से (हस्तगृह्य) तेरा हाथ ग्रहण किया, जिसने ऐसा (पूषा) पोषणकर्ता पति (नयतु) अपने घर में ले जाता है (अश्विना रथेन) गतिशक्तिवाले दो वाहक, रथ से (त्वा प्र वहताम्) तुझे पतिगृह में ले जाते हैं (गृहपत्नी) गृहस्वामिनी होती हुई (गृहान् गच्छ) घरों में-घरवालों में जा रही है (यथा त्वं वशिनी) जिससे कि तू स्वामिनी बनी हुई (विदथम्-आ वदासि) सुख अनुभव करनेयोग्य वचन को भली-भाँति बोले ॥२६॥

    भावार्थ

    विवाह हो चुकने पर पाणिग्रहणकर्ता पति वधू को सम्मान के साथ अच्छे यान में बिठाकर अपने घर ले जावे, वहाँ पहुँचकर वह गृहस्वामिनी बनकर पति के प्रति सुख पहुँचानेवाले वचन को बोले ॥२६॥

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    विषय

    वधू का गृहपत्नी होने का अधिकार, पति के साथ पाणिग्रहण कर

    भावार्थ

    हे कन्ये ! (पूषा) तुझे पोषण करने में समर्थ और प्रजा द्वारा तेरे सौभाग्य की वृद्धि करने वाला पुरुष (त्वा इतः) तुझे इस पितृगृह से (हस्त-गृह्य) तेरा हाथ ग्रहण कर विवाह में पाणिग्रहण की विधि से तुझ से विवाह करके (त्वा नयतु) तुझे ले जावे। (अश्विना) उत्तम अश्वों या वेगवान् रथ आदि साधनों वाले स्त्री पुरुष वा सेनापति, सेनानायक आदि (त्वा रथेन प्र वहताम्) तुझे रथ से, उत्तम रीति से ले जावें। तू (गृहान् गच्छ) गृहों को पहुंच। (यथा) जिससे तू (गृहपत्नी असः) गृह की मालिकन वा गृहपति की यज्ञ-संयुक्ता विवाहित पत्नी हो। और तू (गृहान् त्वं वशिनी) गृह के भृत्य, बन्धु आदि जनों को चाहने और वश करने वाली भी (असः) हो। और तू (विदथं) गृह भर (आ वदासि) अध्यक्षत् आदर से आज्ञा-वचन कह। अथवा (विदथम् आ वदासि) ज्ञानयुक्त वचन बोला कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    पिता का उपदेश

    पदार्थ

    [१] पतिगृह को जाते समय पिता कन्या को अन्तिम उपदेश देता है कि (पूषा) = पोषण करनेवाला यह (पति हस्तगृह्य) = पाणिग्रहण करके, यथाविधि तेरे हाथ का ग्रहण करके (त्वा) = तुझे (इतः नयतु) = यहाँ से अपने घर ले जाये । इस समय (अश्विना) = तेरे धर्मपिता व धर्ममाता (त्वा) = तुझे रथेन रथ के द्वारा (प्रवहताम्) = घर की ओर ले जानेवाले हों। [२] तू (गृहान् गच्छ) = पतिगृह की ओर जानेवाली हो, (यथा) = जिससे तू गृहपत्नी (असः) = वहाँ जाकर गृहपत्नी बन पाये । तूने गृह की पत्नी बनना है, सारे गृह के रक्षण के उत्तरदायित्व को अपने कन्धे पर लेना है। घर के सारे प्रबन्ध का भार उठाना है। इसके लिये आवश्यक है कि (वशिनी) = अपनी सब इन्द्रियों को वश में करनेवाली (त्वम्) = तू (विदथम्) = ज्ञानपूर्वक समझदारी से आवदासि सब बात करनेवाली हो । तेरी सब बातें बड़े सोच-विचार के साथ हों । तेरी प्रत्येक बात का घर पर प्रभाव पड़ना है। सो अपना नियन्त्रण करती हुई, समझदारी से सब बात करती हुई सच्चे अर्थों में गृहपत्नी बनना ।

    भावार्थ

    भावार्थ- गृहपत्नी के लिये आवश्यक है कि - [क] सब इन्द्रियों को वश में करके चले तथा [ख] सब बातें समझदारी से करे। ऋ

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (त्वा-इतः) हे वधु ! त्वामितः पितृगृहात् (हस्तगृह्य पूषा नयतु) हस्तः पाणिर्गृह्यो ग्राह्यो यस्य पाणिग्रहणकर्ता “सुपां सुलुक्० [अष्टा० ७।१।३९] इति सुलुक्” पोषकाः पतिः स्वगृहं नयतु-नयति (अश्विना रथेन त्वा प्रवहताम्) गतिशक्तिमन्तौ वाहकौ त्वा रथेनाग्रे पतिगृहे नयतां प्रापयतां (गृहपत्नी गृहान् गच्छ) गृहस्वामिनी सती गृहान् गच्छ (यथा त्वं वशिनी विदथम्-आवदासि) यथा हि त्वं वशकर्त्रीं वेदनीयं सुखवेदनीयं वचनं समन्ताद्वदेस्तथा भव ॥२६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May Pusha, the husband who would maintain you, having accepted your hand, lead you to the new home. May the Ashvins, other leading personalities, escort you by chariot to the husband’s home. O bride, go to the new home and new families as mistress of the new home and new family so that you become the darling ruler of the new hearth and home. You are come to a new yajnic order, and you speak a new language of yajnic dedication.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पाणिग्रहण करणाऱ्या पतीने विवाहानंतर वधूला सन्मानाने चांगल्या वाहनात बसवून आपल्या घरी घेऊन जावे. तेथे तिने गृहस्वामिनी बनून पतीला मधुर वचन बोलावे. ॥२६॥

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