Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 89 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 89/ मन्त्र 15
    ऋषिः - रेणुः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    श॒त्रू॒यन्तो॑ अ॒भि ये न॑स्तत॒स्रे महि॒ व्राध॑न्त ओग॒णास॑ इन्द्र । अ॒न्धेना॒मित्रा॒स्तम॑सा सचन्तां सुज्यो॒तिषो॑ अ॒क्तव॒स्ताँ अ॒भि ष्यु॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒त्रु॒ऽयन्तः॑ । अ॒भि । ये । नः॒ । त॒त॒स्रे । महि॑ । व्राध॑न्तः । ओ॒ग॒णासः॑ । इ॒न्द्र॒ । अ॒न्धेन॑ । अ॒मित्राः॑ । तम॑सा । स॒च॒न्ता॒म् । सु॒ऽज्यो॒तिषः॑ । अ॒क्तवः॑ । तान् । अ॒भि । स्यु॒रिति॑ स्युः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शत्रूयन्तो अभि ये नस्ततस्रे महि व्राधन्त ओगणास इन्द्र । अन्धेनामित्रास्तमसा सचन्तां सुज्योतिषो अक्तवस्ताँ अभि ष्यु: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शत्रुऽयन्तः । अभि । ये । नः । ततस्रे । महि । व्राधन्तः । ओगणासः । इन्द्र । अन्धेन । अमित्राः । तमसा । सचन्ताम् । सुऽज्योतिषः । अक्तवः । तान् । अभि । स्युरिति स्युः ॥ १०.८९.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 89; मन्त्र » 15
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (ये) जो (ओगणासः) अवगण-नीचसङ्घ (नः) हमें (शत्रूयन्तः) अपना शत्रु मानते हुए (महि व्राधन्तः) महत् बाधा पीड़ा देते हुए (अभि ततस्रे) नष्ट कर रहे हैं (अभि) सब ओर से वे शत्रुजन (अन्धेन तमसा) घने अन्धकार से (सचन्ताम्) संगत हों (सुज्योतिषः-अक्तवः) तीक्ष्ण तेजवाले दिन-रात (तान् अभिष्युः) उन्हें अभिभूत करें ॥१५॥

    भावार्थ

    शत्रुता करनेवाले पीड़ा पहुँचानेवाले नीचसङ्घ घने अन्धकार से संगत हो जाते हैं और उनके दिन-रात भी तीक्ष्ण तेज से उन्हें तपाते हैं ॥१५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सुधार के लिए पृथक्करण व ज्ञान देना

    पदार्थ

    [१] (ये) = जो (शत्रूयन्तः) = शत्रु के समान आचरण करते हुए (नः) = हमें (अभिततस्त्रे) = इधर-उधर उत्शिप्त करते हैं, (महि व्राधन्तः) = हमें महान् पीड़ा पहुँचाते हैं, हमारी बहुत बाधाओं का कारण बनते हैं, (ओगणास:) = संघ [gang] बनाकर अपना पीड़ा पहुँचाने का कार्य करते हैं। हे (इन्द्र) = प्रभो ! वे (अमित्राः) = सबका अहित चाहनेवाले लोग (अन्धेन तमसा सचन्ताम्) = अन्धतमस् से, घने अन्धेरे से युक्त हों । अर्थात् उन्हें समाज से पृथक् करके कारागार में अलग कमरे में रखा जाये। और वहाँ उनके (अभि) = दोनों और (सुज्योतिषः अक्तवः) = उत्तम ज्योतिवाली ज्ञान की रश्मियाँ (स्युः) = हों । अर्थात् उन्हें प्रातः- सायं दोनों समय उत्तम ज्ञान प्राप्त कराया जाए। इस ज्ञान के द्वारा उनकी वृत्ति को ठीक करने का प्रयत्न किया जाए। [२] सुधार के लिये आवश्यक है कि उसको पहले वातावरण से अलग किया जाए। इसी दृष्टिकोण से यहाँ कहा गया है कि वे अन्धतमस् से युक्त हों। एकदम उन्हें अलग करके रखा जाए, उनका संसार परिवर्तित ही हो जाए। इसके बाद उन्हें प्रातः - सायं ज्ञान देने का प्रयत्न किया जाए। दिन में विविध कार्यों में व्यापृत रखा जाए। ज्ञान के द्वारा उनके जीवन में पवित्रता के संचार का यत्न हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ-औरों को हिंसित व विघ्रित करनेवाले लोगों को समाज से पृथक् करके सुधारने के लिए यत्न हो । उन्हें प्रतिदिन ज्ञान को देने की व्यवस्था की जाए ताकि उनकी प्रवृत्तियाँ परिवर्तित हो जाएँ ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा को शत्रु दमन के कार्य आवश्यक।

    भावार्थ

    (ये) जो (शत्रूयन्तः) शत्रुओं के समान आचरण करने वाले (ओगणासः) संघ बनाये हुए, (महि व्राधन्तः) हमें बहुत २ पीड़ित करते हुए, (नः अभि ततस्त्रे) सब ओर गिराते हैं, हे (इन्द्र) शत्रुओं के नाश करने हारे ! वे (अमित्राः) स्नेहरहित शत्रुगण, (तमसा अन्धेन) अन्धा कर देने वाले तम, अन्धकार से (सचन्ताम्) युक्त हों, और (तान्) उनको (सु-ज्योतिषः) उत्तम ज्योति वाले, सुप्रकाशित दिन और (अक्तवः) रात्रिगण (अभि स्युः) पराजित करें। अथवा (सु-ज्योतिषः) प्रकाशयुक्त सुज्ञानी और (अक्तवः) स्नेही जन (तानू अभिस्युः) उनको पराजित करें, वे उनके विपरीत हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि रेणुः॥ देवता—१–४, ६–१८ इन्द्रः। ५ इन्द्रासोमौ॥ छन्द:- १, ४, ६, ७, ११, १२, १५, १८ त्रिष्टुप्। २ आर्ची त्रिष्टुप्। ३, ५, ९, १०, १४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (ये) खलु (ओगणासः) अवगणाः नीचगणाः (नः) अस्मान् (शत्रूयन्तः) शत्रुत्वमाचरन्तः (महि व्राधन्तः) महत् अत्यन्तं हिंसन्तः “व्राधन्तं वा धन्तं व्याधमिव हिंसन्तम्” [ऋ० ४।३२।३ दयानन्दः] (अभिततस्रे) अभि-उपक्षिण्वन्ति नाशयन्ति “तसु उपक्षये” [दिवादि०] (अभि) अभितः, शत्रवः (अन्धेन तमसा सचन्ताम्) महतान्धकारेण सङ्गच्छन्तां (सुज्योतिषा-अक्तवः) तीक्ष्णप्रकाशवन्तो दिवसा रात्रयश्च (तान्-अभिष्युः) तानभिभवेयुः-बाधेरन् ॥१५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Enemies of humanity, obstructionist forces, highly organised gangs which afflict us, may all unfriendly forces suffer deep darkness on their way, and may the powers of enlightenment and progressive culture face them and overcome them.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    शत्रुत्व करणारे, पीडित करणारे, नीच लोक घोर अंधकारात पडतात व दिवस-रात्रही तीक्ष्ण तेजाने त्यांना अभिभूत करतात. ॥१५॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top