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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 91/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अरुणो वैतहव्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    तव॒ श्रियो॑ व॒र्ष्य॑स्येव वि॒द्युत॑श्चि॒त्राश्चि॑कित्र उ॒षसां॒ न के॒तव॑: । यदोष॑धीर॒भिसृ॑ष्टो॒ वना॑नि च॒ परि॑ स्व॒यं चि॑नु॒षे अन्न॑मा॒स्ये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तव॑ । श्रियः॑ । व॒र्ष्य॑स्यऽइव । वि॒ऽद्युतः॑ । चि॒त्राः । चि॒कि॒त्रे॒ । उ॒षसा॑म् । न । के॒तवः॑ । यत् । ओष॑धीः । अ॒भिऽसृ॑ष्टः । वना॑नि । च॒ । परि॑ । स्व॒यम् । चि॒नु॒षे । अन्न॑म् । आ॒स्ये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव श्रियो वर्ष्यस्येव विद्युतश्चित्राश्चिकित्र उषसां न केतव: । यदोषधीरभिसृष्टो वनानि च परि स्वयं चिनुषे अन्नमास्ये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तव । श्रियः । वर्ष्यस्यऽइव । विऽद्युतः । चित्राः । चिकित्रे । उषसाम् । न । केतवः । यत् । ओषधीः । अभिऽसृष्टः । वनानि । च । परि । स्वयम् । चिनुषे । अन्नम् । आस्ये ॥ १०.९१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 91; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (तव) हे परमात्मन् ! तेरी (श्रियः) दर्शन आभाएँ (वर्ष्यस्य-इव विद्युतः-चित्राः) बरसनेवाले मेघ की विचित्र-बिजलियों के समान प्रतीत होती हैं (उषसां केतवः-न) अथवा, प्रातःकालीन उषाओं की चमकती धाराओं के समान प्रतीत होती हैं (यत्-ओषधीः) जब दोषों को पीनेवाले विद्वानों तथा (वनानि-च-अभिसृष्टः) सुभजनीय अन्तःकरणों को प्राप्त होता है, (स्वयं परि चिनुषे) तू स्वयं संवरण करता है, तो (आस्ये-अन्नम्) जैसे कोइ मुख में अन्न को संवरण करता है-लेता है-पचाता है ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा की दर्शन-आभाएँ विद्युत् की धाराओं के समान या प्रातःकालीन उषाओं की चमकती धाराओं के समान विद्वानों को प्राप्त होती हैं, विद्वान् जनों को वह साक्षात् होता है और उन्हें अपने अन्दर ऐसे धारण करता है, जैसे कोई अभीष्ट अन्न को सुरक्षित रखता है ॥५॥

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    विषय

    सात्त्विक आहार

    पदार्थ

    [१] हे अग्ने! (तव) = आपकी (श्रियः) = शोभाएँ (वर्ष्यस्य) = वृष्टि करनेवाले मेघ की (विद्युतः इव) = विद्युतों के समान (चित्राः) = अद्भुत (चिकित्रे) = जानी जाती हैं। आपकी शोभाएँ (उषसां केतवः न) = उषा की रश्मियों के समान हैं। जैसे विद्युत् में छेदन-भेदन शक्ति है इसी प्रकार प्रभु की उपस्थिति सब वासनाओं को छिन्न कर देती है । जैसे उषा के प्रकाश की किरणें अन्धकार को दूर कर देती हैं, उसी प्रकार प्रभु की उपस्थिति अज्ञानान्धकार को भगा देती है । [२] इस प्रभु की उपस्थिति हमारे हृदयों में होती कब है ? (यद्) = जब, हे उपासक ! तू (ओषधीः अभि) = ओषधियों की ओर (सृष्ट:) = प्रेरित [send forth ] होता है, अर्थात् ओषधियाँ ही तेरा भक्ष्य होती हैं, (च) = और (वनानि) [अभिसृष्ट:] = [वनं= water] पानी की ओर प्रेरित होता है, पानी ही तेरा पेय बनता है। तू स्वयं = आप ही आस्ये मुख में (अन्नं परिचिनुषे) = अन्न का ही परिचय प्राप्त करता है, अन्न को ही खाता है, उसी को स्वाद को जानता है । वस्तुतः प्रभु प्राप्ति के लिये 'सादे वानस्पतिक भोजन व पानी का ही ग्रहण' करना आवश्यक है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु दर्शन के लिए सात्त्विक आहार के द्वारा बुद्धि का सात्त्विक बनाना आवश्यक है ।

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    विषय

    मेघस्थ बिजुलियों वा प्रभात की कान्तियों के तुल्य, आत्मा को ज्ञान-प्रवृत्तियां।

    भावार्थ

    (वर्ष्यस्य इव विद्युतः) वर्षने वाले विद्युत् से युक्त चमचमाते मेघ की चमकती (श्रियः) शोभा या कान्तियों के तुल्य (तव श्रियः चिकित्रे) तेरी कान्तियां जानी जाती हैं। और (तव श्रियः) तेरी कान्तियें (उषसां केतवः न) प्रभात वेलाओं की रश्मियों के तुल्य प्रतीत होती हैं। (यत्) जिस प्रकार (अग्निः वनानि अभि-सृष्टः स्वयं परि चिनुते) काष्ठों के साथ लगकर स्वयं उसको जलाने लगता है उसी प्रकार (यत् ओषधीः अभिसृष्टः) जब आत्मा देहवान् होकर ओषधियों की ओर जाता है तो (स्वयं) आप से आप (आस्ये अन्नम् परि चिनुषे) मुख में अन्न, अर्थात् खाद्य पदार्थ को प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार परमेश्वर भी (ओषधीः अभि-सृष्टः) अग्नि आदि शक्तियों से सम्पन्न होकर (अन्नम्) अन्नवत् समस्त जगत् को अपने भीतर लील लेता है। इति विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः अरुणो वैतहव्यः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृज्जगती। २, ४, ५, ९, १०, १३ विराड् जगती। ८, ११ पादनिचृज्जगती। १२, १४ जगती। १५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूकम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (तव) हे अग्ने परमात्मन् ! तव (श्रियः) शोभाः-दर्शनाभासः (वर्ष्यस्य-इव विद्युतः-चित्राः) वर्षितुं योग्यस्य मेघस्य विद्युत इव चित्रा आश्चर्यमय्यः प्रतीयन्ते (उषसां केतवः-न) यद्वा-प्रातस्तनीनामुषसां भासा रश्मिधारा-इव प्रतीयन्ते (यत्-ओषधीः-वनानि-च) यदा-ओषधीन् विदुषः प्रति “ओषधयः-दोषं धयन्तीति) [निरु० ९।२७] “ओषधेः-ओषधिवद् वर्तमान विद्वन्” [यजुः १२।१०० दयानन्दः] तथा सम्भजनीयान्यन्तःकरणानि (अभि-सृष्टः) प्राप्तः सन् (स्वयं परि चिनुषे) त्वं स्वयं परिचिनोषि-संवृणोषि तर्हि (आस्ये-अन्नम्) यथा कश्चिददनीयं मुखे संवृणोति संरक्षति ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Your wonderful lustre and beauties shine like lightning flashes of the clouds of rain, like lights of the rising dawns, specially when, radiating warm and free, you reach and shine upon the herbs and trees and fields of grain and receive them into the shining warmth of your maturing and ripening radiations.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याच्या दर्शन आभा विद्युतच्या धारांप्रमाणे विद्वानांना प्राप्त होतात. विद्वान लोकांना तो साक्षात होतो व त्यांना आपल्यामध्ये असे धारण करतो जसे कोणी अभीष्ट अन्न सुरक्षित ठेवतो. ॥५॥

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