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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 98/ मन्त्र 5
    ऋषिः - देवापिरार्ष्टिषेणः देवता - देवाः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ॒र्ष्टि॒षे॒णो हो॒त्रमृषि॑र्नि॒षीद॑न्दे॒वापि॑र्देवसुम॒तिं चि॑कि॒त्वान् । स उत्त॑रस्मा॒दध॑रं समु॒द्रम॒पो दि॒व्या अ॑सृजद्व॒र्ष्या॑ अ॒भि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒र्ष्टि॒षे॒णः । हो॒त्रम् । ऋषिः॑ । नि॒ऽसीद॑न् । दे॒वऽआ॑पिः । दे॒व॒ऽसु॒म॒तिम् । चि॒कि॒त्वान् । सः । उत्ऽत॑रस्मात् । अध॑रम् । स॒मु॒द्रम् । अ॒पः । दि॒व्याः । अ॒सृ॒ज॒त् । व॒र्ष्याः॑ । अ॒भि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आर्ष्टिषेणो होत्रमृषिर्निषीदन्देवापिर्देवसुमतिं चिकित्वान् । स उत्तरस्मादधरं समुद्रमपो दिव्या असृजद्वर्ष्या अभि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आर्ष्टिषेणः । होत्रम् । ऋषिः । निऽसीदन् । देवऽआपिः । देवऽसुमतिम् । चिकित्वान् । सः । उत्ऽतरस्मात् । अधरम् । समुद्रम् । अपः । दिव्याः । असृजत् । वर्ष्याः । अभि ॥ १०.९८.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 98; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (आर्ष्टिषेणः-देवापिः-ऋषिः) ऋष्टि शस्त्र सेना में जिसकी है या ऋष्टि शस्त्र युक्त सेना जिसकी है, ऐसे राजा का पालक पुरोहित देवापि ऋषि अथवा मरुतों-सैनिक गण का रक्षक विद्युदग्नि (होत्रं निषीदन्) वृष्टियज्ञ को नियमितरूप से प्राप्त होता हुआ (देवसुमतिम्) विद्वान् ऋत्विजों की कल्याणमति को या मरुत् आदि आकाशीय देवों की कल्याणकारी प्रवृत्ति को (चिकित्वान्) स्वानुकूल किये हुए मेघ वर्षा के लिए (सः) वह (उत्तरस्मात्) ऊपर से-ऊपर के समुद्र से (अधरं समुद्रम्) नीचे पृथिवी के समुद्र की ओर (दिव्याः) आकाश में होनेवाले (वर्ष्याः) वर्षने के योग्य (अपः) जलों को (अभि-असृजत्) क्षारित करता है-गिराता है बरसाता है ॥५॥

    भावार्थ

    शक्तिशाली सेनायुक्त राजा का पुरोहित अन्य ऋत्विक् विद्वानों की सहमति को प्राप्त कर विशेष यज्ञ करके आकाशीय जल समुद्र से नीचे पृथिवी के समुद्र तक जल की वृष्टि कराये एवं आकाश के अन्दर मरुतों-वात-स्तरों का रक्षक विद्युदग्नि अन्य भौतिक देवों के योग से सम्पन्न होकर ऊपर से नीचे पृथिवी तक जल को बरसा देता है ॥५॥

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    विषय

    उत्तर समुद्र से अधर समुद्र की ओर दिव्य जलों का प्रवाह

    पदार्थ

    [१] 'ऋष' धातु 'नष्ट करना' इस अर्थ की वाचक है। 'वासनाओं को नष्ट करनेवाली है इन्द्रिय, मन व बुद्धिरूप सेना जिसकी' वह व्यक्ति 'आर्ष्टिषेण' है। यह (आर्ष्टिषेण:) = आर्ष्टिण (ऋषिः) = वासनाओं का संहार करनेवाला बनकर (होत्रं निषीदन्) = [होत्रम्] स्तवन में व यज्ञों में आसीन होता है। इस स्तवन व यज्ञशीलता से (देवापिः) = [देवाः आपयो यस्य] देवों का मित्र बनकर देवसुमतिं चिकित्वान् देवों की कल्याणी मति को जाननेवाला होता है। देवों के सम्पर्क में आकर उत्तम ज्ञान को प्राप्त करता है। माता, पिता व आचार्य आदि देव उसके ज्ञान को बढ़ानेवाले होते हैं। [२] (सः) = वह आर्ष्टिषेण देवापि (उत्तरस्मात्) [समुद्रात् ] = उत्कृष्ट ज्ञान समुद्रभूत आचार्यों से (अधरं समुद्रं अभि) = इस निचले समुद्र की ओर, अर्थात् अपनी ओर (दिव्याः अपः) = इन प्रकाशरूप अलौकिक ज्ञान जलों को असृजत् प्रवाहित करता है। ये ज्ञानजल (वर्ष्या:) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले होते हैं, ज्ञानजलों के आधार होने के दृष्टिकोण से आचार्य 'उत्तर समुद्र' है और विद्यार्थी 'अधर समुद्र' । आचार्य से विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्त होता है, यही उत्तर समुद्र से अधर समुद्र की ओर जल का बरसना है। ये ज्ञानजल दिव्य हैं, प्रकाशमय होने से अलौकिक हैं और सुखों का वर्षण करनेवाले होने से 'वर्ष्य' हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम इन्द्रियों, मन व बुद्धि को वासनाओं के संहार के लिए प्रेरित करें। आचार्यों के सम्पर्क में आकर ज्ञानजलों के समुद्र बनने का यत्न करें।

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    विषय

    प्रभु भक्त के प्रति आनन्द-वर्षी घन प्रभु की कृपा। मेघ-वृष्टि पक्ष में—मेध-विद्यावान् का यज्ञों द्वारा आकाश से वृष्टुयत्पादन।

    भावार्थ

    (देव-सुमतिं चिकित्वान्) प्रभु परमेश्वर के प्रति शुभ मति, बुद्धि और स्तुति को जानने वाला (देवापिः) प्रभु का बन्धु, भक्त जन (आर्ष्टिषेणः) दर्शनकारिणी शक्तियों को सेनावत् वश करने वाला जितेन्द्रिय, (ऋषिः) यथार्थ तत्वदर्शी होकर (होत्रम् निषीदन्) पुकारने योग्य प्रभु की उपासना करता है, उसी में निष्ठा करता है। (सः) वह (उत्तरस्मात्) उत्कृष्ट समुद्रवत् आनन्द सागर प्रभु से (अधरं समुद्रं) नीचे के समुद्रवत् अपने अन्तःकरण के प्रति (दिव्याः वर्ष्याः अपः अभि असृजत्) दिव्य सुख-वृष्टि रूप आनन्दमय रसों को प्राप्त कराता है। (२) मेघ-वृष्टिपक्ष में—(देवापिः) किरणों को अपना हविः-तत्व प्राप्त कराने वाला विद्वान् (देव-सुमतिं चिकित्वान्) देवों, वायु, जल, सूर्य रश्मियों के उत्तम मति अर्थात् ज्ञान, वायु-विज्ञान, जल-विज्ञान को जानने वाला पुरुष, (आर्ष्टिषेणः) ऋष्टि अर्थात् वृष्टि की ‘सेना’ अर्थात् दलों के स्वामी मेघ का ज्ञाता होकर (होत्रम् निषीदन्) आहुतिमय यज्ञ को निष्ठा पूर्वक करे। और उत्तर समुद्र अर्थात् आकाश से अधर समुद्र अर्थात् भूतल की ओर दिव्य आकाशी वृष्टियों को नीचे लावे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्देवापिरार्ष्टिषेणः। देवा देवताः॥ छन्द:- १, ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। २, ६, ८, ११, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५ त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १० विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (आर्ष्टिषेणः-देवापिः-ऋषिः) ऋष्टिः शस्त्रविशेषः-ऋष्टयः सेनायां यस्य ऋष्टियुक्ता सेना वा यस्य “मध्यदलोपीसमासः” ऋष्टिः-ऋष्टिमती-‘मतुब्लोपश्छान्दसः’ सेना यस्य तथाभूतस्य राज्ञः पालकः पुरोहितो देवापिर्ऋषिः, यद्धा मरुतां सेनाभूतानां गणस्य-रक्षको देवापिर्विद्युदग्निः “वि ये भ्राजन्ते सुमखास ऋष्टिभिः प्रच्यावयन्तः अच्युता चिदोजसा” [ऋ० १।८५।४] “मरुत ऋष्टिमन्तः” [ऋ० ३।५४।१३] तस्य मरुद्गणस्य पुत्रः पालको वा विद्युत् “आविद्युन्मद्भिर्मरुतः…ऋष्टिमद्भिः” [ऋ० १।८८।१] यथा सहसा सूनुरग्निर्ऋषिः प्रगतिशीलः (होत्रम्-निषीदन्) वृष्टियज्ञं नितरां प्राप्नुवन् (देव सुमतिं चिकित्वान्) विदुषामन्यर्त्विजां कल्याणीं मतिं यद्वा मरुदादीनामाकाशीयदेवानां कल्याणकरीं प्रवृत्तिं चेकित्वान् स्वानुकूलं कृतवान् सन् मेघवर्षणाय (सः-उत्तरस्मात्-अधरं समुद्रम्) स उपरिष्टादन्तरिक्षस्थसमुद्रान्नीचैः पृथिवीस्थं समुद्रं प्रति (दिव्याः-वर्ष्याः-अपः-अभि-असृजत्) दिवि भवा वर्षणयोग्या अपोऽक्षारयत् क्षारयति पातयति ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Arshtishena Devapi, sagely seer knowing the dynamics of yajnic creation and the qualities and functioning of different divine facts of nature and life in full knowledge of the moods of beneficent divinities, may seat himself on the vedi of yajna, create clouds of divine water in the vast sky above and bring down showers from the ocean above to the earth for fields, rivers and the seas.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सामर्थ्यवान सेनायुक्त राजाच्या पुरोहिताने इतर ऋत्विक विद्वानाच्या मान्यतेने विशेष यज्ञ करून आकाशीय जलसमुद्रातून पृथ्वीच्या समुद्रापर्यंत जलाची वृष्टी करवावी व आकाशात मरुतांचा रक्षक विद्युतअग्नी इतर भौतिक देवांच्या योगाने संपन्न बनून वरून खाली पृथ्वीपर्यंत जलाचा वर्षाव करतो. ॥५॥

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