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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 91/ मन्त्र 15
    ऋषिः - अरुणो वैतहव्यः देवता - अग्निः छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अहा॑व्यग्ने ह॒विरा॒स्ये॑ ते स्रु॒ची॑व घृ॒तं च॒म्वी॑व॒ सोम॑: । वा॒ज॒सनिं॑ र॒यिम॒स्मे सु॒वीरं॑ प्रश॒स्तं धे॑हि य॒शसं॑ बृ॒हन्त॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अहा॑वि । अ॒ग्ने॒ । ह॒विः । आ॒स्ये॑ । ते॒ । स्रु॒चिऽइ॑व । घृ॒तम् । च॒म्वि॑ऽइव । सोमः॑ । वा॒ज॒ऽसनि॑म् । र॒यिम् । अ॒स्मे इति॑ । सु॒ऽवीर॑म् । प्र॒ऽश॒स्तम् । धे॒हि॒ । य॒शस॑म् । बृ॒हन्त॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहाव्यग्ने हविरास्ये ते स्रुचीव घृतं चम्वीव सोम: । वाजसनिं रयिमस्मे सुवीरं प्रशस्तं धेहि यशसं बृहन्तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहावि । अग्ने । हविः । आस्ये । ते । स्रुचिऽइव । घृतम् । चम्विऽइव । सोमः । वाजऽसनिम् । रयिम् । अस्मे इति । सुऽवीरम् । प्रऽशस्तम् । धेहि । यशसम् । बृहन्तम् ॥ १०.९१.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 91; मन्त्र » 15
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (ते) तेरी प्राप्ति के लिए (हविः-आस्ये-अहावि) अपने आत्मा को तेरे व्याप्तिरूप मुख में देता हूँ-समर्पित करता हूँ (स्रुचि-इव-घृतम्) जैसे स्रुवा में घृत रखा जाता है (चम्वि-इव सोमः) जैसे चमस-पात्र में सोमरस रखा जाता है (अस्मे) हमारे लिए (वाजसनिम्) अमृतान्नभोग प्राप्त करनेवाले-(सुवीरम्) उत्तम प्राणोंवाले (प्रशस्तम्) श्रेष्ठ (यशसम्) यशस्वी (बृहन्तम्) महान् (रयिं धेहि) आत्मपोष को-शान्ति संतोष को धारण कराए ॥१५॥   

    भावार्थ

    परमात्मा के व्याप्त स्वरूप में अपने आत्मा को समर्पित कर देवे, तो वह परमात्मा उत्तम जीवन यशस्वी सुख शान्ति संतोषरूप स्वात्मस्वरूप को हमारे अन्दर रख देता है ॥१५॥

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    विषय

    एषणा-त्रय-प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो! (ते) = आपकी प्राप्ति के लिए (आस्ये) = मुख में (हविः) = हवि (अहावि) = आहुत की जाती है। मैं आपकी पूजा के लिए सदा दानपूर्वक अदन करनेवाला बनता हूँ [हुदाने] 'कस्मै देवा हविषा विधेम' । मुख में हवि को मैं इस प्रकार डालता हूँ (इवः) = जैसे कि (स्स्रुचि) = चम्मच में (घृतम्) = घृत को (इव) = और जैसे (चम्वि) = चमूपात्र में (सोमः) = सोम को। ये दोनों उपमाएँ यज्ञियक्षेत्र की हैं। भोजन को भी मैं यज्ञ का रूप देता हूँ । चम्मच में घृत को लेकर अग्नि में आहुत करते हैं, इसी प्रकार मुख में हविरूप भोजन को लेकर वैश्वानर अग्नि में भेजते हैं। सोम को चमू द्वारा अग्नि में आहुत करते हैं, इसी प्रकार शरीर में भी सोम को [=वीर्य को] धारण करके ज्ञानाग्नि में आहुत करते हैं । [२] हे प्रभो ! इस प्रकार हविरूप भोजन से आपका पूजन करने पर आप (अस्मे) = हमारे लिये निम्न तीन चीजों को (धेहि) = धारण कीजिये - [क] (वाजसनिं रयिम्) = उस धन को जो हमारे लिए अन्नों को प्राप्त करानेवाला है । भोजनाच्छादन के लिए आवश्यक धन की इच्छा ही उचित 'वित्तैषणा' है। इस एषणा को आप पूर्ण कीजिये। [ख] (प्रशस्तं सुवीरम्) = अपने कर्मों व योग्यताओं से प्रशंसनीय उत्तम पुत्र को प्राप्त कराइये। आपकी कृपा से हमारी सन्तान उत्तम व प्रशंसनीय हो। इस प्रकार हमारी (पुत्रैषणा) = को आप पूर्ण करें। [ग] (बृहन्तम्) = सदा वृद्धि को प्राप्त करते हुए (यशसम्) = यश को हमें प्राप्त कराइये। हमारी उचित लोकैषणा भी पूर्ण हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम हवि के द्वारा प्रभु-पूजन करें। प्रभु हमें आवश्यक धन, प्रशस्त सन्तान व बढ़ता हुआ यश प्राप्त कराएँ । यह सम्पूर्ण सूक्त प्रभु के स्तवन व प्रभु प्राप्ति के लिए हवि के स्वीकार को प्रतिपादित कर रहा है । हवि का सेवन करनेवाला, ज्योतिर्मय मस्तिष्कवाला 'अरुण वैतहव्य' इसका ऋषि था। यह 'अरुण' अब 'मानव' विचारशील बन जाता है और 'शार्यात ' = [शृ हिंसायाम्, या प्रापणे] सब वासनाओं का हिंसन करता हुआ प्रभु को प्राप्त करनेवाला होता है। इसका कथन है कि-

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    विषय

    यज्ञाहुतिवत् तेजस्वी में कर आदि देना।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्रणी ! तेजस्विन् ! (स्त्रुचि घृतम् इव) स्रुच, में जिस प्रकार यज्ञ से घृत और हवि की आहुति दी जाती है, उसी प्रकार हे (अग्ने) तेजस्विन् ! (ते आस्ये) तेर मुख में (हविः अहावि) उत्तम ग्राह्य वचन हों। और (घृतम्) मुख पर तेज हो (चम्वि इव सोमः) पर चमस में सोम के तुल्य (चम्वि) तेरी सेना के आधार पर तेरा (सोमः) ऐश्वर्य हो। तू (अस्मे) हमें (वाजसनिं रयिम्) बल और अन्न देने वाला ऐश्वर्य, (प्रशस्तं सु-वीरम्) उत्तम, प्रशंसा योग्य, सुखदायी वीर जन और (बृहन्तं यशसम्) महान् यश (धेहि) प्रदान कर। इति द्वाविंशी वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः अरुणो वैतहव्यः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृज्जगती। २, ४, ५, ९, १०, १३ विराड् जगती। ८, ११ पादनिचृज्जगती। १२, १४ जगती। १५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूकम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने) हे अग्रणायक ! (ते) तुभ्यं तव प्राप्तये (हविः-आस्ये-अहावि) स्वात्मानं व्याप्त्याख्ये मुखे-“आस्ये व्याप्त्याख्ये मुखे” [ऋ० ६।१।६३ दयानन्दः] ददामि समर्पयामि (स्रुचि-इव घृतम्) यथा स्रुवायां घृतं स्थापयति (चम्वि-इव-सोमः) यथा चमसे-पात्रे सोमरसः स्थाप्यते (अस्मे) अस्मभ्यम् (वाजसनिम्) अमृतान्नभोगप्राप्तिकरम् “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै० २।१९३] (सुवीरम्) शोभनप्राणवन्तम् “प्राणा वै वीराः” [श० १२।८।१।२२] (प्रशस्तम्) श्रेष्ठं (यशसम्) यशस्विनं (बृहन्तम्) महान्तम् (रयिं धेहि) आत्मपोषं “रयिं देहि पोषं देहि” [काठ० १।७] धारय-स्थापय ॥१५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, fragrant havi is offered into the sacred fire as ghrta in the ladle and soma in the cup. Pray bear and bring us rising prosperity with food, sustenance and victory, wealth, noble progeny, and honour and glory of the noblest order.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याच्या व्याप्त स्वरूपात आपल्या आत्म्याला समर्पित करावे. तेव्हा तो परमात्मा उत्तम जीवन, यशस्वी सुख, शांती, संतोषरूप स्वात्मस्वरूपाला आमच्यामध्ये ठेवतो. ॥१५॥

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