ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 99/ मन्त्र 12
ए॒वा म॒हो अ॑सुर व॒क्षथा॑य वम्र॒कः प॒ड्भिरुप॑ सर्प॒दिन्द्र॑म् । स इ॑या॒नः क॑रति स्व॒स्तिम॑स्मा॒ इष॒मूर्जं॑ सुक्षि॒तिं विश्व॒माभा॑: ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । म॒हः । अ॒सु॒र॒ । व॒क्षथा॑य । व॒म्र॒कः । प॒ट्ऽभिः । उप॑ । स॒र्प॒त् । इन्द्र॑म् । सः । इ॒या॒नः । क॒र॒ति॒ । स्व॒स्तिम् । अ॒स्मै॒ । इष॑म् । ऊर्ज॑म् । सु॒ऽक्षि॒तिम् । विश्व॑म् । आ । अ॒भा॒रित्य॑भाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा महो असुर वक्षथाय वम्रकः पड्भिरुप सर्पदिन्द्रम् । स इयानः करति स्वस्तिमस्मा इषमूर्जं सुक्षितिं विश्वमाभा: ॥
स्वर रहित पद पाठएव । महः । असुर । वक्षथाय । वम्रकः । पट्ऽभिः । उप । सर्पत् । इन्द्रम् । सः । इयानः । करति । स्वस्तिम् । अस्मै । इषम् । ऊर्जम् । सुऽक्षितिम् । विश्वम् । आ । अभारित्यभाः ॥ १०.९९.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 99; मन्त्र » 12
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एव) इस प्रकार (महः-असुर) हे महान् प्राणप्रद परमात्मन् ! (वक्षथाय) संसार वहन करनेवाले तुझ परमात्मा के लिए-तेरी प्राप्ति के लिए (वम्रकः) यह भोगों को पुनः-पुनः वमन की भाँति ग्रहण करनेवाला जीवात्मा (पड्भिः) अध्यात्मपादों-प्रापणीय योगाङ्गों के द्वारा (इन्द्रम्) परमात्मा के (उप सर्पत्) पास जाता है (सः) वह परमात्मा (इयानः) प्राप्त होता हुआ (अस्मै) इस आत्मसमर्पी जीवात्मा के लिए (स्वस्तिम्) कल्याण को (इषम्) अन्न को (ऊर्जम्) रस को (सुक्षितिम्) उत्तम निवास को (करति) अपने आधार पर सम्पादित करता है (विश्वम्) सर्व वस्तुमात्र को (आभाः) भलीभाँति देता है ॥१२॥
भावार्थ
भोगों को पुनः-पुनः भोगनेवाला जीवात्मा योगाङ्गों के द्वारा परमात्मा की ओर जाता है, परमात्मा इसे प्राप्त होता हुआ इसके लिये अन्न, रस, निवास और कल्याण तथा सब वस्तु अपने व्यापार पर देता है, इसकी पूर्ण तृप्ति करता है ॥१२॥
विषय
योगक्षेमावहो हरिः
पदार्थ
[१] हे (असुर) = हमारी वासनाओं को सुदूर फेंकनेवाले [असु क्षेपणे] प्रभो ! एवा इस प्रकार (महः) = [महतः स्वर्गादे: ] उत्कृष्ट स्वर्गादि लोकों की (वक्षथाय) = प्राप्ति के लिए [ वह प्रापणे] (वम्रकः) = अपनी वासनाओं का उद्गिरण करनेवाला यह उपासक (पड्भिः) = ' वैश्वानरः प्रथमः पादः, तैजसः द्वितीयः पादः, प्राज्ञ स्तृतीयः पादः ' इन शब्दों में वर्णित 'वैश्वानर, तैजस व प्राज्ञ' रूप कदमों के द्वारा (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के समीप (उपसर्पत्) = समीपता से प्राप्त होता है। हम वासनाओं को नष्ट करके सबके हित साधन की वृत्तिवाले बनते हैं, तेजस्वी होते हैं और ज्ञान का वर्धन करके प्रभु प्राप्ति के अधिकारी बनते हैं । [२] (सः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु इस वम्रक से 'वैश्वानर, तैजस व प्राज्ञ' रूप पादों से (इयान:) = जाये जाते हुए (अस्मै) = इस वम्रक के लिए (स्वस्तिम्) = कल्याण को करति करते हैं । (इषं ऊर्जम्) = इसके लिए अन्न व रस को प्राप्त कराते हैं । इस अन्न - रस के द्वारा (सुक्षितिम्) = इसे उत्तम निवास प्राप्त कराते हैं और (विश्वम्) = सब आवश्यक चीजों को (आभाः) = [ आ अभा:- अहाः] प्राप्त कराते हैं [आहरतु] ।
भावार्थ
भावार्थ- हम वासनाओं को विनष्ट करनेवाले वम्रक बनें। प्रभु हमें अन्न, रस व उत्तम निवास देंगे, सब आवश्यक चीजें प्राप्त कराएँगे । सूक्त का मूल भाव वासनाओं को विनष्ट करनेवाला 'वम्रक' बनना ही है। यह वम्रक 'दुवस्यु' होता है, प्रभु का भक्त [dwotee] बनता है। प्रभु के अभिवादन व स्तवन में आनन्द लेने से यह 'वान्दन: ' कहलाता है । यही अगले सूक्त का ऋषि है। यह प्रार्थना करता है कि- अथ नवमोऽनुवाकः
विषय
भक्त की प्रभुप्राप्ति। जीव को सुखार्थ प्रभु का जगत्सर्ग।
भावार्थ
हे (असुर) प्राणों के देने हारे बलवान् प्रभो ! (एव) इस प्रकार (महः वक्षथाय) महान् ऐश्वर्य को धारण करने के लिये वा समस्त संसार को वहन करने वाले तुझ महान् प्रभु को प्राप्त करने के लिये (पड्भिः) नाना ज्ञानमय आचरणों से, कदम बकदम, (वम्रकः इन्द्रम् उपसर्पत्) स्तोता वह भक्त उस ऐश्वर्यवान् प्रभु को प्राप्त कर लेता है। (सः इयानः) वह प्रभु प्राप्त होकर (अस्मै) इस जीव का (स्वस्ति करति) कल्याण करता है और इसके हितार्थ ही (इषम् ऊर्जम् सु-क्षितिम्) उत्तम वृष्टि, अन्न और भूमि बनाता है और इस प्रकार (विश्वम्) देह में प्रविष्ट जीव और समस्त जगत् जिस में ये सब प्राणी और लोक प्रविष्ट हैं उनको (आ अभाः) पाल रहा है। इति पञ्चदशो वर्गः॥ इत्यष्टमोऽनुवाकः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वम्रो वैखानसः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ९, १२ त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४ आसुरी स्वराडार्ची निचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप् ॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एव) एवं (महः-असुर) हे महन् प्राणदातः ! परमात्मन् ! (वक्षथाय) संसारस्य वहनकर्त्रे त्वत्प्राप्तये (वम्रकः) अयं भोगान् पुनः पुनर्वमनवद् ग्रहणकर्त्ता (पड्भिः-इन्द्रम्-उप सर्पत्) पादक्रमैरिवाध्यात्मपादैर्प्रापणैरङ्गैः-योगाङ्गैः परमात्मानमुपगच्छति (सः-इयानः) स परमात्मा प्राप्यमाणः (अस्मै) अस्मै-आत्मसमर्पिणे जीवात्मने (स्वस्तिम्-इषम्-ऊर्जं सुक्षितिं करति) कल्याणमन्नं रसं सुनिवासं स्वाधारे करोति सम्पादयति। “उ स्थाने शप् व्यत्ययेन” (विश्वम्-आभाः) सर्वं वस्तु खल्वाभरति ददाति ॥१२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Thus, O lord of life and pranic energy of the universe, the humble devotee bursting forth in song and adoration step by step moves on to you, great burden bearer and ordainer of the universe. Thus does the lord revealing the presence does good to this devotee giving him all the world’s wealth of food, energy, peace and shelter of divinity and shines to him in full glory.
मराठी (1)
भावार्थ
भोग पुन्हा-पुन्हा भोगणारा जीवात्मा योगांगाद्वारे परमेश्वराकडे जातो. परमात्मा त्याला प्राप्त होऊन त्याला अन्न, रस, निवास व कल्याण, तसेच सर्व वस्तू आपल्या आधारे देतो व पूर्ण तृप्ती करतो. ॥१२॥
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