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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 95/ मन्त्र 17
    ऋषिः - पुरूरवा ऐळः देवता - उर्वशी छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒न्त॒रि॒क्ष॒प्रां रज॑सो वि॒मानी॒मुप॑ शिक्षाम्यु॒र्वशीं॒ वसि॑ष्ठः । उप॑ त्वा रा॒तिः सु॑कृ॒तस्य॒ तिष्ठा॒न्नि व॑र्तस्व॒ हृद॑यं तप्यते मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्त॒रि॒क्ष॒ऽप्राम् । रज॑सः । वि॒ऽमानी॑म् । उप॑ । शि॒क्षा॒मि॒ । उ॒र्वशी॑म् । वसि॑ष्ठः । उप॑ । त्वा॒ । रा॒तिः । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । तिष्ठा॑त् । नि । व॒र्त॒स्व॒ । हृद॑यम् । त॒प्य॒ते॒ । मे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तरिक्षप्रां रजसो विमानीमुप शिक्षाम्युर्वशीं वसिष्ठः । उप त्वा रातिः सुकृतस्य तिष्ठान्नि वर्तस्व हृदयं तप्यते मे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्तरिक्षऽप्राम् । रजसः । विऽमानीम् । उप । शिक्षामि । उर्वशीम् । वसिष्ठः । उप । त्वा । रातिः । सुऽकृतस्य । तिष्ठात् । नि । वर्तस्व । हृदयम् । तप्यते । मे ॥ १०.९५.१७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 95; मन्त्र » 17
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अन्तरिक्षप्राम्) मेरे आत्मा को पूर्ण करनेवाली-तृप्त करनेवाली (रजसः विमानीम्) रञ्जनात्मक गृहस्थसुख का निर्माण करनेवाली (उर्वशीम्) बहुत कमनीय भार्या को (वसिष्ठः) तेरे अन्दर अत्यन्त बसनेवाला मैं पति (उप शिक्षामि) अपना वीर्यं समर्पित करता हूँ (सुकृतस्य) शुभकर्म-संयम-यथावत्-आचरित ब्रह्मचर्य की (रातिः) फलरूप दानक्रिया (त्वा) तेरे अन्दर (उप तिष्ठात्) उपस्थित रहे-सन्तान बनावे (नि वर्तस्व) निवृत्त हो (मे) मेरा (हृदयम्) हृदय (तप्यते) पीड़ित होता है तेरे पास रहने से, अतः जा ॥१७॥

    भावार्थ

    पत्नी पति की आत्मा को तृप्त करती है, रञ्जनीय गृहस्थसुख निर्माण करती है, कमनीय है, अतः पति उसके अन्दर अत्यन्त राग से बसा रहता है, वह संयम से यथावत् पालित ब्रह्मचर्य के फलरूप वीर्य को पत्नी को समर्पित करता है, जो उसके अन्दर उपस्थित हो गर्भ-पुत्ररूप में पुष्ट होता है। गर्भस्थित हो जाने पर पत्नी को पतिगृह से पिता भ्राता आदि के यहाँ चला जाना चाहिए, जिससे कि गर्भ की रक्षा पुत्रोत्पत्ति के योग्य हो जावे। पति के पास न रहे, पास रहने से पति कामभाव से पीड़ित होता है, उसके द्वारा गर्भपात करने की सम्भावना है ॥१७॥

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    विषय

    पुरुरवा का उत्तर

    पदार्थ

    [१] पूरुरवा उर्वशी की बातों का उत्तर देते हुए कहते हैं कि मैं (वसिष्ठः) = वाणी पर पूर्ण प्रभुत्व को रखनेवाला मुँह से व्यर्थ की बातों को न निकालनेवाला, (उर्वशीम्) = तुझ उर्वशी को, अपने पर नियन्त्रण रखनेवाली को (उप शिक्षामि) = अपने समीप कर सकने की कामना करता हूँ [शक्ति: सन्नन्तः] । तू तो (अन्तरिक्ष-प्राम्) = मेरे हृदयान्तरिक्ष का पूरण करनेवाली है, मेरे हृदय तेरे सिवाय किसी और के लिए स्थान नहीं । (रजसः विमानीम्) = तू मेरे रञ्जन व अनुराग का विशेषरूप से निर्माण करनेवाली है । तेरे विषय में मैं कुछ अशुभ शब्द कहूँ यह सम्भव ही कैसे हो सकता है ? तुझे ऐसी बातों पर विश्वास न करना चाहिए। [२] (त्वा) = तुझे (सुकृतस्य) = उत्तम मार्ग से कमाये हुए धन का (राति:) = देनेवाला यह पुरुरवा (उपतिष्ठात्) = उपस्थित हो । अर्थात् खान-पान - भोजनाच्छादन की समस्या तो इस स्थिति में पैदा ही नहीं हो सकती। मैं तो कमानेवाला ही हूँगा, जोड़ना खर्चना तो होगा ही तुम्हारा काम । सो (निवर्तस्व) = अब लौट चलो। (मे हृदयं तप्यते) = मैं सचमुच दिल में बड़ा सन्तप्त हूँ । इस सारी बात का ध्यान करके तुम्हें लौट ही चलना चाहिए ।

    भावार्थ

    भावार्थ- पति को पत्नी ही प्रिय हो । वह कमाने और पत्नी खर्चे व जोड़े। इस प्रकार दोनों घर को सुन्दर बनाएँ ।

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    विषय

    सेनापति की प्रतिज्ञा वा कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    मैं (वसिष्ठः) सब वसुओं, प्रजाजनों में श्रेष्ठ होकर (अन्तरिक्षप्राम्) अन्तरिक्ष अर्थात् विजिगीषु और शत्रु-भूमियों के मध्य भाग को पूर्ण करने वाली, (रजसः विमानीम्) रजस, धाम वा लोक या राष्ट्र को विविध प्रकार से बनाने वाली, (उर्वशीं) बहुत बड़े २ राष्ट्र के वश करने में समर्थ सेना को मैं (उप शिक्षामि) वश करता हूं। हे सेने ! (सु-कृतस्य) उत्तम रीति से किये कर्म का फल, पारितोषक आदि को (रातिः) देने वाला स्वामी, वह दान ही (त्वा उप तिष्ठात्) तुझे प्राप्त हो। तू (नि वर्तस्व) नियम में रह कर कार्य कर अन्यथा (मे हृदयं तप्यते) मेरा हृदय दुष्टों के प्रति प्रजा की पीड़ा के कारण संताप अनुताप अनुभव करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ३, ६, ८—१०, १२, १४, १७ पुरूरवा ऐळः। २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ उर्वशी॥ देवता—१,३,६,८-१०,१२,१४,१७ उर्वशी; २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ पुरुरवा ऐळः॥ छन्दः—१,२,१२ त्रिष्टुप्; ३,४,१३,१६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५,१० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६–८, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ९, ११, १४, १७, १८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अन्तरिक्षप्राम्) आत्मनः पूरयित्रीम् “आत्मान्तरिक्षम्” [काठ० १६।२] (रजसः विमानीम्) रञ्जनात्मकस्य गृहस्थसुखस्य निर्मात्रीं (उर्वशीम्) बहुकमनीयां भार्यां (वसिष्ठः) त्वयि खल्वतिशयेन वसिताऽहं पतिः (उप शिक्षामि) उपददामि स्ववीर्यम् “शिक्षति दानकर्मा” (निघं० ३।२०) (सुकृतस्य रातिः) शुभकर्मणः संयमस्य यथावदाचरितस्य ब्रह्मचर्यस्य फलभूता दानक्रिया (त्वा-उप तिष्ठात्) त्वयि ‘सप्तम्यर्थे द्वितीया छान्दसी व्यत्ययेन’ उपतिष्ठेत् (नि वर्तस्व) मत्तो निवृत्ता भव (मे हृदयं तप्यते) मम हृदयं तप्यते पार्श्वे त्वत्स्थित्या, तस्मान्निवृत्ता भव ॥१७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I, Vasishtha, closest ardent lover, speak to Urvashi, spirit of boundless beauty, light and love, and celebrate this ranger of the skies, controller of vapours and breaker of the cloud. May the bounty of divine generosity ever abide by you. My heart is burning, pray turn, return and fulfil the divine purpose.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पत्नी पतीच्या आत्म्याला तृप्त करते. रंजनात्मक गृहस्थ सुख निर्माण करते. कमनीय असते. त्यामुळे पती तिच्या अत्यंत मोहात असतो. ब्रह्मचर्य पाळून संयमाने राहून वीर्य पत्नीला समर्पित करतो. त्यामुळे गर्भ पुष्ट होतो. गर्भ स्थित झाल्यानंतर पत्नीला पुत्रोत्पत्तीच्या दृष्टीने योग्य व्हावे यासाठी पिता, भ्राता इत्यादीकडे गेले पाहिजे. पतीजवळ राहण्याने पती कामभावनेने पीडित होतो त्याद्वारे गर्भपात होण्याचा संभव आहे. ॥१७॥

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