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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 30
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - वधूवासः संस्पर्शनिन्दा छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒श्री॒रा त॒नूर्भ॑वति॒ रुश॑ती पा॒पया॑मु॒या । पति॒र्यद्व॒ध्वो॒३॒॑ वास॑सा॒ स्वमङ्ग॑मभि॒धित्स॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्री॒रा । त॒नूः । भ॒व॒ति॒ । रुश॑ती । पा॒पया॑ । अ॒मु॒या । पतिः॑ । यत् । व॒ध्वः॑ । वास॑सा । स्वम् । अङ्ग॑म् । अ॒भि॒ऽधित्स॑ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्रीरा तनूर्भवति रुशती पापयामुया । पतिर्यद्वध्वो३ वाससा स्वमङ्गमभिधित्सते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्रीरा । तनूः । भवति । रुशती । पापया । अमुया । पतिः । यत् । वध्वः । वाससा । स्वम् । अङ्गम् । अभिऽधित्सते ॥ १०.८५.३०

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 30
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अमुया पापया) उस रजस्वलापन अशुद्धि से (अश्रीरा) अश्लील (रुशती तनूः-भवति) पति की देह पीड़ा देनेवाली हो जाती है (यत् पतिः) जब पति (वध्वः-वाससा) वधू-भार्या के वस्त्र से (स्वम्-अङ्गम्-अभिधित्सते) अपने शरीर को लगाना छूना चाहता है ॥३०॥

    भावार्थ

    रजस्वला का स्पर्श पति को नहीं करना चाहिए, इससे उसकी देह दुःखदायक रोगी बन जाती है ॥३०॥

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    विषय

    रजोधर्म से हुई स्त्री के शरीर तथा वस्त्रादि से स्पर्श करने का निषेध। उस काल में स्त्री शरीर तथा उसके वस्त्रादि के स्पर्श-संसर्गादि से हानियें।

    भावार्थ

    रजो धर्म या आर्त्तव के दिनों में स्त्री का (तनूः) शरीर जब (अश्रीरा) कान्तिरहित, शोभारहित विकृत, पीड़ित, रोगार्त्त होता है, तब वह (रुशती) दुःख कष्ट से पीड़ा देने वाली होती है। वह यदि (अमुया पापया) उस दूर रखने योग्य वधू से संग करे वा (वध्वः वाससा) वधू के वस्त्र, वा सहवास, वो आच्छादन से (स्वम् अंगम् अभि-धित्सते) अपने अंग को बांधना चाहे तो पति का (तनू) शरीर वा सन्तान भी (अश्रीरा भवति) श्रीरहित, रोगादि से दूषित हो जाता है। इति पञ्चविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    पति ने घर में ही नहीं बैठे रहना

    पदार्थ

    [१] एक युवक जिसका कि (तनूः) = शरीर (रुशती) = देदीप्यमान होता है, वह (यत्) = यदि (पति:) = गृहस्थ में प्रवेश करने पर, पति बनने पर (वध्वः वाससा) -= वधू के वस्त्रों से (स्वं अंगम्) = अपने अङ्गों को अभिधित्सते-आच्छादित करना चाहता है, अर्थात् पत्नी के वस्त्र पहनकर घर पर ही बैठा रहता है । पत्नी के साथ गपशप ही मारता रहता है तो उसका शरीर (अमुया पापया) = उस पापवृत्ति से (अश्रीरा भवति) = बिना श्री के हो जाता है, शोभाशून्य हो जाता है। [२] वधू के वस्त्रों को पहनकर घर में ही बैठे रहने का भाव प्रेमासक्त होकर अकर्मण्य बन जाने से है । विवाहित होने पर भी एक युवक हृदय-प्रधान होकर अपने कर्त्तव्यों को उपेक्षित न कर दे । पत्नी के प्रति आसक्ति उसे कर्त्तव्य विमुख न बना दे। ऐसा होने पर भोग-प्रधान होकर नष्ट - श्रीवाला हो जाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- नव विवाहित युवक को चाहिये कि भोग-प्रधान जीवनवाला न बन जाये । हर समय घर में ही न बैठा रहे ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अमुया पापया) तया-अशुद्धया-रजस्वलतया (अश्रीरा) अश्लीला ‘अश्रीरम्-अश्लीलम्’ [ऋ० ६।२८।६ दयानन्दः] (रुशती तनूः-भवति) पीडिका तनूर्भवति पत्युः (यत् पतिः) यदा पतिः (वध्वः वाससा) भार्यायाः खलु वस्त्रेण (स्वम्-अङ्गम्-अभिधित्सते) स्वकीयं शरीरमभिधातुं स्प्रष्टुमिच्छति-स्पृशति ॥३०॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The body becomes polluted, injured and injurious by that impious act if the husband touches or wants to touch his body with the clothes of the wife in her period.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पतीने रजस्वलेला स्पर्श करता कामा नये. त्यामुळे त्याचा देह दु:खदायक रोगी बनतो. ॥३०॥

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