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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 4
    ऋषिः - त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिन्धुद्वीपो वाम्बरीषः देवता - आपः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    शं नो॑ दे॒वीर॒भिष्ट॑य॒ आपो॑ भवन्तु पी॒तये॑ । शं योर॒भि स्र॑वन्तु नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शम् । नः॒ । दे॒वीः । अ॒भिष्ट॑ये । आपः॑ । भ॒व॒न्तु॒ । पी॒तये॑ । शम् । योः । अ॒भि । स्र॒व॒न्तु॒ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये । शं योरभि स्रवन्तु नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शम् । नः । देवीः । अभिष्टये । आपः । भवन्तु । पीतये । शम् । योः । अभि । स्रवन्तु । नः ॥ १०.९.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवीः-आपः) दिव्यगुणवाले दृश्यमान स्नानयोग्य तथा पानयोग्य शरीर के अन्दर व्यापने योग्य जल (नः) हमारी (अभिष्टये) स्नानक्रिया के लिए और (पीतये) पानक्रिया के लिए (शं भवन्तु) कल्याणकारी होवें। वे जल (शंयोः-अभिस्रवन्तु) वर्तमान रोगों का शमन और भावी रोगों के भयों का पृथक्करण करें-उन्हें बाहर भीतर दोनों ओर से रिसावें-बहावें ॥४॥

    भावार्थ

    जल का स्नान और पान करने से शरीर में वर्तमान रोगों का शमन और भावी रोगभयों का पृथक्करण हो जाता है तथा दोनों ही प्रकार स्नान और पान सुख-शान्ति को प्राप्त कराते हैं। इसी प्रकार आपजनों के सङ्ग से बाहरी पापसंस्पर्श का अभाव और भीतरी पापताप की उपशान्ति होती है। अध्यात्म से आपः-व्यापक परमात्मा के जगत् में प्रत्यक्षीकरण और अन्तरात्मा में साक्षात् अनुभव से सच्चा सुख और शान्ति की प्राप्ति होती है-अमृत की वर्षा होती है ॥४॥

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    विषय

    इच्छा-आक्रमण - विजय

    पदार्थ

    [१] (देवी:) = [दिव्= विजिगीषा] रोगों को जीतने की कामना वाले (आप:) = जल (नः) = हमारे लिये (अभिष्टये) = रोगों पर आक्रमण के लिये [अभिष्टि attack] और इस प्रकार पीतये हमारे रक्षण के लिये (भवन्तु) = हों। रोग विनाश के द्वारा ये जल (शम्) = शान्ति को देनेवाले हों। [२] यहाँ यह क्रम ध्यान देने योग्य है- 'इच्छा-आक्रमण-विजय'। जल रोगों को जीतने की इच्छा करते हैं [देवी:], रोगों पर आक्रमण करते हैं [अभिष्टये] और उन रोगों को शान्त कर देते हैं [शं] रोग शान्ति द्वारा ये जल हमारा रक्षण करते हैं [पीतये] [३] (शं योः) = उत्पन्न रोगों का ये जल शमन करनेवाले हों [शं] तथा अनुत्पन्न रोगों का पृथक् करण करनेवाले हों, उनको हमारे से दूर ही रखनेवाले हों। 'शं' शब्द चिक्तिसा - cure व अपनयन का संकेत करता है और (योः) = रोगों को रोकने-prevention उत्पन्न ही न होने देने का । इस प्रकार ये जल रोगों का इलाज व रोकना दोनों ही काम करते हैं-[curative इलाज करनेवाला] भी हैं [preventive - अवरोधक] भी। ऐसे ये जल (नः) = हमारे (अभिस्स्रवन्तु) = दोनों ओर बहें । हम स्नान के रूप में इनका बाह्य प्रयोग करें और आचमन के रूप में अन्तः प्रयोग । इस प्रयोग में यह सूत्र हमें सदा ध्यान रहे कि 'अन्दर गरम और बाहर ठण्डा'। पीने में गरम पानी का तथा स्नान में ठण्डे का उपयोग हो । ठण्डे पानी का उपयोग त्वचा को सशक्त बनाता है, और गरम पानी का पीना पाचन को ठीक रखता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - जल हमारे रोगों को जीतने की कामना करते हैं, वे रोगों पर आक्रमण करते हैं। और उन्हें शान्त कर देते हैं। ये जल उत्पन्न रोगों को शान्त करनेवाले तथा अनुत्पन्नों को दूर रखनेवाले हैं ।

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    विषय

    आपः। आप्त जनों के कर्त्तव्य। जलों से उनकी तुलना। जलों का रोगों को, और आप्तों का दुर्भावों और पापों को दूर करने का कर्तव्य।

    भावार्थ

    (देवीः) ज्ञानप्रकाशमय, सुख देने वाले (आपः) जलवत् शान्तिदायक आप्तजन, और व्यापक परमेश्वर (नः शं भवन्तु) हमें शान्तिदायक हों। और वे (अभिष्टये) अभीष्ट प्राप्ति के लिये हों। (पीतये भवन्तु) हमारे रसपानवत् पालन के लिये भी हों। वे (नः) हमारे (शं योः) शान्ति देने और कष्ट को दूर करने के लिये (नः अभि स्रवन्तु) हमें सब ओर से प्राप्त हों। (२) उत्तम सुखद जल हमें शान्ति दें, हमें इष्ट सुख देवें और पीने के लिये हों तो सुख देने और कष्ट दूर करने के लिये हमारे चहुं ओर बहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिन्धुद्वीपो वाम्बरीष ऋषिः। आपो देवताः॥ छन्दः-१—४, ६ गायत्री। ५ वर्धमाना गायत्री। ७ प्रतिष्ठा गायत्री ८, ९ अनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवीः-आपः) दिव्यगुणवत्यो दृश्यमानाः-स्नानार्हाः पानार्हा आपः (नः) अस्माकं (अभिष्टये) स्नानक्रियायै ‘अभिपूर्वात् ष्टै वेष्टने [भ्वादिः] ततः किः प्रत्ययः’। (पीतये) पानक्रियायै (शं भवन्तु) कल्याणरूपाः कल्याणकारिण्यो भवन्तु, ताः आपः (शंयोः) रोगाणां शमनं भयानां यावनं पृथक्करणं “शमनं च रोगाणां यावनं च भयानाम्” [निरु० ४।२१] (अभिस्रवन्तु) अभितः-उभयतः स्रावयन्तु वाहयन्तु ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the divine waters be for our peace and bliss for body, mind and soul and bring us showers of peace, protection and blessedness.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जलाचे स्नान व पान करण्याने शरीरात वर्तमान रोगांचे शमन व भावी रोगभयाचे पृथक्करण होते व दोन्ही प्रकारचे स्नान व पान सुखशांतीला प्राप्त करवितात. याच प्रकारे आप्त जनांच्या संगतीने बाहेरून पापाच्या संस्पर्शाचा अभाव व आतून पापतापाची उपशांती अध्यात्माने आप: - व्यापक परमात्म्याचे जगात प्रत्यक्षीकरण व अंतरात्म्यात साक्षात अनुभव मिळून खरे सुख व शांती प्राप्त होते - अमृताची वृष्टी होते. ॥४॥

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