ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 91/ मन्त्र 11
ऋषि: - अरुणो वैतहव्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
यस्तुभ्य॑मग्ने अ॒मृता॑य॒ मर्त्य॑: स॒मिधा॒ दाश॑दु॒त वा॑ ह॒विष्कृ॑ति । तस्य॒ होता॑ भवसि॒ यासि॑ दू॒त्य१॒॑मुप॑ ब्रूषे॒ यज॑स्यध्वरी॒यसि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयः । तुभ्य॑म् । अ॒ग्ने॒ । अ॒मृता॑य । मर्त्यः॑ । स॒म्ऽइधा॑ । दाश॑त् । उ॒त । वा॒ । ह॒विःऽकृ॑ति । तस्य॑ । होता॑ । भ॒व॒सि॒ । यासि॑ । दू॒त्य॑म् । उप॑ । ब्रू॒षे॒ । यज॑सि । अ॒ध्व॒रि॒ऽयसि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्तुभ्यमग्ने अमृताय मर्त्य: समिधा दाशदुत वा हविष्कृति । तस्य होता भवसि यासि दूत्य१मुप ब्रूषे यजस्यध्वरीयसि ॥
स्वर रहित पद पाठयः । तुभ्यम् । अग्ने । अमृताय । मर्त्यः । सम्ऽइधा । दाशत् । उत । वा । हविःऽकृति । तस्य । होता । भवसि । यासि । दूत्यम् । उप । ब्रूषे । यजसि । अध्वरिऽयसि ॥ १०.९१.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 91; मन्त्र » 11
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (1)
पदार्थ
(अग्ने) हे परमात्मन् ! (यः-मर्त्यः) जो मरणधर्मा मनुष्य (तुभ्यम्-अमृताय) तुझ अमर अनश्वर के लिए या तेरी संगति से अमृतत्व प्राप्त करने के लिए (समिधा दाशत्) समिद् रूप ध्यान से या समिद् भावना से स्वात्मा को देता है-समर्पित करता है अथवा (तस्य हविष्कृति) उस अध्यात्मयाजी की आत्महविक्रिया जिसमें है, उस अध्यात्मयज्ञ में (होता भवसि) तू होता बनता है (दूत्यं यासि) अध्यात्ममार्ग का प्रदर्शन करता है (उप ब्रूषे) और उपदेश करता है (यजसि) तू यजन कराता है (अध्वरीयसि) अध्वर्यु कर्म का आचरण करता है, तू ही उपास्य है ॥११॥
भावार्थ
जब मनुष्य अमृतत्व पाने के लिए उस अमर परमात्मा के प्रति अध्यात्मयज्ञ में अपनी आत्मा को समिधा बनाकर समर्पित करता है, तो वह परमात्मा उसमें होता बनकर आगे चलता है और उपदेश देता है। वह ऐसा परमात्मा स्तुति करने योग्य है ॥११॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने) हे परमात्मन् ! यः-मर्त्यः) यो मरणधर्मा मनुष्यः (तुभ्यम्-अमृताय) तुभ्यममरायानश्वराय त्वत्सङ्गत्यामृतत्वप्रापणाय वा (समिधा दाशत्) समिद्रूपेण ध्यानेन समिद्भावनयात्मानं ददाति समर्पयति (उत वा) अपि च (तस्य हविष्कृति होता भवसि) तस्याध्यात्मयाजिनः आत्महविःक्रिया यस्मिन् तस्मिन्नध्यात्मयज्ञे त्वं होता भवसि (दूत्यं यासि) दूतकर्म-अध्यात्ममार्गस्य प्रदर्शनं कारयसि (उप ब्रूषे) प्रवचनं करोषि (यजसि) याजयसि “अन्तर्गतणिजर्थः” (अध्वरीयसि) अध्वर्युकर्माचरसि त्वं हि खलूपास्यः ॥११॥
English (1)
Meaning
Agni, whoever the mortal that gives unto you, Spirit imperishable, Lord immortal, and surrenders himself by way of fuel fire, dedicates his total life as yajnic performance, you yourself become the yajaka for him, move as his messenger, speak to him in the soul, and take over his life itself as manager of the yajna. (Surrender, O man, to the Immortal for the sake of immortality.)
मराठी (1)
भावार्थ
जो मनुष्य अमृतत्व प्राप्त करण्यासाठी त्या अमर परमात्म्याला अध्यात्मयज्ञात आपल्या आत्म्याला समिधा बनवून समर्पित करतो. तेव्हा परमात्मा त्यात होता बनून पुढे चालवितो व उपदेश देतो. असा परमात्मा स्तुती करण्यायोग्य आहे. ॥११॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Dhiman
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal