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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 91/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अरुणो वैतहव्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    तमोष॑धीर्दधिरे॒ गर्भ॑मृ॒त्वियं॒ तमापो॑ अ॒ग्निं ज॑नयन्त मा॒तर॑: । तमित्स॑मा॒नं व॒निन॑श्च वी॒रुधो॒ऽन्तर्व॑तीश्च॒ सुव॑ते च वि॒श्वहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । ओष॑धीः । द॒धि॒रे॒ । गर्भ॑म् । ऋ॒त्विय॑म् । तम् । आपः॑ । अ॒ग्निम् । ज॒न॒य॒न्त॒ । मा॒तरः॑ । तम् । इत् । स॒मा॒नम् । व॒निनः॑ । च॒ । वी॒रुधः॑ । अ॒न्तःऽव॑तीः । च॒ । सुव॑ते । च॒ । वि॒श्वहा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमोषधीर्दधिरे गर्भमृत्वियं तमापो अग्निं जनयन्त मातर: । तमित्समानं वनिनश्च वीरुधोऽन्तर्वतीश्च सुवते च विश्वहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । ओषधीः । दधिरे । गर्भम् । ऋत्वियम् । तम् । आपः । अग्निम् । जनयन्त । मातरः । तम् । इत् । समानम् । वनिनः । च । वीरुधः । अन्तःऽवतीः । च । सुवते । च । विश्वहा ॥ १०.९१.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 91; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (तम्-अग्निम्) उस अग्रणायक परमात्मा को या भौतिक अग्नि को (ओषधीः) दोषों को समाप्त करनेवाले विद्वान् जन अथवा गेहूँ आदि ओषधियाँ (ऋत्वियम्) यथासमय (गर्भं दधिरे) अपने अन्दर परमात्मा को धारण करते हैं या अपने अन्दर जाठर अग्नि को धारण करते हैं (तम्-आपः-मातरः-जनयन्त) उस परमात्मा को या  अग्नि को आप्तजन मान करनेवाले या व्याप्त जलप्रवाह निर्माण करनेवाले अपने अन्दर प्रकट करते हैं (तं समानम्-इत्) उस समानभाव से (वनिनः-वीरुधः) वनवासी वानप्रस्थ विरक्तजन या वन में होनेवाले वनस्पति वृक्ष विशेषतः रोहणशील युवाजन ब्रह्मचारी तथा लताएँ (अन्तर्वतीः) गर्भिणियों के समान (विश्वहा सुवते) सदा सन्तान अथवा अन्न को प्रकट करती हैं ॥६॥

    भावार्थ

    परमात्मा को आप्त संन्यासी जन, वानप्रस्थ और ब्रह्मचारी विशेषरूप से अपने अन्दर धारण किया करते हैं, गृहस्थ जन भी यथासमय धारण करते हैं। उसकी कृपा से गर्भवती सन्तान को जन्म देती है एवं भौतिक अग्नि को अपने अन्दर जलप्रवाह वृक्षादि वनस्पतियाँ बढ़नेवाली लताएँ धारण करती हैं और अन्न को उत्पन्न करती हैं ॥६॥

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    विषय

    ओषधि- आपः

    पदार्थ

    [१] प्रभु को यहाँ 'गर्भं ऋत्वियम्' [क्रतु=light, splendous ] 'प्रकाशमय गर्भ' कहा है, यही भाव 'हिरण्यगर्भ' शब्द से भी व्यक्त होता है । सब ज्योतिर्मय पदार्थ उस प्रभु के गर्भ में हैं, सो प्रभु 'ऋत्विय-प्रकाशमय - गर्भ' हैं। (तम्) = उस (ऋत्वियं गर्भम्) = प्रकाशमय गर्भ को, उस हिरण्यगर्भ को (ओषधीः) = ओषधियाँ (दधिरे) = धारण करती हैं । अर्थात् ओषधियों वनस्पतियों के भोजन से सात्त्विक बुद्धिवाला पुरुष ही हृदय में प्रभु को धारण करनेवाला बनता है । [२] (तम् अग्निं) = उस अग्रणी प्रभु को (मातरः आपः) = मातृवत् हित करनेवाले जल (जनयन्त) = प्रादुर्भूत करते हैं । इन जलों के प्रयोग से निर्मल व शुद्ध हृदय में प्रभु का सक्षात्कार होता है। 'सादा खाना, पानी पीना' यह सात्विकता का कारण बनता है और इस सात्विकता के कारण हम प्रभु का दर्शन करते हैं । [३] (तम्) = उस (समानम्) = [सम्यक् आनयति] सम्यक् प्राणित करनेवाले प्रभु को (वनिनः) = वन में होनेवाली (वीरुधः) = ये लताएँ (इत्) = ही (सुवते) = जन्म देती हैं, प्रादुर्भूत करती हैं । (च) = और (विश्वहा) = सदा (अन्तर्वतीः) = फल-बीजों को धारण करनेवाली लताएँ [सुवते ] = उस प्रभु को हमारे हृदयों में प्रादुर्भूत करती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - दर्शन के लिये वानस्पतिक भोजन व जल का ही प्रयोग आवश्यक है ।

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    विषय

    ओषधियों, मेघादि के दृष्टान्त से जीव के गर्भ में आने का वर्णन।

    भावार्थ

    (ओषधीः ऋत्वियं गर्भम्) ओषधियें जिस प्रकार ऋतु-अनुसार प्राप्त गर्भ को धारण करती हैं और (आपः अग्निम्) जिस प्रकार जल तत्त्व अपने भीतर अग्नि तत्व को वा मेघस्थ जल विद्युत् अग्नि को धारण करते और (जनयन्त) प्रकट करते हैं, (वनिनः वीरुधः तम् अग्निम्) और जिस प्रकार वन की ओषधियें उस अग्नि को अपने में धारण करती हैं उसी प्रकार (ओषधीः मातरः) वीर्य को धारण करने वाली माताएं (तम्) उस (अग्निम्) स्वप्रकाश, (समानम्) ज्ञान से युक्त आत्मा को (ऋत्वियम् गर्भम्) ऋतु अनुसार प्राप्त गर्भ के रूप में (दधिरे जनयन्त) धारण और उत्पन्न करती हैं। और (अन्तर्वतीः) वे गर्भिणी होकर (विश्वहा च सुवते) सर्वदा उत्पन्न करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः अरुणो वैतहव्यः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृज्जगती। २, ४, ५, ९, १०, १३ विराड् जगती। ८, ११ पादनिचृज्जगती। १२, १४ जगती। १५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूकम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (तम्-अग्निम्) तं परमात्मानं यद्वाऽग्निं (ओषधीः-ऋत्वियं गर्भं दधिरे) दोषधयनशीला विद्वांसः-गोधूमादयो वा यथासमयं मध्ये वर्तमानं परमात्मानमग्निं वा धारयन्ति (तम्-आपः-मातरः-जनयन्त) तं परमात्मानं यद्वाऽग्निं खल्वाप्ता जनाः मानकर्त्तारो व्याप्ता जलप्रवाहाश्च मातृभूताः स्वाभ्यन्तरे प्रादुर्भावयन्ति (तं समानम्-इत्) तमेव समानभावेन (वनिनः-वीरुधः) वनवासिनो वानप्रस्था विरक्ताः, वने भवा वनस्पतयो वा तथा विशेषेण रोहणशीला युवानो ब्रह्मचारिणः, यद्वा लताश्च (अन्तर्वतीः) गर्भिण्य इव (विश्वहा सुवते) सर्वदा उद्भावयन्ति ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That Agni, energy, the herbs and waters receive into them and they bear it as mothers, producing it on maturity as nourishment and energy for life forms. The same Agni, the herbs and trees of the forest receive equally, hold it in the womb and always produce it as the embodiment of energy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आप्त, संन्यासी, वानप्रस्थ व ब्रह्मचारी परमेश्वराला विशेषरूपाने आपल्यामध्ये धारण करतात. गृहस्थलोकही यथावकाश धारण करतात. त्याच्या कृपेने गर्भवती संतानाला जन्म देते व भौतिक अग्नीला जलप्रवाह, वृक्ष इत्यादी वनस्पती, वाढणाऱ्या लता आपल्यामध्ये धारण करतात व अन्न उत्पन्न करतात. ॥६॥

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