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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 91/ मन्त्र 12
    ऋषिः - अरुणो वैतहव्यः देवता - अग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    इ॒मा अ॑स्मै म॒तयो॒ वाचो॑ अ॒स्मदाँ ऋचो॒ गिर॑: सुष्टु॒तय॒: सम॑ग्मत । व॒सू॒यवो॒ वस॑वे जा॒तवे॑दसे वृ॒द्धासु॑ चि॒द्वर्ध॑नो॒ यासु॑ चा॒कन॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माः । अ॒स्मै॒ । म॒तयः॑ । वाचः॑ । अ॒स्मत् । आ । ऋचः॑ । गिरः॑ । सु॒ऽस्तु॒तयः॑ । सम् । अ॒ग्म॒त॒ । व॒सु॒ऽयवः॑ । वस॑वे । जा॒तऽवे॑दः । वृ॒द्धासु॑ । चि॒त् । वर्ध॑नः । यासु॑ । चा॒कन॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमा अस्मै मतयो वाचो अस्मदाँ ऋचो गिर: सुष्टुतय: समग्मत । वसूयवो वसवे जातवेदसे वृद्धासु चिद्वर्धनो यासु चाकनत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाः । अस्मै । मतयः । वाचः । अस्मत् । आ । ऋचः । गिरः । सुऽस्तुतयः । सम् । अग्मत । वसुऽयवः । वसवे । जातऽवेदः । वृद्धासु । चित् । वर्धनः । यासु । चाकनत् ॥ १०.९१.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 91; मन्त्र » 12
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अस्मै वसवे जातवेदसे) इस मोक्ष में वसानेवाले उत्पन्नमात्र के जाननेवाले सर्वज्ञ परमात्मा के लिए (अस्मत्) हमारी (इमाः) ये (मतयः) मननक्रियाएँ-बुद्धियाँ (वाचः) वाणियाँ (ऋचः) स्तुतियाँ (गिरः) गीतियाँ (सुष्टुतयः) शोभनस्तुति करनेवाले जिनके हैं, ऐसी सब (वसुयवः) मोक्षवास के हेतुभूत (सम् अग्मत) सङ्गत होती हैं (यासु वृद्धासु) जिन वृद्ध प्रवृद्ध हुई में (चित्) अवश्य (वर्धनः-चाकनत्) वह वर्धमान परमात्मा स्तुतिकर्त्ताओं को चाहता है-अपनाता है ॥१२॥

    भावार्थ

    मोक्षप्राप्ति के वेदवाणियों का उच्चारण, मनन तथा उसकी स्तुतियाँ प्रेम भरी गीतियाँ परमात्मा को समर्पित करनी चाहिये। वह ऐसे स्तुति करनेवाले को अपनाता है ॥१२॥

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    विषय

    जप से 'ज्ञान शक्ति व प्रभु प्रियता' ही प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (अस्मत्) = हमारे से (इमाः) = ये (मतयः) = मनन व विचार से युक्त (वाचः) = स्तुति वाणियाँ (अस्मै) = इस प्रभु के लिए (समग्मत) = संगत होती हैं, अर्थात् हम उस प्रभु के नाम का जप करते हैं [वाचः ] और उस नाम के अर्थ का भावन-चिन्तन करते हैं । 'तज्जषः, तदर्थभावनम्'। [२] इस प्रकार उस प्रभु का स्तवन करने पर (ऋचः) = प्रकृति का ज्ञान देनेवाली ऋचाएँ, (गिरः) = जीव के कर्त्तव्यों का उपदेश देनेवाली यजूरूप वाणियाँ तथा (सुष्टुतयः) = उपासनात्मक साम मन्त्र (आ समग्मतः) = सब प्रकार से हमारे साथ संगत होते हैं। हम 'ऋग्, यजु, साम' रूप त्रयी विद्या को प्राप्त करते हैं । [३] (वसूयवः) = वसुओं को अपने साथ मिलाने की कामनावाले हम (वसवे) = [वासयति इति वसुः] सबके वसानेवाले जातवेदसे उस सर्वज्ञ प्रभु के लिए उन स्तुतियों को करते हैं, (यासु वृद्धासु चित्) = जिन स्तुतियों के बढ़े हुए होने पर निश्चय से वे प्रभु (वर्धनः) = हमारा वर्धन करनेवाले हैं और (चाकनत्) = [कामयते] हमारे पर प्रेम करनेवाले होते हैं । वस्तुतः प्रभु तो सदा हमारा हित चाहते ही हैं, हमें उस हित को प्राप्त करने का पात्र बनने की आवश्यकता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के नाम का अर्थभावनपूर्वक जप करते हैं। इस जप से [क] हमारा ज्ञान बढ़ता है, [ख] हमारी शक्तियों का वर्धन होता है, [ग] हम प्रभु के प्रिय बनते हैं ।

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    विषय

    हमारी बुद्धि और वाणियों का लक्ष्य प्रभु।

    भावार्थ

    (यासु वृद्धासु) अर्थ, गुण आदि में समृद्ध जिन वाणियों के आश्रय पर (वर्धनः चित्) सबको बढ़ाने वाला प्रभु (चाकनत्) समस्त उपासकों को चाहने लगता है, (अस्मान्) हमारी (इमाः मतयः) ये बुद्धियां, (इमाः वाचः) ये वाणियां, (इमाः ऋचः) ये ऋचाएं, स्तुतियां, (इमाः गिरः सु-स्तुतयः) ये उत्तम २ स्तुतियुक्त वाणियां, (वसूयवः) धनैश्वर्य को चाहने वाली प्रजाओं के तुल्य ही (वसवे जात-वेदसे), सर्वैश्वर्यवान्, सर्वज्ञ, सर्वत्र व्यापक प्रभु को प्राप्त करने के लिये (सम् अग्मत) एक साथ प्राप्त होती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः अरुणो वैतहव्यः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृज्जगती। २, ४, ५, ९, १०, १३ विराड् जगती। ८, ११ पादनिचृज्जगती। १२, १४ जगती। १५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूकम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अस्मै वसवे जातवेदसे) अस्मै मोक्षे वासयित्रे जातमात्रस्य वेदिते सर्वज्ञाय परमात्मने (अस्मत्) अस्माकम् “सुपां सुलुक्” [अष्टा० ७।१।३९] इति षष्ठीविभक्तेर्लुक् (इमाः) एताः (मतयः) मननक्रियाः बुद्धयः (वाचः) वाण्यः (ऋचः) स्तुतयः “ऋच्-स्तुतौ” [तुदादि०] (गिरः) गीतयः “गिरा गीत्या” [निरु० ६।२४१] (सुष्टुतयः) शोभनाः स्तुतिकर्त्तारो यासां तथाभूता एताः सर्वाः (वसुयवः) मोक्षवासहेतुभूताः (सम् अग्मत) सङ्गच्छन्ते (यासु वृद्धासु) यासु प्रवृद्धासु (चित्) अवश्यं (वर्धनः-चाकनत्) स परमात्मा वर्धमानः स्तोतॄन् कामयते गृह्णाति “चाकन् कामयते” [ऋ० २।११।३ दयानन्दः] ॥१२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May all these thoughts, words, Rks, holy voices and songs of adoration, prayers for peace, prosperity and fulfilment reach this Agni, omniscient, omnipresent and ultimate haven of all that exists, the lord that waxes with love and exaltation when these rise and reach him.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मोक्षप्राप्तीसाठी वेदवाणीचे उच्चारण, मनन व त्याची स्तुती प्रेमाने युक्त गीते परमात्म्याला समर्पित केली पाहिजेत. तो स्तुती करणाऱ्यांना आपलेसे करतो. ॥१२॥

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